अंग्रेजी शिक्षा अधिनियम १८३५
अंग्रेजी शिक्षा अधिनियम 1835 भारतीय परिषद (इंड्यन कौन्सिल) का एक विधायी अधिनियम था, जिसने भारत में भावी शिक्षा व्यवस्था को बहुत प्रभावित किया।
लॉर्ड मैकाले वर्ष 1834 में भारत आया। उसे गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद के विधि सदस्य के तौर पर नियुक्त किया गया था। उसकी नियुक्ति सार्वजनिक शिक्षा समिति के अध्यक्ष पद पर कर दी गई जिसका कार्य प्राच्यवादी तथा पाश्चात्यवादी शिक्षा-विवाद पर मध्यस्थता करना था। वर्ष 1835 में उसने अपना स्मरण-पत्र (Minute) गवर्नर जनरल की परिषद के समक्ष प्रस्तुत किया जिसे लॉर्ड विलियम बैंटिक ने स्वीकार करते हुए अंग्रेजी शिक्षा अधिनियम, 1835 पारित किया।
मैकाले के स्मरण-पत्र के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे:
- इसके अनुसार पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन करते हुए यह प्रावधान किया गया कि सरकार के सीमित संसाधनों का प्रयोग पश्चिमी विज्ञान तथा साहित्य के अंग्रेज़ी में अध्यापन हेतु किया जाए।
- सरकार स्कूल तथा कॉलेज स्तर पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी करे तथा इसके विकास के लिये कई प्राथमिक विद्यालयों के स्थान पर कुछ स्कूल तथा कॉलेज खोले जाएँ।
- मैकाले ने इसके तहत ‘अधोगामी निस्यन्दन का सिद्धान्त’ (Downward Filtration Theory) दिया जिसके तहत भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के एक छोटे से हिस्से को शिक्षित करना था ताकि एक ऐसा वर्ग तैयार हो जो रंग और रक्त से भारतीय हो लेकिन विचारों, नैतिकता तथा बुद्धिमत्ता में ब्रिटिश हो। यह वर्ग सरकार तथा आम जनता के मध्य एक कड़ी का कार्य कर सके और इनके माध्यम से उनमें भी पाश्चात्य शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न हो।
इस अधिनियम में तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक द्वारा ब्रिटिश संसद द्वारा खर्च की जाने वाली धनराशि को पुनः आवंटित करने को प्रभावी बनाया था। उल्लेखनीय है कि इसके पहले भारत में शिक्षा की पारंपरिक मुस्लिम और हिंदू रीति विद्यमान थी जो तत्कालीन पारंपरिक भाषाओं (संस्कृत और फ़ारसी) के माध्यम से दी जाती थी। अंग्रेज सरकार इसके लिये कुछ सीमित सहयोग देती थी। किन्तु इस अधिनियम के आने के बाद शिक्षा की भाषा के रूप में केवल अंग्रेजी माध्यम से पश्चिमी शैली के पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले प्रतिष्ठानों का ही समर्थन का प्रावधान था। प्रशासन और उच्च कानून की अदालतों की भाषा के रूप में अंग्रेजी को बढ़ावा देने वाले अन्य उपाय भी किये गये जिससे अन्ततः अंग्रेजी कुछ विदेशियों द्वार बोली जाने वाली भाषा न रहकर भारत की भाषाओं में से एक बना दी गई।
अंग्रेजी शिक्षा से भारत को लाभ
संपादित करें(१) इसने भारत का परिचय अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी साहित्य और इसके द्वारा पश्चिमी देशों की विचारधारा वैज्ञानिक एवं औद्योगिक विकास, सामाजिक एवं राजनैतिक दर्शन से कराया।
(२) भारत की प्राचीन संस्कृति एवं साहित्य का पश्चिमी वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया गया। इस प्रकार भारत में अध्ययन की एक नई पद्धति शुरू हुई। संस्कृत का अध्ययन जिस प्रकार शाला में होता था और आज विश्वविद्यालय में होता है— उसमें भी अध्ययन की पुरानी और नई ते का कुछ अन्तर देखा जा सकता है।
(३) मिशनरियों ने भारत की आधुनिक भाषाओं के व्याकरण ग्रन्थ, शब्दकोश आदि तैयार किए और कैइ मामलों में इन भाषाओं में पहली पुस्तकें, पत्रिकाएँ आदि प्रकाशित की।
(४) अंग्रेजों ने सार्वजनिक शिक्षा के सहायक साधनों का परिचय कराया जैसे मुद्रणालय, रेडियो, सिनेमा आदि।
ब्रितनी शिक्षा से भारत को हुई हानि
संपादित करें(१) इस काल की शिक्षा योजना ने शिक्षा को नौकरी से जोड़ दिया । अतः लोग शिक्षा को नौकरी ने का साधन भर मानने लगे अतः जिसे नौकरी की आवश्यकता हो वही शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करते देखा गया।
