उपाधि
न्यायशास्त्र के पारिभाषिक शब्द अन्वय और व्यतिरेक के आधार पर साथ रहनेवाली वस्तुओं में एक को हेतु और दूसरे को साध्य माना जाता है। कभी-कभी अन्वय-व्यतिरेक में दोष हो जाने के कारण हम वास्तविक हेतु की जगह दूसरे को हेतु मान लेते हैं। ऐसा हेतु उपाधि कहलाता है। पारिभाषिक शब्दों में जो हेतु साध्य का व्यापक हो और साधन का व्यापक न हो उसे उपाधि कहते हैं। पर्वत में धुआँ है क्योंकि वहाँ आग है, यहाँ आग से धुएँ का अनुमान नहीं हो सकता क्योंकि धुएँ के बिना भी आग संभव है। यदि यहाँ आग से गीली लकड़ी से युक्त आग का तात्पर्य हो तो धुएँ के अनुमान में आग की जगह वास्तविक हेतु 'गीली लकड़ी से युक्त होगी' होगी। गीली लकड़ी से युकत होना साध्यभूत धूम का व्यापक है और साधनभूत वह्नि का व्यापक नहीं है, अत: यही उपाधि है। क्योंकि उपधिभूत हेतु के कारण ही आग और धुएँ का संबंध हो सकत है, आग के कारण नहीं, इसलिए सोपाधिक हेतु साध्य का अनुमान नहीं किया जा सकता। हेतु का सोपाधिक होना व्याप्यत्वासिद्ध दोष कहलाता है।
वेदांतशास्त्र में शुद्ध और अनंत चैतन्य को दूषित और सीमित करनेवाले माया, अविद्या, प्रकृति आदि तत्त्व को उपाधि कहते हैं।