आहार-पाइन भारत के बिहार राज्य के दक्षिणी भागों की एक पारंपरिक कृषि प्रणाली का नाम है जिसमें जल संसाधनों के प्रबंधन के लिए नहरों और प्रतिधारण (retention) तालाबों का उपयोग किया जाता है। यह व्यवस्था मगध साम्राज्य के शासनकाल से ही प्रचलित है। दक्षिण बिहार में इस प्रणाली का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था, लेकिन 20वीं शताब्दी में इस प्रणाली का पतन हो गया। 21वीं शताब्दी में नए सिरे से इसमें रुचि देखी जा रही है।[1]

गंगा के मैदानी इलाके के दक्षिणी भाग पुराने पटना, गया और शाहाबाद जिलों तथा दक्षिणी मुंगेर और दक्षिणी भागलपुर की भूमि में आर्द्रता संभालने की क्षमता कम है। यहाँ भूजल का स्तर बहुत नीचा है और गंगा के किनारे के क्षेत्रों को छोड़ दें तो कुआं खोद पाना बहुत कठिन है। यह क्षेत्र दक्षिण से उत्तर की तरफ तेज ढलान वाला भी है, जिससे यहां पानी टिक नहीं पाता। इस प्रकार इस इलाके की जलवायु खेती के बहुत अनुकूल नहीं है। इस क्षेत्र में सिंचाई की मुख्य व्यवस्था आहर और पाइन की है।

आहर-पाइन प्रणाली के 2 घटक होते हैं : पाइन (चैनेल) तथा आहर (प्रतिधारण तालाब)। इन पइनों के किनारों पर तटबंध उभरे हुए तथा आहर से जुड़े हुए होते हैं। बाढ़ के दौरान इन पइनों से पानी बहता है और अतिरिक्त पानी सूखे के दौरान उपयोग के लिए आहर में जमा हो जाता है। 20वीं सदी में ट्यूबवेलों के आगमन के साथ ही यह व्यवस्था ख़राब हो गई।

आहर-पइन प्रणाली संभवतः जातक युग (बुद्ध की पूर्ववर्त्ती अवतारों की कहानियों के लिखे जाने वाले कालखण्ड) से ही प्रयोग में लाई जा रही है। इसी क्षेत्र में लिखे गए कुणाल जातक में उल्लेख है कि किस तरह सारे लोग मिलकर पइनों का निर्माण करते थे और कई बार यही किसी के खेतों या इलाकों की सीमा रेखा बनती थीं। पर इस संपदा से पानी के उपयोग को लेकर अक्सर विवाद भी उठते रहते थे। एक गांव या किसान के हिस्से के पानी को दूसरी तरफ के खेतों में मोड़ने को लेकर विवाद चलते थे। कई बार तो यह झगड़ा बढ़ते-बढ़ते दो गांवों के बीच खूनी टकराव में बदल जाता था। फिर पंचायत के लिए स्थानीय परिषद का दरवाजा खटखटाना पड़ता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में आहरोदक-सेतु से सिंचाई का जिक्र है। मेगास्थनीज के यात्रा विवरण में बंद मुंह वाले नहरों से सिंचाई का जिक्र है। [2]

आहर और पइन का उपयोग सामुहिक रूप से ही होता था और सभी किसानों को मिलजुलकर खेती करनी होती थी। सो, एक-एक पखवाड़े के अतंराल पर खास खेतों की खास फसल के लिए सामूहिक कोशिश होती थी। दक्षिण बिहार में यही चलन आज भी है।

पुनरुद्धार

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आहर-पइन समुचित रख-रखाव के अभाव में दम तोड़ चुकी थी। इसके कारण स्थानीय लोगों की जल के अन्य स्रोत पर निर्भरता बढ़ गई। साथ ही पानी के असमान वितरण के कारण समाजिक व्यवस्था भी विरूपित होने लगी। छोटे किसानों को पर्याप्त पानी नहीं मिलने के कारण उनकी फसलें बर्बाद होने लगी।

ऐसे में जल प्रबंधन की परंपरागत प्रणाली की ओर लौटना जरूरी लगने लगा। वर्ष 2010 में एक गैर-लाभकारी संस्था धान फाउंडेशन ने सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के सहयोग से गया और औरंगाबाद जिलों के गांवों में आहर-पइन को पुनर्जीवित करने के प्रयास से शुरू किए। संस्था ने स्थानीय लोगों और किसानों को इस प्रणाली के बारे में न सिर्फ जागरूक किया, बल्कि उन्हें इनके पुनरुद्धार में सहयोग करने के लिए भी राजी कर लिया। प्रयोग के तौर पर सबसे पहले दक्षिण बिहार के चार पइनों को पुनरुद्धार के लिए चुना गया।

हालांकि इस काम में कई तरह की चुनौतियां थीं। हर साल नदी के तटीय क्षेत्रों में बनाए गए रेत के अस्थाई बांध और कटाव के कारण पइन का मुंह चौड़ा हो गया था। साथ ही आहर-पइन के तल में गाद जमा हो जाने से पानी का बहाव बाधित हो रहा था। कई स्थानों पर आहर-पइन पर अतिक्रमण भी इनके पुनरुद्धार के मार्ग में बड़ी बाधा थी। धान फाउंडेशन ने सबसे पहले गया जिले के टनकुप्पा ब्लाक से अपना काम शुरू किया। शुरुआत में स्थानीय लोगों ने इस काम में रुचि नहीं दिखाई। लेकिन फाउंडेशन के सदस्यों द्वारा लगातार जागरूक करने पर ग्राम स्तर और पइन स्तर की समितियों का गठन किया जा सका। इसके बाद गांव के लोगों के सहयोग से आहर-पइन का पुनरुद्धार शुरू हुआ।

कई गांवों में चौबीसों घंटे के अथक प्रयास ने गया और औरंगाबाद जिले के आहर-पइनों का सफलतापूर्वक पुनरुद्धार किया। केंद्रीय भूमिजल बोर्ड की भूजल सूचना पुस्तिका के अनुसार गया जिले में वर्ष 2008-09 में कुल सिंचित भूमि 1,26,000 हेक्टेयर थी जो कि वर्ष 2012-13 में बढ़कर 1,79,948 हेक्टेयर हो गई।

इन्हें भी देखें

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