उद्देश्यवाद
इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री ज्ञानकोश के उपयुक्त नहीं है। इसे हटाया जा सकता है। (सितंबर 2014) स्रोत खोजें: "उद्देश्यवाद" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
उद्देश्यवाद (अंग्रेज़ी: Teleology, टेलियोलॉजी) या प्रयोजनवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य या रचना में कोई न कोई अंतिम उद्देश्य, प्रयोजन या अंतिम कारण निहित रहता है। दूसरे अर्थों में यह इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास है कि अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य क्या है? इसे हेतुवाद या साध्यवाद भी कहते हैं।
इसके विपरीत यंत्रवाद का सिद्धांत है। इसके अनुसार संसार की प्रत्येक घटना कार्य-कारण-सिद्धांत से घटती है। हर कार्य के पूर्व एक कारण होता है। वह कारण ही कार्य के होने का उत्तरदायी है। इसमें प्रयोजन के लिए कोई स्थान नहीं है। संसार के जड़ पदार्थ ही नहीं चेतन प्राणी भी, यंत्रवाद के अनुसार, कार्य-कारण-नियम से ही हर व्यवहार करते हैं।
उद्देश्यवाद के सिद्धांतानुसार संसार में सर्वत्र एक सप्रयोजन व्यवस्था है। विश्व की प्रत्येक घटना किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए संपादित होती है। चेतन प्राणी तो हर कार्य किसी उद्देश्य से करता ही है, जड़ पदार्थों का संघटन और विघटन भी सप्रयोजन होता है। यंत्रवादी यदि भूत के माध्यम से वर्तमान और भविष्य की व्याख्या करते हैं, तो उद्देश्यवादी भविष्य के माध्यम से भूत और वर्तमान की व्याख्या करते हैं। यंत्रवाद के अनुसार कोई न कोई कारण हर कार्य को ढकेलकर आगे बढ़ा रहा है। उद्देश्यवाद के अनुसार कोई न कोई प्रयोजन हर कार्य को खींचकर आगे बढ़ा रहा है।
परिचय
संपादित करेंसाध्यवाद दो प्रकार का हो सकता है--बाह्य साध्यवाद और अंतर साध्यवाद। बाह्य साध्यवाद के अनुसार कार्य में स्वयं कोई प्रयोजन न होकर उससे बाहर अन्यत्र प्रयोजन रहता है। घड़ी की रचना में प्रयोजन घड़ी में नहीं, वरन् घड़ीसाज में निहित रहता है। इसी प्रकार संसार का रचयिता संसार की रचना अपने प्रयोजन के लिए करता है। संसार और उसके रचयिता में बाह्य संबंध है। ईश्वरवादी इस सिद्धांत के समर्थक हैं। आंतरिक साध्यवाद के अनुसार संसार की सब क्रियाओं का प्रयोजन संसार में ही निहित है। विश्व जिस चेतन सत्ता की अभिव्यक्ति है वह संसार में ही व्याप्त है। संसार में व्याप्त चेतना संसार के द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध करती है। हीगेल, ब्रेडले, लोत्जे आदि अंतर साध्यवाद के ही समर्थक हैं।
