आर्थर लेवेलिन बाशम

ब्रिटिश इतिहासकार और इंडोलॉजिस्ट

आर्थर लेवेलिन बाशम (Arthur Llewellyn Basham ; 24 मई, 1914 – 27 जनवरी, 1986) प्रसिद्ध इतिहासकार, भारतविद तथा अनेकों पुस्तकों के रचयिता थे। १९५० और १९६० के दशक में 'स्कूल ऑफ ओरिएण्टल ऐण्ड अफ्रिकन स्टडीज' के प्रोफेसर के रूप में उन्होने अनेकों भारतीय इतिहासकारों को पढ़ाया, जिनमें आर एस शर्मा, रोमिला थापर तथा वी एस पाठक प्रमुख हैं।

आर्थर लेवेलिन बाशम
Arthur Llewellyn Basham
चित्र:MyGurujiCover.jpg
जन्म 24 मई 1914
Loughton, एसेक्स, इंग्लैण्ड
मौत 27 जनवरी 1986(1986-01-27) (उम्र 71)
कलकत्ता, भारत
राष्ट्रीयता ब्रिटिश
शिक्षा School of Oriental and African Studies
पेशा इतिहासकार एवं शिक्षाकर्मी
प्रसिद्धि का कारण जाने माने इतिहासकार और भारतविद
बच्चे 1 (1 बेटी)
उल्लेखनीय कार्य {{{notable_works}}}

इंग्लैंड में पैदा हुए और पले-बढ़े बाशम को मुख्यतः प्राचीन भारत की संस्कृति पर लिखी उनकी अत्यंत लोकप्रिय और कालजयी रचना द वंडर दैट वाज़ इण्डिया : अ सर्वे ऑफ़ कल्चर ऑफ़ इण्डियन सब-कांटिनेंट बिफ़ोर द कमिंग ऑफ़ द मुस्लिम्स (1954) के लिए जाना जाता है। इतिहास-लेखन में वस्तुनिष्ठता के पैरोकार बाशम ने किसी ऐतिहासिक निर्णय पर पहुँचने के पूर्व इतिहासकार के लिए आवश्यक दृष्टि पर प्रकाश डालते हुए अपने एक लेख में सुझाया है कि अपनी अभिधारणा सिद्ध करने के लिए इतिहासकार को बड़े पैमाने पर स्रोतों का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन साथ ही उसे एक ऐसे बैरिस्टर की भूमिका से बचना भी चाहिए जिसका उद्देश्य केवल अपने पक्ष में फैसला करवाना होता है। बाशम हर ऐसी बात पर बल देने के पक्ष में नहीं थे जो इतिहासकार के तर्क को मजबूत बनाती हो या सर्वाधिक सकारात्मक आलोक में इसकी व्याख्या करती हो। न ही वे दूसरे पक्ष के सभी साक्ष्यों को दरकिनार करने की कोशिश करते थे। वस्तुतः, बाशम इस मान्यता में विश्वास रखते थे कि इतिहासकार की दृष्टि बैरिस्टर की नहीं जज की तरह होनी चाहिए, एक ऐसे जज की जो अपना निर्णय सुनाने से पहले सभी पक्षों को नज़र में रखते हुए बिना किसी पक्षपात के एक वस्तुनिष्ठ निष्कर्ष पर पहुँचता है।

जीवन परिचय संपादित करें

 
बाशम, टी वी वेंकटचल शास्त्री एवं अन्य (मैसूर विश्वविद्यालय, १९५६)

बाशम का जन्म 24 मई, 1914 को इंग्लैंड में वेल्स स्टोक स्थित एसेक्स के लॉटन नामक स्थान पर हुआ था। पेशे से पत्रकार उनके पिता एडवर्ड आर्थर अब्राहम बाशम प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय सेना में वालंटियर के तौर पर शिमला के निकट कसौली में रह चुके थे। सम्भवतः अपने द्वारा की कहानियाँ चर्चाएँ सुनकर बाशम की रुचि भारतीय संस्कृति में हुई। ऐंडग्लकन ईसाइयत में गहरी आस्था रखने वाली बाशम की माँ मरिया जेन थाम्पसन भी पत्रकार थीं और लघु कथाएँ लिखती थीं। भाषा और साहित्य से उनका गहरा लगाव था। सम्भवतः इन दोनों ही गुणों ने बाशम के व्यक्तित्व और कृतित्व में विस्तार पाया। इसकी मिसाल बाशम द्वारा किये गये संस्कृत, पालि और तमिल उद्धरणों के उत्तम अनुवाद और विभिन्न भाषाओं और कविताओं के प्रति उनके अनुराग में देखी जा सकती है।

