उदासी संप्रदाय सिख-साधुओं का एक सम्प्रदाय है जिसकी कुछ शिक्षाएँ सिख पंथ से लीं गयीं हैं। इसके संस्थापक गुरु नानक के पुत्र श्री चन्द (1494–1643) थे। ये लोग सनातन धर्म को मानते हैं तथा पञ्च-प्रकृति (जल, अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश) की पूजा करते हैं।

नेपाल में स्थित उदासी सम्प्रदाय का एक धर्मस्थल

उदासी सम्प्रदाय के साधु सांसारिक बातों की ओर से विशेष रूप से तटस्थ रहते आए हैं और इनकी भोली भाली एवं सादी अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण इन्हें सिख गुरु अमरदास तथा गुरु गोविन्द सिंह ने जैन धर्म द्वारा प्रभावित और अकर्मण्य तक मान लिया था। परन्तु गुरु हरगोविंद के पुत्र बाबा गुराँदित्ता ने सम्प्रदाय के संगठन एवं विकास में सहयोग दिया और तब से इसका अधिक प्रचार भी हुआ।

शाखाएँ संपादित करें

इसकी चार प्रधान शाखाएँ प्रसद्धि हैं -

ये शाखाएँ एक-दूसरी से स्वतंत्र भी जान पड़ती हैं। विलियम कुक ने इस संप्रदाय को नानकशाही पंथ का नाम देकर उसके मुख्य गुरुद्वारे का देहरा में होना बतलाया है; फिर उन्होंने यह भी कहा है कि पूर्वी भारत के अंतर्गत इसकी ३७० गद्दियों का पाया जाना कहा जाता है। संप्रदाय के लोग अधिकतर मालवा, जालंधर, फीरोजपुर, काशी एवं रोहतक में ही पाए जाते हैं और उनमें से बहुत से भ्रमणशील रूप में ही दीख पड़ते हैं।

परिचय संपादित करें

उदासियों के अखाडों अथवा संप्रदाय की विविध शाखाओं को भी प्राय: 'धुनी' वा 'धुवाँ' का नाम दिया जाता है। इसके अनुयायियों में यह भी प्रसिद्ध है कि इसके काबुल स्थित केंद्र में अब भी एक ऐसी धुनी जल रही है जिसे स्वयं श्रीचंद्र जी ने प्रज्वलित किया था। उदासी लोग या तो 'नागा' हुआ करते हैं जिनके नामों के आगे 'दास' या 'शरण' की उपाधि लगी रहती है या वे 'परमहंस' होते हैं और उनके नामों के साथ 'आनंद' शब्द जुड़ा रहता है, किंतु इस नियम का पालन कदाचित् सर्वत्र नहीं दीख पड़ता। नागा लोगों के पहनावे का वस्त्र बहुत कम रहा करता है, वे अपने शरीर पर भस्म का प्रयोग भी अधिक करे हैं तथा बड़े-बड़े बाल और 'सेली' रखा करते हैं। जहाँ उनकी श्वेत, लाल वा काली लँगोटी की जगह परमहंसों का पहनावा गैरिक वस्त्रों का रहा करता है और वे अधिक सादे और मुख्तिमुंड भी रहते हैं, वहाँ भस्म धारण करना और कभी-कभी रुद्राक्ष की माला पहनना भी इन दोनों वर्गों के साधुओं में पाया जाता है। भस्म वा विभूति के प्रति इस संप्रदाय के अनुयायियों की बड़ी श्रद्धा रहती है और वे इसे प्राय: बड़े यत्न के साथ सुरक्षित भी रखा करते हैं। दीक्षा के समय गुरु इन्हें नहलाकर भस्म लगा दिया करता है और इन्हें अपना चरणोदक देता है जिसका ये पान कर लेते हैं। तत्पश्चात् इन्हें कोई नया नाम दिया जाता है और दीक्षामंत्र द्वारा दीक्षित कर दिया जाता है। उदासियों का प्रिय मंत्र 'चरण साधु का धो-धो पियो। अरम साधु को अपना जीयो है। ये, एक दूसरे से भेंट होने पर, साधारणत: ॐ नमो ब्रह्मणे कहकर अभिवादन करते हैं। ये लोग सिखों के पूज्य 'आदिग्रंथ' को विशेष महत्त्व देते हैं और घंटा घड़ियाल बजाकर उसकी आरती किया करते हैं। इनके यहाँ हिंदुओं के अनेक व्रतों एवं त्योहारों का भी प्रचलन हो गया है, किंतु इनका एक विशिष्ट उत्सव श्रीचंद्र जी की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है।

दार्शनिक विचारधारा संपादित करें

उदासियों की दार्शनिक विचारधारा दशनामियों से बहुत मिलती जुलती है और वह, इसी कारण, ज्ञानप्रधान भी कही जा सकती है। परंतु दशनामी लोग जहाँ अपने को प्राय: 'स्मार्त' मानते हैं वहाँ उदासी अपने को 'श्रौत' कहा करते हैं। इनकी काशी, वृंदावन एवं हरिद्वार जैसे कुछ स्थानों में पृथक् पाठशालाएँ चलती है जहाँ अधिकतर संस्कृत भाषा में रचित धार्मिक ग्रंथों का अध्यापन होता है। इनकी वृंदावनवाली पाठशाला का एक नाम 'वृंदावन श्रौत मुनि आश्रम' प्रसिद्ध है। यद्यपि दशनामी साधुओं की भाँति ये लोग शिव को अधिक महत्त्व नहीं देते, फिर भी ये प्राय: 'त्रिपुंड' धारण करते हैं और वैसे ही कमंडलु भी रखते हैं। इनके यहाँ स्त्री उदासी अथवा उदासिनियों की संख्या अत्यंत कम दीख पड़ती है। इस संप्रदाय के अनुयायियों पर समय पाकर अन्य अनेक संप्रदायों का न्यूनाधिक प्रभाव पड़ चुका है और ये कतिपय सुधारों की ओर भी आकृष्ट होते जान पड़ते हैं।

'उदासी' नाम के साथ कुछ संप्रदाय भी मिलते हैं, जैसे 'उदासी कबीर' आदि, किंतु उनसे इनका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है।

इन्हें भी देखें संपादित करें

सन्दर्भ ग्रन्थ संपादित करें

  • जी.एस. घुरये : इंडियन साधूज़, द पापुलर बुक डिपो, बंबई, १९५३;
  • विलियम कुक : ए ग्लॉसरी ई.भा.भा. ४;
  • परशुराम चतुर्वेदी : उत्तरी भारत में संतपरंपरा (लीडर प्रेस, प्रयाग, सं. २००८);
  • सीताराम चतुर्वेदी : जयसाधुवेला (साधुवेला आश्रम, २५९, भदैनी, बनारस, वि. २००९)