आगम (हिन्दू)
आगम परम्परा से आये हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। ये वेद के सम्पूरक हैं। इसमें से अधिकांश संस्कृत में हैं किन्तु कुछ तमिल में भी हैं।
आगम की तीन मुख्य शाखाएँ हैं- शैव आगम, वैष्णव आगम तथा शाक्त आगम। इनके वक्ता प्रायः शिवजी होते हैं। इस शास्त्र को कभी-कभी 'तंत्रशास्त्र' भी कहा जाता है, यद्यपि तन्त्र से आशय विशेष रूप से शाक्त आगमों से है। आगम ग्रन्थों की संख्या विपुल है। इसमें २८ शैव आगम, ६४ शाक्त आगम, तथा १०८ वैष्णव आगमों के अतिरिक्त बहुत से उप-आगम भी हैं।
निगमागममूलक भारतीय संस्कृति का आधार जिस प्रकार निगम (=वेद) है, उसी प्रकार आगम (=तंत्र) भी है। दोनों स्वतंत्र होते हुए भी एक दूसरे के पोषक हैं। निगम कर्म, ज्ञान तथा उपासना का स्वरूप बतलाता है तथा आगम इनके उपायभूत साधनों का वर्णन करता है। इसीलिए वाचस्पति मिश्र ने 'तत्ववैशारदी' (योगभाष्य की व्याख्या) में 'आगम' को व्युत्पत्ति इस प्रकार की है : आगच्छन्ति बुद्धिमारोहन्ति अभ्युदयनि:श्रेयसोपाया यस्मात्, स आगमः।
आगम का मुख्य लक्ष्य 'क्रिया' के ऊपर है, तथापि ज्ञान का भी विवरण यहाँ कम नहीं है। 'वाराहीतंत्र' के अनुसार आगम इन सात लक्षणों से समवित होता है :
- सृष्टि, प्रलय, देवार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म (=शांति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण) तथा ध्यान।
'महानिर्वाण तंत्र' के अनुसार कलियुग में प्राणी मेध्य (पवित्र) तथा अमेध्य (अपवित्र) के विचारों से बहुधा हीन होते हैं और इन्हीं के कल्याणार्थ महादेव ने आगमों का उपदेश पार्वती को स्वयं दिया। इसीलिए कलियुग में आगम की पूजापद्धति विशेष उपयोगी तथा लाभदायक मानी जाती है- कलौ आगमसम्मतः।
वैदिक धर्म में उपास्य देवता की भिन्नता के कारण इसके मुख्य तीन प्रकार है:
- वैष्णव आगम (पंचरात्र तथा वैखानस आगम),
- शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धान्त, त्रिक आदि) , तथा
- शाक्त आगम ( कुलार्णव, कामधेनु, कुब्जिक, तन्त्रराज, वाराहीतन्त्र, रुद्र यामल, भूतशुद्धितन्त्र, तथा महानिर्वाणतन्त्र आदि)
द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं। अनेक आगम वेदमूलक हैं, परंतु कतिपय तंत्रों के ऊपर बाहरी प्रभाव भी लक्षित होता है। विशेषतः शाक्तागम के कौलाचार के ऊपर चीन या तिब्बत का प्रभाव पुराणों में स्वीकृत किया गया है। आगमिक पूजा विशुद्ध तथा पवित्र भारतीय है। 'पञ्च मकार' के रहस्य का अज्ञान भी इसके विषय में अनेक भ्रमों का उत्पादक है।
वाराही तंत्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवार्चन, सब कार्यों के साधना, पुरश्चरण, षट्कर्म तथा ध्यानयोग का वर्णन हो, उसे आगम कहते हैं। जिसमें सृष्टितत्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं ; और जिसमें सृष्टि, लट, मंत्रनिर्णय, देवताओं, के संस्थान, यंत्रनिर्णय, तीर्थ, आश्रम, धर्म, कल्प, ज्योतिष संस्थान, व्रत-कथा, शौच और अशौच, स्त्री-पुरूष-लक्षण, राजधर्म, दान-धर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक विषयों का वर्णन हो, वह तंत्र कहलाता है।
शैवागम
संपादित करेंशैवागम २८ हैं-
- (क) शिवागम
- १ कामिक, २ योगज, ३ चिन्त्य, ४ कारण, ५ अजित, ६ दीप्त, ७ सूक्ष्म, ८ सहस्र, ९ अंशुमान, १० सुप्रभेद,
- (ख) रुद्रागम
- ११ विजय, १२ निश्वास, १३ स्वायंभूव, १४ अनल , १५ वीर ,१६ रौरव, १७ मकुट, १८ विमल, १९ चंद्रज्ञान, २० बिंब,
- २१ प्रोद्गीत्, २२ ललित, २३ सिद्ध, २४ संतान, २५ शर्वोक्त, २६ पारमेश्वर, २७ किरण , २८ वातुल
इन २८ आगमों के २०४ उपागम है।
प्रत्येक आगम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें 'पाद' कहते हैं - क्रियापाद, चर्यापाद, योगपाद और ज्ञानपाद । क्रियापाद में देवालय की स्थापना, मूर्ति-निर्माण व प्रतिष्ठापना का प्रतिपादन हुआ है। चर्यापाद में मूर्ति की पूजा, उत्सवादि विषयों का निरुपण हुआ है। योगपाद में अष्टांगयोग साधना का तथा ज्ञानपाद में दार्शनिक विषय वर्णित हैं।
चर्यापाद -- प्रायश्चित विधि, पवित्र विधि, शिवलिङ्गलक्षणम्,जापमाला, योगपट्टलक्षणम्
क्रियापाद -- मन्त्र उद्धरण, सन्ध्यावन्दन, पूजा, जप, होम, समय विशेष, निर्वाण, आचार्याभिषेक
योगपाद -- ३६ तत्त्व , तत्त्वेश्वर, यम, नियम, आसन, समाधि
ज्ञानपाद या विद्यापाद -- पति, पशु, पाश
शाक्त आगम
संपादित करेंवैष्णव आगम
संपादित करेंसौर अगम
संपादित करेंसौर आगम सूर्य को समर्पित हैं और मंदिरों में सूर्य की पूजा के लिये उपयोग में आते हैं।
गाणपत्य आगम
संपादित करेंपरमानन्द तंत्र में विभिन्न आगमों की संख्या का उल्लेख है। इसके अनुसार 6,000 वैष्णव आगम, 10,000 शैव आगम, 100,000 शाक्त आगम, 1,000 गाणपत्य आगम, 2,000 सौर आगम, 7,000 भैरव आगम, तथा 2,000 आगम यक्ष-भूतादि-साधना के लिए हैं।
कालक्रम एवं इतिहास
संपादित करेंआगम ग्रन्थों का कालक्रम एवं इतिहास स्पष्टतः ज्ञात नहीं है। इस समय जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनकी रचना संभवतः पहली सहस्राब्दी ई.पू. में हुई थी और वे संभवतः ५वीं शताब्दी ई.पू. तक अस्तित्व में आ गये थे। मंदिर और पुरातात्विक शिलालेखों के साथ-साथ ग्रन्थों के साक्ष्यों से पता चलता है कि आगम ग्रंथ ७वीं शताब्दी में पल्लव राजवंश के युग में अस्तित्व में थे।
इन्हें भी देखें
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