तिब्बत
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तिब्बत एशिया का एक प्राचीन देश था जिसकी सीमाएँ भारत , चीन जनवादी गणराज्य, अफगानिस्तान व बर्मा से लगती हैं। दलाई लामा यहां के प्रसिद्ध धार्मिक नेता हैं। भारत के साथ तिब्बत के प्राचीन काल से ही निकट सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं। संस्कृत ग्रन्थों में सम्भवतः इसे ही 'त्रिविष्टप' कहा गया है, जिसका अर्थ है- "वह स्थान जिसके तीन प्रवेश द्वार हैं"।[1]
तिब्बत བོད་ཡུལ། तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र | |||
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तिब्बत स्वायत्त | |||
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निर्देशांक: 30°09′12″N 88°47′02″E / 30.1534°N 88.7839°Eनिर्देशांक: 30°09′12″N 88°47′02″E / 30.1534°N 88.7839°E | |||
देश | तिब्बत | ||
राजधानी | ल्हासा | ||
प्रभागों | 5 प्रीफेक्चर स्तर के शहर, 2 प्रान्त, 6 जिले, 68 काउंटी, 692 टाउनशिप | ||
क्षेत्रफल | |||
• कुल | 1228400 किमी2 (4,74,300 वर्गमील) | ||
अधिकतम उच्चता (माउंट एवरेस्ट) | 8,848 मी (29,029 फीट) | ||
जनसंख्या (2014) | |||
• कुल | 31,80,000 | ||
• घनत्व | 2.59 किमी2 (6.7 वर्गमील) | ||
भाषाएँ | |||
• आधिकारिक | तिब्बती | ||
समय मण्डल | तिब्बत | ||
मुख्य नगर | ल्हासा | ||
धर्म | बौद्ध (तिब्बती बौद्ध) | ||
वेबसाइट | http://tibbet.nic.in/ |
सन 1950 में तिब्बत चीन की साम्राज्यवादी नीति का शिकार हो गया। अब यह चीन का राष्ट्रीय स्वायत्त क्षेत्र है, और इसकी भूमि मुख्य रूप से पठारी है। इसे पारंपरिक रूप से बोड या भोट भी कहा जाता है। चीन द्वारा तिब्बती लोगों पर काफी अत्याचार किए गए व अब भी किये जा रहें हैं।
भारत
स्थिति व भूगोल
संपादित करें३२ अंश ३० मिनट उत्तर अक्षांश (लैटीट्यूड) तथा ८६ अंश ० मिनट पूर्वी देशान्तर (लॉन्गीट्यूड)। तिब्बत मध्य एशिया की उच्च पर्वत श्रेंणियों के मध्य कुनलुन एवं हिमालय के मध्य स्थित है। इसकी ऊँचाई १६,००० फुट तक है। यहाँ का क्षेत्रफल ४७,००० वर्ग मील है। तिब्बत का पठार पूर्व में शीकांग से, पशिचम में कश्मीर से दक्षिण में हिमालय पर्वत से तथा उत्तर में कुनलुन पर्वत से घिरा हुआ है। यह पठार पूर्वी एशिया की बृहत्तर नदियों हवांगहो, मेकांग आदि का उद्गम स्थल है, जो पूर्वी क्षेत्र से निकलती हैं।
पूर्वी क्षेत्र में कुछ वर्षा होती है एवं ३६५.७६ मी॰ (१२०० फुट) की ऊँचाई तक वन पाए जाते है। यहाँ कुछ घाटियाँ १५२४ मी॰(५,००० फुट) ऊँची हैं, जहाँ किसान कृषि करते हैं। जलवायु की शुष्कता उत्तर की ओर बढ़ती जाती है एवं जंगलों के स्थान पर घास के मैदान अधिक पाए जाते है। जनसंख्या का घनत्व धीरे-धीरे कम होता जाता है। कृषि के स्थान पर पशुपालन बढ़ता जाता है। साइदान घाटी एवें कीकोनीर जनपद पशुपालन के लिये विशेष प्रसिद्ध है।
