न्याय या तर्क में, किसी अ-यथार्थ या अ-प्रत्यक्ष कारण के आधार पर कोई बात सिद्ध करना अन्यथासिद्धि कहलाती है। इसे तर्कदोष माना गया है। उदाहरण के लिए, कहीं कुम्हार, दण्ड या गधे को देखकर यह सिद्ध करना कि वहाँ घट (घड़ा) है - यह अन्यथासिद्धि है।

न्यायदर्शन में पाँच प्रकार की अन्यथासिद्धियों का वर्णन मिलता है। घड़े की उत्पत्ति में दण्डत्व, दण्ड का रूप, आकाश, कुम्हार का पिता और मिट्टी लाने वाला गधा, ये अन्यथासिद्ध कारण हैं। अन्यथासिद्धि की यह कल्पना न्यायशास्त्र में सर्वप्रथम गंगेश उपाध्याय (13वीं शताब्दी) से प्रारम्भ हुई।

यद्यपि भाषापरिच्छेद आदि ग्रन्थान्तरों में पाँच प्रकार की अन्यथासिद्धि बतायी गयी है। तथापि चिन्तामणिकार के मतानुसार अन्यथासिद्धि के तीन ही भेद हैं तथा इन्हीं तीनों में पाँचों गतार्थ हो जाते हैं। पाँच अन्यथासिद्ध हैं- दण्डत्व-दण्डरूप-आकाश-कुलालजनक तथा रासभ । इनमें प्रथम और द्वितीय एक ही ( प्रथम ) अन्यथासिद्धि में गतार्थ हो जायेंगे तथा तृतीय और चतुर्थ भी एक ही ( द्वितीय ) अन्यथासिद्धिमें गतार्थ हो जायेंगे । पञ्चम स्वतन्त्र अन्यथासिद्धि ( तृतीय ) होगी। वस्तुतस्तु पञ्चम अन्यथासिद्धि में ही सभी गतार्थ हो सकते हैं । इसलिये वस्तुगत्या एक ही अन्यथासिद्धि है।

दीपिकाकार प्रतिपादित तीन अन्यथासिद्धियाँ निम्नलिखित हैं—जिसके साथ ही जिसका जिसके प्रति पूर्ववृत्तित्व अवगत होता है, उसके द्वारा वह अन्यथासिद्ध हो जाता है। जैसे, तन्तु के साथ ही तन्तुरूप एवं तन्तुत्व पट के प्रति पूर्ववृत्ति होता है, इसलिये तन्तु से तन्तुरूप एवं तन्तुत्व अन्यथासिद्ध हो जाता है।

एवं दूसरे के प्रति पूर्ववृत्तित्व ज्ञात होनेपर ही जिसका जिसके प्रति पूर्ववृत्तित्व अवगत होता है, वह उसके प्रति अन्यथासिद्ध होता है। जैसे, शब्द के प्रति पूर्ववृत्तित्व ज्ञात होनेपर ही आकाश का घट के प्रति पूर्ववृत्तित्व ज्ञात होता है, इसलिये घट के प्रति आकाश अन्यथासिद्ध है।

एवं अन्यत्र क्लुप्त ( निश्चित ) नियत पूर्ववृत्ति से ही कार्य हो सकने पर उसका सहभूत जो होगा, वह उस कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध होगा । जैसे, अपाकजस्थल में गन्ध के प्रति निश्चितरूप से गन्धप्रागभाव ही पूर्ववृत्ति ( कारण ) होता है, इसलिये पाकजस्थल में भी गन्ध के प्रति गन्धप्राग्भाव ही कारण होगा । अतः यहाँ गन्धकार्य के प्रति रूपप्रागभाव अन्यथासिद्ध है।