बाशम पहली पुस्तक "हिस्ट्री ऐंड डॉक्टरिंस ऑफ़ द आजीवकाज़ : अ वैनिश्ड इण्डियन रिलीजन", उनके शोध-प्रबंध का ही पुस्तकीकरण था। आजीविकों पर किया गया यह पहला अनुसंधान था और आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इसमें बाशम ने बौद्धों और ब्राह्मणवादी रचनाओं के अन्वेषण द्वारा आजीविकों के बारे में स्रोत जमा किये। उनकी दिक्कत यह थी कि तब तक आजीविक सम्प्रदाय का इतिहास बताने वाला कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं था। आजीविक भौतिकवाद के प्रचारक होने के साथ-साथ बौद्धों और ब्राह्मणवादियों के प्रतिद्वंद्वी भी थे। प्रतिद्वंद्वी सम्प्रदाय को हेय दिखाने के लिए बौद्ध और ब्राह्मण के बीच सावधानी से ऐसे स्रोतों का संचय और विश्लेषण करना पड़ा जिनके आधार पर आजीविकों के इतिहास की रचना सम्भव थी। बाशम के इस अनुसंधान के कारण ही आजीवकों को प्राचीन भारत के इतिहास में उचित स्थान मिल सका।

बाशम की दूसरी पुस्तक "द वंडर दैट वाज़ इण्डिया" ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे भारतविद् के तौर पर स्थापित किया जिसकी प्रतिष्ठा विलियम जोंस और मैक्समूलर जैसी है। इसी पुस्तक के कारण उनकी छवि आज भी भारतीय बौद्धिक मानस में अंकित है। मुख्यतः पश्चिम के पाठक वर्ग के लिए लिखी गयी इस पुस्तक की गणना आर.सी. मजूमदार द्वारा रचित बहुखण्डीय "हिस्ट्री ऐंड कल्चर ऑफ़ इण्डियन पीपुल" के साथ की जाती है। इससे पहले औपनिवेशिक इतिहासकारों का तर्क यह था कि अपने सम्पूर्ण इतिहास में भारत सबसे अधिक समृद्ध और संतुष्ट अंग्रेजों के शासनकाल में ही रहा। बाशम और मजूमदार को श्रेय जाता है कि उन्होंने अपने-अपने तरीके से भारत के प्राचीन इतिहास का वि-औपनिवेशीकरण करते हुए जेम्स मिल, थॉमस मैकाले और विंसेंट स्मिथ द्वारा गढ़ी गयी नकारात्मक रूढ़ छवियों को ध्वस्त किया। दस अध्यायों में बँटी यह रचना मुख्यतः भारत संबंधी पाँच विषय-वस्तुओं को सम्बोधित है : इतिहास और प्राक्-इतिहास, राज्य-सामाजिक व्यवस्था-दैनंदिन जीवन, धर्म, कला और भाषा व साहित्य।

बाशम ने अपने अकादमीय जीवन में सौ से अधिक शोधार्थियों की पीएचडी का निर्देशन किया। ये विद्वान आगे चल कर विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अकादमिक पदों पर आसीन हुए। इनमें शर्मा, रोमिला थापर जैसे प्राचीन भारत के इतिहासकार भी शामिल हैं। मार्क्सवादी इतिहास-लेखन परम्परा के इन दो प्रमुख पैरोकारों का गुरु होने के बावजूद बाशम स्वयं इस परम्परा के समर्थक नहीं थे। भारतीय इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्याओं को वे अपर्याप्त मानते थे, खास तौर से भौतिकवादी दृष्टि को अत्यधिक रेखांकित करने पर उन्हें आपत्ति थी।

बाशम सम्पादन आयी "अ हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया" एक ऐसी रचना थी जिसने गैरेट की रचना "लीगेसी ऑफ़ इण्डिया" का स्थान ले लिया। 1960 में कुषाणों के कालक्रम पर आयोजित सम्मेलन में प्रस्तुत पर्चों का सम्पादन करके बाशम ने उसे "पेपर्स आन द डेट ऑफ़ कनिष्क" नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया। इस सम्पादित कृति में प्राचीन भारतीय राज्य-व्यवस्था, धर्म, साहित्य, कला और चिकित्सा विज्ञान पर भी संक्षिप्त टिप्पणियाँ शामिल हैं। 'अमेरिकन कौंसिल ऑफ़ लर्नेड सोसाइटीज़' के तत्वाधान में 1984-85 के दौरान बाशम ने ‘फ़ार्मेशन ऑफ़ क्लासिकल हिंदुइज़म’ पर विश्वविद्यालयों दिये व्याख्यानों का केनेथ जी. जिस्क के साथ मिलकर सम्पादन किया जो "द ऐंड ऑफ़ हिंदुइज्म" के रूप में प्रकाशित हुई।

बाशम को अंतरराष्टीय स्तर पर कई पुरस्कारों और पदवियों से सम्मानित किया गया। वे रॉयल एशियाटिक सोसाइटी और सोसाइटी ऑफ़ एंटीक्वेरीज के फेलो रहे। 1964-65 के दौरान उन्होंने रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के निदेशक पद पर भी काम किया।

इन्हें भी देखें संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

(१) ए .एल. बाशम (1954), द वंडर दैट वाज़ इण्डिया : अ सर्वे ऑफ़ कल्चर इण्डियन बिफ़ोर कमिंग द मुस्लिम्स, ग्रोव प्रेस, न्यूयॉर्क.

(२) शचींद्र मैती ए.एल. ऐंड ऐंड पर्सपेक्टिव्स ऐंडशयंट हिस्ट्री कल्चर, अभिनव पब्लिकेशन, नयी दिल्ली।