संगीत रत्नाकर[क] के अनुसार, नियमित वर्ण समूह को अलंकार कहते हैं। सरल शब्दों में, स्वरों के नियमानुसार चलन को अलंकार कहते हैं। अलंकारों को बहुत से लोग पलटा भी कहते हैं। अलंकार, संगीत के अभ्यास का प्रथम चरण होतें हैं। शास्त्रीय गायन तथा वादन के क्षेत्र में विद्यार्थियों को सर्वप्रथम अलंकारो का अभ्यास करवाया जाता है। वाद्य के विद्यार्थियों को अलंकार के अभ्यास से वाद्य पर विभिन्न प्रकार से उंगलियां घुमाने की योग्यता हासिल होती है वहीं गायन क्षेत्र से जुड़े लोगो को इस के नियमित अभ्यास से कंठ मार्जन में विशेष सहायता मिलती है।

अलंकारों में कई कड़ियाँ होती है, जो आपस में एक दूसरे से जुड़ी रहतीं हैं। अलंकारों की रचना में- प्रत्येक अलंकार में मध्य सप्तक के (सा) से तार सप्तक के (सां) तक आरोही वर्ण होता है जैसे- "सारेग, रेगम, गमप, मपध, पधनी, धनीसां" व तार सप्तक के (सां) से मध्य सप्तक के (सा) तक अवरोही वर्ण होता है जैस:-"सांनिध, निधप, धपम, पमग, मगरे, गरेसा"। एक अन्य उदाहरण में आरोही व अवरोही वर्ण साथ में देखें………

आरोह -सारेगम, रेगमप, गमपध, मपधनि, पधनिसां। अवरोह -सांनिधप, निधपम, धपमग, पमगरे, मगरेसा।

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

क.    ^ विशिष्ट-वर्ण-सन्दर्भमलंकार प्रचक्षते।