बाह्य तिब्बत की ऊबड़-खाबड़ भूमि की मुख्य नदी यरलुंग त्संगपो (ब्रह्मपुत्र) है, जो मानसरोवर झील से निकल कर पूर्व दिशा की ओर प्रवाहित होती है और फिर दक्षिण की ओर मुड़कर भारत एवं बांग्लादेश में होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिर जाती है। इसकी घाटी के उत्तर में खारे पानी की छोटी - छोटी अनेक झीलें हैं, जिनमें नम त्सो (उर्फ़ तेन्ग्री नोर) मुख्य है। इस अल्प वर्षा एवं स्वल्प कृषि योग्य है। त्संगपो की घाटी में वहाँ के प्रमुख नगर ल्हासा, ग्यान्त्से एवं शिगात्से आदि स्थित है। बाह्य तिब्बत का अधिकांश भाग शुष्क जलवायु के कारण केवल पशुचारण के योग्य है और यही यहाँ के निवासियों का मुख्य व्यवसाय हो गया है। कठोर शीत सहन करनेवाले पशुओं में याक(Yak: a wooly animal) मुख्य है जो दूध देने के साथ बोझा ढोने का भी कार्य करता है। इसके अतिरिक्त भेड़, बकरियाँ भी पाली जाती है। इस विशाल भूखंड में नमक के अतिरिक्त स्वर्ण एवं रेडियमधर्मी खनिजों के संचित भंडार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऊबड़ खाबड़ पठार में रेलमार्ग बनाना अत्यंत दुष्कर और व्ययसाध्य है अत: पर्वतीय रास्ते एवं कुछ राजमार्ग (सड़कें) ही आवागमन के मुख्य साधन है, हालांकि चिंगहई-तिब्बत रेलमार्ग तैयार हो चुका है। सड़के त्संगपो नदी की घाटी में स्थित नगरों को आपस में मिलाती है। पीकिंग-ल्हासा राजमार्ग एवं ल्हासा काठमांडू राजमार्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने की अवस्था में है। इनके पूर्ण हो जोने पर इसका सीधा संबंध पड़ोसी देशों से हो जायेगा। चीन और भारत ही तिब्बत के साथ व्यापार में रत देश पहले थे। यहाँ के निवासी नमक, चमड़े तथा ऊन आदि के बदले में चीन से चाय एवं भारत से वस्त्र तथा खाद्य सामग्री प्राप्त करते थे। तिब्बत एवं शिंजियांग को मिलानेवाले तिब्बत-शिंजियांग राजमार्ग का निर्माण जो लद्दाख़ के अक्साई चिन इलाक़े से होकर जाती है पूर्ण हो चुका है।[2] ल्हासा - पीकिंग वायुसेवा भी प्रारंभ हो गई है।
इतिहास
संपादित करेंमध्य एशिया की उच्च पर्वत श्रेणियों, कुनलुन एवं हिमालय के मध्य स्थित १६००० फुट की ऊँचाई पर स्थित इस राज्य का ऐतिहासिक वृतांत लगभग ७वी शताब्दी से मिलता है। ८वीं शताब्दी से ही यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार प्रांरभ हुआ। १०१३ ई॰ में नेपाल से धर्मपाल तथा अन्य बौद्ध विद्वान् तिब्बत गए। १०४२ ई॰ में दीपंकर श्रीज्ञान अतिशा तिब्बत पहुँचे और बौद्ध धर्म का प्रचार किया। शाक्यवंशियों का शासनकाल १२०७ ई॰ में प्रांरभ हुआ। मंगोलों का अंत १७२० ई॰ में चीन के माँछु प्रशासन द्वारा हुआ। तत्कालीन साम्राज्यवादी अंग्रेंजों ने, जो दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त करते जा रहे थे, यहाँ भी अपनी सत्ता स्थापित करनी चाही, पर १७८८-१७९२ ई॰ के गुरखों के युद्ध के कारण उनके पैर यहाँ नहीं जम सके। परिणाम स्वरूप १९वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थिर रखी यद्यपि इसी बीच लद्दाख़ पर कश्मीर के शासक ने