अबोटी
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आबोटी, गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र की ब्राह्मणों की एक उपजाति है।
‘‘गुजरात के ब्राह्मणों का इतिहास’’ में डो। शिवप्रसाद राजगोर द्वारा प्रकाशित इस सुप्रसिध्ध पुस्तिकामें ‘‘अबोटी ब्राह्मिनो’’ की उत्पत्ति के बारेमें विवरण करते हुए पेज नंबर ५१२ से ५१७ पर लिखते हैं कि गुजरातमें सांप्रदायिक तौर से सूर्य उपासनाकी शुरुआत दूसरी शताब्दीमें हुई। ‘‘प्रभास’’ नामक स्थल पर सूर्यपूजा होती थी जिसका प्रमाण महाभारत के वनपर्वमें पाया जाता है। प्रभासको ‘‘भास्करक्षेत्र’’ के नामसे भी जाना जाता है। ‘‘भास्कर’’ का अर्थ होता है सूर्य और ‘‘प्रभास’’ मतलबकी अतिप्रकाशित। इस प्रकार से ये दोनों ही शब्द सूर्यपूजा को सूचित करते हैं।
सूर्यपूजा ईरान से भारत में आई, इसबारे में भविष्य पुराणमें एक कहानी है। इस कहानी के अनुसार श्री कृष्ण और जाम्बवती के पुत्र सांखने चंद्रभागा (चिनाब) नदी के तट पर सूर्यमंदिर बनवाया था। उस स्थल के निवासी ब्राह्मिनोने पूजा करनेसे इन्कार किया तब सांख द्विपसे सूर्यपूजक ‘‘मग’’ ब्राह्मिनोको निमंत्रित करने की सलाह उन्हे प्राप्त हुई।
इन ‘‘मग’’ ब्राह्मिनो की उत्पत्ति के बारे में माना जाता है कि सूर्य को सुजीह्व मिहिर गौत्र की ब्राह्मिन कन्या निभुक्षा से प्यार था और उन्ही से एक पुत्र ‘‘जरदस्त’’ या ‘‘जरशब्द’’ हुआ। माना जाता है कि ये मग ब्राह्मिन उन्ही के वंशज है। सौराष्ट्र में सूर्यपूजा दरायस के वकत से, यानि कि वायव्य सरहदी विस्तार उनके शासनमें था तब से अर्थात् पाँचवी शताब्दी से प्रचलित थी ऐसी मान्यता है। बाइबलमें ‘‘मगी’’ या ‘‘मेगी’’ शब्द का प्रमाण पाया जाता है ओर वर्तमान अबोटी ब्राह्मिन इन्ही मग ब्राह्मिनो (सूर्यपूजको) के वंशज है। इस प्रकार से भारत वर्ष में मग ब्राह्मिनो को सांब लेकर आया। उपर्युकत वार्तानुसार सूर्य का प्रथम मंदिर ‘‘मूलस्थान’’ या ‘‘मूलतान’’ में चँद्रभागा के तट पर था। तत् पश्चात् पूरे उत्तर-पश्चिम भारतमें सूर्यपूजा का फैलावा हुआ। द्वारिका से पाँच मिल दूर चँद्रभागा नाम की छोटीसी झील है। जीसके तट पर सांब-लक्ष्मणजी के मंदिर आज भी प्रसिध्ध है। ध्रासणवेलका सूर्यमंदिर ‘‘मग मंदिर’’के नामसे जगमशहुर है। पींडतारक क्षेत्र के मुनियोंका अपमान करने के कारण सांब को कुष्ठरोग हुआ था। इस रोग के उपचार हेतु साँबने ईरान से मगब्राह्मिनोको बुलवाया था। अंत में सूर्यउपासना से सांब का कुष्ठरोग दूर हुआ। वर्तमान समयमेंभी अबोटी ब्राह्मिनोमें ‘‘शामजी’’ नाम अधिक प्रचलित है। जो की उन लोगों का सांब के साथ विशेष रिश्ता सूचित करता है।
भिन्नमाल के जगतस्वामि मंदिर के स्तंभलेखमें ’’अंगभोग’’ में मिली राशिका बंटवारा कैसे करना? इस विषय पर विशेष विवरण पाया जाता है। इस टीप्पणीमें अबोटी एवं व्यास भट्टजी को मंदिर के खास व्यकित के तौर पर कुछ दान देने का प्रमाण मिलता है। इस मंदिर का निर्माण सन ६४४ में हुआ और उनका पुन:निमार्ण सन ८८९ में किया गया। मंदिरमें जो स्तंभालेख है वो १३वीं शताब्दीका माना जाता है। जिसके आधार से यह कहा जा सकता है कि अबोटी ब्राह्मिन मारवाडमें सूर्यनारायण के पूजारी थे।