साध्यवाद के समर्थन में अनेक प्रमाण दिए जाते हैं। प्रकृति में सर्वत्र साधन और साध्य का सामंजस्य दिखाई देता है। पृथ्वी के घूमने से दिन, रात और ऋतु परिवर्तन होते हैं। गर्मी, सर्दी और वर्षा के अनुपात से वनस्पति उत्पन्न होती है। वृक्षों के मोटे तने से आँधी से वृक्ष की रक्षा होती है। पत्तियाँ साँस लेने का काम करती हैं। पशुओं के शरीर उनकी आवश्यकता के अनुसार हैं। इस प्रकार संसार में सर्वत्र प्रयोजन दिखाई देता है। विश्व में जो क्रमिक विकास होता दिखाई देता है वह किसी प्रयोजन की सूचना देता है। संसार की यंत्रवादी व्याख्या इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकती कि संसार यंत्र के समान क्यों चल रहा है। इसलिये संसार की रचना का प्रयोजन मानना पड़ता है।
साध्यवाद बहुत प्राचीन सिद्धांत है। संभवत: मनुष्य ने जब से दार्शनिक चिंतन करना शुरू किया, इस्ी सिद्धांत से संसारसृष्टि की व्याख्या करता रहा है। मानवीय व्यवहार सदा प्रयोजन देखकर संसार की रचना को भी वह सप्रयोजन समझता रहा है। अरस्तू के चार कारणों में "अंतिम कारण साध्यवाद को स्वीकार करता है। मध्य काल के अंत में देकार्त आदि ने यंत्रवाद की ओर झुकाव दिखाया किंतु आधुनिक युग में साध्यवादी सिद्धांत का पुन: समर्थन होने लगा। आधुनिक साध्यवाद नवसाध्यवाद के नाम से प्रसिद्ध है। इसके प्रमुख समर्थक हीगेल, ग्रीन, ब्रेडले, बोसांके और रायस आदि है। हीगेल के विचार से संसार एक निरपेक्ष चेतना सत्ता की अभिव्यक्ति है। संसार अपने विकासक्रम के द्वारा निरपेक्ष चेतन सत्ता को अनूभूति प्राप्त कर स्वचेतन बनना चाहता है। इसी प्रयोजन से संसार की सब घटनाएँ घट रही हैं।
भारतीय दर्शन में प्राय: सर्वत्र साध्यवाद का समर्थन मिलता है। सांख्य दर्शन में प्रकृति इस उद्देश्य से सृष्टिरचना करती है कि पुरुष उसमें सुख दु:ख का अनुभव करे और अंत में मुक्ति प्राप्त कर ले। जड़ प्रकृति में अंध प्रयोजन निहित होने के कारण डॉ॰ दासगुप्त ने इसे अंतर्निहित साध्यवाद (इनहेरेटं टिलियोलाजी) कहा है। योग दर्शन में अंध प्रयोजन असंभावित मानकर ईश्वर की सत्ता स्वीकार की गई है। ईश्वर प्रकृति को सृष्टिरचना में नियोजित करता है। इस प्रकार सांख्य साध्यवाद और योग बाह्य साध्यवाद का समर्थन करता है। न्याय जैसे ईश्वरवादी दर्शन बाह्य साध्यवाद के ही समर्थक हैं।
नीतिशास्त्र में साध्यवाद के अनुसार मूल्य या शुभ ही मानवजीवन का मानक (स्टेंडर्ड) स्वीकार किया जाता है। नैतिक आचरण का उद्देश्य उच्च मूल्यों को प्राप्त करना है। सर्त्य, शिवं, सुंदरं हमें उसी प्रकार आकृष्ट करते हैं जैसे कोई सुंदर चित्र अपनी ओर आकृष्ट करता है। कर्तव्य या कानून मनुष्य को ढकेलकर नैतिक आचरण कराते हैं, यह साध्यवाद सिद्धांत के विपरीत है।
ज्ञानमीमांसा के साध्यवादी दृष्टिकोण के अनुसार सत्य की खोज में बुद्धि उद्देश्यों, मूल्यों, रुचियों, प्रवृत्तियों और तात्विक या तार्किक प्रमाणों से संचालित या निर्देशित होती है।
मनोविज्ञान में प्रो॰ मैकडूगल का हार्मिक स्कूल साध्यवाद का ही परिणाम है। इसके अनुसार मनुष्य के कार्यव्यापार किसी न किसी प्रयोजन से होते हैं, यंत्रवत् नहीं।
प्राणिशास्त्र में वाईटलिज्म का सिद्धांत भी साध्यवादी प्रकृति का है।