अर्थसंग्रह मीमांसा का एक लघुकाय प्रकरण ग्रन्थ है, जिसमें शाबरभाष्य में प्रतिपादित बहुत से विषयों का अतिसंक्षेप में निरूपण है। संक्षेप में अधिकतम विषयों को प्रस्तुत करने के कारण इस ग्रन्थ का प्रचार जिज्ञासु-सामान्य में अत्यधिक हुआ और उपयोगी होने पर भी अनेक प्रकरण ग्रन्थ इतने प्रचलितन हो सके। [1] इसके रचनाकार भास्कर हैं। इस ग्रन्थ में निम्नलिखित विषयों का मुख्यतः विवेचन हुआ है-

  • धर्म तथा उसका लक्षण,
  • भावना का लक्षण तथा उसके दो भेद,
  • वेद का लक्षण तथा उसके विभाग,
  • विधि का लक्षण तथा उसके प्रकार।

भारतीय दार्शनिक चिन्तन वैदिक काल से प्रारंभ होकर अद्यावधि निरन्तर प्रवाहमान है। भारतीय दर्शन में वेद की प्रमाणता को न मानने वाले दर्शनों को ‘नास्तिक’ कहा गया। इसके विपरीत वेद में आस्था रखने वाले दर्शन ‘आस्तिक दर्शन’ कहलाये, जिनकी संख्या ६ है। इन दर्शनों में ‘मीमांसा दर्शन’ का स्थान अन्यतम है। आज भी वेद, ब्राह्मणादि को समझने के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों के ज्ञान हेतु ‘मीमांसा’ का आश्रय लिया जाता है। जैमिनिप्रणीत ‘मीमांसा दर्शन’ के पश्चात् अन्य मीमांसा ग्रंथ भी लिखे गये जिनमें लौगाक्षिभास्कर कृत ‘अर्थसंग्रह’ का विशिष्ट स्थान है। अर्थसंग्रह में जैमिनि प्रणीत मीमांसा-दर्शन के मुख्य प्रतिपाद्यविषयों का निरूपण अत्यंत सारगर्भित शैली में प्रस्तुत किया गया है।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "अर्थसंग्रहः". मूल से 2 फ़रवरी 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 जनवरी 2016.

इन्हें भी देखें संपादित करें

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