एक कथा अनूसार वज्नाभ के साथ आये मग ब्राह्मिन मथुरा गये और वहां से वे मारवाड पहुंचे। तत् पश्चात् वल्लभ संप्रदाय के प्रागट्य पर वे द्वारिका आये। श्री कल्याणराय जोषी द्वारिकाके बारेमें लीखी अपनी किताबमें लिखते हैं कि श्रीमाल में से श्रीमाली, सेवक, भोजक इत्यादी के साथ अबोटी ब्राह्मिनभी गुजरात में आये। कइ विद्वान ये मानते है कि अबोटी ब्राह्मिन मुलत: श्रीमाल के सेवक ज्ञाति की उपशाखा है। जब की एन्थोवन नामक संशोधक अबोटी ब्राह्मीनो को श्रीमालीका एक हिस्सा मानते है।
‘‘अबोटी ब्राह्मिनोत्पति’’ पुस्तिका के लेखक स्व। वल्लभराय मकनजी पुरोहीत वालखिल्य पूरानका प्रमाण देते हुए लिखते हैं कि शिव-पार्वती के विवाह समारोह में मा पार्वती के अदभूत रूपको देखकर ब्रह्माजी मोहित हो गये और उनका विर्य स्खलन हो कर के रेत में गिरा। जीससे ८८१२८ अ-योनिज ऋषियोंकी उत्पत्ति हुइ जो ‘‘वालखिल्य’’ नामसे प्रचलित हुए। श्री कृष्णवंशज वज्रनाभने द्वारिकामें श्री जगदीशमंदिर के पुन:निमार्ण के अवसर पर जम्बुद्विप से ब्राह्मिनो को बुलाकर के लाने के लीए गरूडजीको विनती की। गरूडजी इन ब्राह्मिनो को अपनी चोंच पर बीठाकर के लाए अत: वे ‘‘अबोटी’’नाम से प्रचलित हुए। श्री लाभशंकर पुरोहीत जो स्वंय अबोटी ब्राह्मीन ज्ञातिके ही है वे मानते है कि सौराष्ट्रमें अबोटी ब्राह्मीनो का बसेरा प्राचीन काल से है। वे मानते है कि अबोटी ब्राह्मिन यादवों के पुरोहीत थे। लेकिन द्वारिका के विनाश के बाद वे उस स्थल से चले गये होंगे। श्री पुरोहीत कहते हैं कि अबोटी ब्राह्मिन श्री कृष्णपूजा में अत्यधिक विश्वास रखते थे अत:वे ‘‘वैश्नव’’ हैं। अबोटी ब्राह्मिनोमें सूर्यपत्नि रन्नादेवी की भक्तिभी विशेष पायी जाती हैं।
बोम्बे गेझीटीयर के वोल्युम ९ वें में यह विवरण लिखा गया है कि अबोटी ब्राह्मीनो के आदीपुरूष वाल्मिकीजी के छोटेभाइ थे। और द्वारिकानगरी में भगवान श्री कृष्णने जब यज्ञ करवाया तब गरूडजी अन्य ब्राह्मिनोके अतरिकत अबोटी ब्राह्मीनों को भी अपने साथ द्वारिका लाये। कई विद्वान ये मानते हे की ‘‘अजोटी ब्राह्मिन’’ ही अबोटी ब्राह्मिन है कि जो आध्यात्मिक अयाचक याज्ञवल्कय ऋषिके वंशज है। समय बितने के साथ वे ‘‘अबोटी ब्राह्मिन’’ नाम से प्रचलित हुए। ‘‘अबोटी’’ शब्द को समझाते हुए ये विद्वान लिखते है कि ये ब्राह्मिन स्नान, पूजा, वंदना एवं आध्यात्मिक क्रियायें ‘‘अबोट’’(पवित्र वस्त्र) पहनकर करते थे। अत: इन्हें ‘‘अबोटी ब्राह्मिन’’ नामसे प्रसिध्धी मिली। विद्वानो एवं संशोधकों का एक मत ऐसा भी है कि ‘‘मगब्राह्मिन’’ अपने आपको ‘‘अबोटी’’ कहलवाते थे। इस बात को समझाते हुए वे कहते हैं कि इन ब्राह्मिनोने विधर्मी लोगों के सामने न झुककर स्वधर्मको ही सच्चा मानते हुए ‘‘अ-बोट’’(पवित्र) रहेना पसंद कीया। इससे ये मग ब्राह्मिन ‘‘अबोटी मग ब्राह्मिन’’ नामसे पहेचाने जाने लगे। समय के साथ साथ इस नामसे कीसी कारण ‘‘मग’’ शब्द का अपभ्रंश हो कर ‘‘अबोटी मग ब्राह्मिन’’ के बदले में ‘‘अबोटी ब्राह्मिन’’ के नाम से प्रचलित हुए।‘‘ब्राह्मीनों का इतिहास’’ पुस्तक की प्रस्तावनामें डो। श्री के। का। शास्त्री अबोटी ब्राह्मीनों को मग ब्राह्मिन के वंशज करार देते हुए लिखते है कि यह मत कतई असंभव नहीं है। इस पुस्तकमें इन ब्राह्मिनो की चर्चा के साथ भारतवर्षमें सूर्यपूजा के विकास की अतिमहत्वपुर्ण बात भी बुन ली गइ है। इस पूजा का फैलावा करनेवाले ये मग अबोटी ब्राह्मिन ही है और वही श्री द्वारिकाधीश मंदिर के मुख्य पूजारी भी थे। इनके इष्टदेव भगवान द्वारिकाधीश है। वर्तमान समयमें भी द्वारिकानगरीमें भगवान द्वारीकाधीश के मंदिरमें ध्वजारोहण की पवित्रविधी अबोटी ब्राह्मीन के त्रिवेदी परिवार के लोंग निभाते चले आ रहे हैं।