(२) नौकरी के लिए केवल अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं, बल्कि वैसी शिक्षा आवश्यक मान ली गई जो रुचि, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज' तैयार करे। अर्थात् यह माना गया कि सरकारी नौकरी के लिए आवश्यक है कि उसकी रुचियाँ, नैतिक आचरण और सोचने-समझने का ढंग अंग्रेजों जैसा हो। इससे भारतीय भाषाओं का तिरस्कार हुआ।
(३) इस शिक्षा नीति ने भारत को आर्थिक रूप से क्षीण करके पूर्णतया अपने शिकंजे में लेकर उसे गुलाम बना लिया।
(४) इसी काल में मैकाले द्वारा प्रस्तावित शिक्षा नीति की उच्च वर्ग हेतु शिक्षा का प्रस्ताव था। इससे मानवीय अधिकारों के हनन को ही बढ़ावा मिला क्योंकि शिक्षा सबका जन्म से ही अधिकार है इसे किसी विशेष वर्ग तक सीमित नहीं किया जाना चाहिये।
(५) मैकाले की शिक्षा नीति द्वारा भारत के मौलिक ज्ञान-विज्ञान, यहाँ की भाषाओं और साहित्य तथा यहाँ की शिक्षा प्रणाली को बहुत क्षति हुई।
(६) "शिक्षा नौकरी का माध्यम है" - यह मान्यता इतनी प्रबल हो गई कि शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य (व्यक्तित्व का विकास, चरित्र का विकास आदि) हमारे चिन्तन से ही गायब हो गए।
(७) शिक्षा द्वारा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न प्रकार का विकास होना चाहिए पर ब्रिटिश शिक्षा ने न केवल इसकी उपेक्षा की बल्कि शिक्षा को इनसे पृथक् कर दिया। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति यह नहीं मानता कि सामाजिक विकास करना उसकी भी जिम्मेदारी है।
(८) ब्रिटिश शिक्षा ने योजनाविहीन विकास की नींव डाली। उसी का परिणाम है कि स्वतन्त्र भारत में 1967 से पहले भारत की कोई राष्ट्रीय शिक्षा नीति थी ही नहीं।
(९) ब्रिटिश शिक्षा ने परीक्षा की एक ऐसी प्रणाली शुरू कर दी जो विद्यार्थी की सम्पूर्ण योग्यता की नहीं, केवल लिख सकने की योग्यता की जाँच करने का दावा करती है। वह भी सृजनात्मक या रचनात्मक लेखन नही पाठ्यपुस्तक से रटी-रटाई सामग्री लिखने की योग्यता देती है। इससे वास्तविक कौशल नहीं प्राप्त किया जा सकता।
(१०) इस शिक्ष का मुख्यतः रटने पर बल था, बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में इसका योगदान कुछ भी नहीं था।
(११) यह शिक्षा प्रतियोगिता को बहुत महत्त्व देती है क्योंकि हम हर बच्चे से प्रथम आने की आशा कर बैठते हैं जो कि सम्भव नहीं है। अतः इससे अस्वस्थ प्रतियोगिता व प्रतिद्वन्द्विता को बढ़ावा मिलता है।
(१२) इस शिक्षा द्वारा राज्य व शिक्षा का ऐसा सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया गया कि आज जनतन्त्र होने के बावजूद शिक्षा हेतु राज्य पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।
(१३) इस शिक्षा द्वारा ज्ञान-विज्ञान के इतिहास को इस प्रकार प्रचारित किया गया है कि माना ज्ञान-विज्ञान की सारी खोज यूरोपीय देशों में ही हुई। भारत में ज्ञान-विज्ञान का जितना विकास हुआ उसका उल्लेख इसमें नहीं मिलता है।
(१४) इस शिक्षा का प्रचार इस रूप में भी किया गया है कि मानो आधुनिक भौतिक उपकरण (बिजली, रेल, रेडियो, टी. वी.) शल्य चिकित्सा के उपकरण, आदि सभी ब्रिटिश शिक्षा के ही देन हैं।
(१५) वुड के घोषणा पत्र में उच्च शिक्षा स्तर पर केवल अंग्रेजी को ही अनिवार्य किया जाना भी इस शिक्षा नीति की कमी है।
(१६) यह शिक्षा धार्मिक असहिष्णुता पर भी बल देती थी क्योंकि इसमें प्रत्येक विद्यालय के पुस्तकालय में बाइबल की प्रतियाँ रखने व ईसाई भिखारियों को अपने विद्यालयों में धर्म की शिक्षा प्रदान करने की छूट दी गई थी।
(१७) नायक-नूरल्ला के अनुसार ब्रिटिश शैक्षिक प्रशासन ने 'राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति' का विकास नहीं किया। वे व्यापार की आड़ में भारत को लूटने आये थे, सुखी व समृद्ध बनाने नहीं।