तथा सिक्किम पर अंग्रेंजों ने आधिपत्य जमा लिया। अंग्रेंजों ने अपनी व्यापारिक चौकियों की स्थापना के लिये कई असफल प्रयत्न किया। इतिहास के मुताबिक तिब्बत को दक्षिण में नेपाल से भी कई बार युद्ध करना पड़ा और नेपाल ने इसको हराया। नेपाल और तिब्बत की सन्धि के मुताबिक तिब्बत को हर साल नेपाल को ५००० नेपाली रुपये हरज़ाना भरना पड़ा। इससे आजित होकर नेपाल से युद्ध करने के लिये चीन से मदद माँगी चीन के मदद से उसने नेपाल से छुटकारा तो पा लिया लेकिन इसके बाद १९०६-१९०७ ई॰ में तिब्बत पर चीन ने अपना अधिकार कर लिया और याटुंग ग्याड्से एवं गरटोक में अपनी चौकियाँ स्थापित की। १९१२ ई॰ में चीन से [[चिंग राजवंश |मान्छु शासन]] अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को पुन: स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया। सन् १९१३-१९१४ में चीन, भारत एवं तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक शिमला में हुई जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी भागों में विभाजित कर दिया गया:
- (१) पूर्वी भाग जिसमें वर्तमान चीन के चिंगहई एवं सिचुआन प्रांत हैं। इसे 'अंतर्वर्ती तिब्बत' (Inner Tibet) कहा गया।
- (२) पश्चिमी भाग जो बौद्ध धर्मानुयायी शासक लामा के हाथ में रहा। इसे 'बाह्य तिब्बत' (Outer Tibet) कहा गया।
सन् १९३३ ई॰ में १३वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद से बाह्य तिब्बत भी धीरे-धीरे चीनी घेरे में आने लगा। चीनी भूमि पर लालित पालित १४वें दलाई लामा ने १९४० ई॰ में शासन भार सँभाला। १९५० ई॰ में जब ये सार्वभौम सत्ता में आए तो पंछेण लामा के चुनाव में दोनों देशों में शक्तिप्रदर्शन की नौबत तक आ गई एवं चीन को आक्रमण करने का बहाना मिल गया। १९५१ की संधि के अनुसार यह साम्यवादी चीन के प्रशासन में एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया। इसी समय से भूमिसुधार कानून एवं दलाई लामा के अधिकारों में हस्तक्षेप एवं कटौती होने के कारण असंतोष की आग सुलगने लगी जो क्रमश: १९५६ एवं १९५९ ई॰ में जोरों से भड़क उठी। परतुं बलप्रयोग द्वारा चीन ने इसे दबा दिया। अत्याचारों, हत्याओं आदि से किसी प्रकार बचकर दलाई लामा नेपाल पहुँच सके। अभी वे भारत में बैठकर चीन से तिब्बत को अलग करने की कोशिश कर रहे हैं। अब सर्वतोभावेन चीन के अनुगत पंछेण लामा यहाँ के नाममात्र के प्रशासक हैं।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंबाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- तिब्बत की आजादी का संघर्ष (राजकिशोर)
- मानसरोवर की भूमि तिब्बत (जागरण)
- तिब्बत पर चीन के खूनी अत्याचारों के पचास वर्ष (डा. सतीश चन्द्र मित्तल)
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ तिब्बत कभी नहीं रहा चीन का भाग (वेबदुनिया)
- ↑ "Xinjiang-Tibet Highway (Yecheng-Burang)". मूल से 28 मई 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 जुलाई 2013.