कन्फ़्यूशियस

समाज सुधारक, लेखक तथा राजनेता

कंफ्यूशियसी दर्शन की शुरुआत 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व चीन में हुई। जिस समय भारत में भगवान महावीर और बुद्ध धर्म के संबध में नए विचार रख रहें थे, चीन में भी एक महात्मा का जन्म हुआ, जिसका नाम कन्फ़्यूशियस था। उस समय झोऊ राजवंश का बसंत और शरद काल चल रहा था। समय के साथ झोऊ राजवंश की शक्ति शिथिल पड़ने के कारण चीन में बहुत से राज्य कायम हो गये, जो सदा आपस में लड़ते रहते थे, जिसे झगड़ते राज्यों का काल कहा जाने लगा। अतः चीन की प्रजा बहुत ही कष्ट झेल रही थी। ऐसे समय में चीन वासियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने हेतु महात्मा कन्फ्यूशियस का आविर्भाव हुआ।

कन्फ़्यूशियस
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व्यक्तिगत जानकारी
जन्मखुङ त्सियू
ल. 551 ईसा पूर्व
मृत्युल. 479 ईसा पूर्व
वृत्तिक जानकारी
क्षेत्रचीनी दर्शन
विचार सम्प्रदाय (स्कूल)कन्फ्यूशीवाद
शानदोंग प्रांत में स्थित कन्फ़्यूशियस की समाधि
कन्फ़्यूशियस
चीनी 孔子
शाब्दिक अर्थ "मास्टर खुङ"

जन्म और शुरु के जीवन

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इनका जन्म ईसा मसीह के जन्म से करीब ५५० वर्ष पहले चीन के शानदोंग प्रदेश में हुआ था। बचपन में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई। उनके ज्ञान की आकांक्षा असीम थी। बहुत अधिक कष्ट करके उन्हें ज्ञान अर्जन करना पड़ा था। १७ वर्ष की उम्र में उन्हें एक सरकारी नौकरी मिली। कुछ ही वर्षों के बाद सरकारी नौकरी छोड़कर वे शिक्षण कार्य में लग गये। घर में ही एक विद्यालय खोलकर उन्होंने विद्यार्थियों को शिक्षा देना प्रारंभ किया। वे मौखिक रूप से विद्यार्थियों  को इतिहास, काव्य और नीतिशास्त्र की शिक्षा देते थे। उन्होंने काव्य, इतिहास, संगीत और नीतिशास्त्र पर कई पुस्तकों की रचना की।

बाद का जीवन

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53 वर्ष की उम्र में लू राज्य में एक शहर के वे शासनकर्ता तथा बाद में वे मंत्री पद पर नियुक्त हुए। मंत्री होने के नाते इन्होंने दंड के बदले मनुष्य के चरित्र सुधार पर बल दिया। कन्फ्यूशियस ने अपने शिष्यों को सत्य, प्रेम और न्याय का संदेश दिया। वे सदाचार पर अधिक बल देते थे। वे लोगों को विनयी, परोपकारी, गुणी और चरित्रवान बनने की प्रेरणा देते थे. वे बड़ों एंव पूर्वजों को आदर-सम्मान करने के लिए कहते थे. वे कहते थे कि दूसरों के साथ वैसा वर्ताव न करो जैसा तुम स्वंय अपने साथ नहीं करना चाहते हो।

कन्फ्यूशियस एक सुधारक थे, धर्म प्रचारक नहीं। उन्होने ईश्वर के बारे में कोई उपदेश नहीं दिया, परन्तु फिर भी बाद में लोग उन्हें धार्मिक गुरू मानने लगे। इनकी मृत्यु 480 ई. पू. में हो गई थी। कन्फ्यूशियस के समाज सुधारक उपदेशों के कारण चीनी समाज में एक स्थिरता आयी। कन्फ्यूशियस का दर्शन शास्त्र आज भी चीनी शिक्षा के लिए पथ प्रदर्शक बना हुआ है।

कनफ़ूशस् की रचनाएँ

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कनफ़ूशस् ने कभी भी अपने विचारों को लिखित रूप देना आवश्यक नहीं समझा। उसका मत था कि वह विचारों का वाहक हो सकता है, उनका स्रष्टा नहीं। वह पुरातत्व का उपासक था, कयोंकि उसका विचार था कि उसी के माध्यम से यथार्थ ज्ञान प्राप्त प्राप्त हो सकता है। उसका कहना था कि मनुष्य को उसके समस्त कार्यकलापों के लिए नियम अपने अंदर ही प्राप्त हो सकते हैं। न केवल व्यक्ति के लिए वरन् संपूर्ण समाज के सुधार और सही विकास के नियम और स्वरूप प्राचीन महात्माओं के शब्दों एवं कार्यशैलियों में प्राप्त हो सकते हैं। कनफ़ूशस् ने कोई ऐसा लेख नहीं छोड़ा जिसमें उसके द्वारा प्रतिपादित नैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांतों का निरूपण हो। किन्तु उसके पौत्र त्जे स्जे द्वारा लिखित 'औसत का सिद्धांत' (अंग्रेजी अनुवाद, डाक्ट्रिन ऑव द मीन) और उसके शिष्य त्साँग सिन द्वारा लिखित 'महान् शिक्षा' (अंग्रेजी अनुवाद, द ग्रेट लर्निंग) नामक पुस्तकों में तत्संबंधी समस्त सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। 'बसंत और पतझड़' (अंग्रेजी अनुवाद, स्प्रिंग ऐंड आटम) नामक एक ग्रंथ, जिसे लू का इतिवृत्त भी कहते हैं, कनफ़ूशस् का लिखा हुआ बताया जाता है। यह समूची कृति प्राप्त है और यद्यपि बहुत छोटी है तथापि चीन के संक्षिप्त इतिहासों के लिए आदर्श मानी जाती है।

शिष्य मंडली

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कनफ़ूशस् के शिष्यों की संख्या सब मिलाकर प्राय: ३,००० तक पहुँच गई थी, किंतु उनमें से ७५ के लगभग ही उच्च कोटि के प्रतिभाशाली विद्वान् थे। उसके परम प्रिय शिष्य उसके पास ही रहा करते थे। वे उसके आसपास श्रद्धापूर्वक उठते-बैठते थे और उसके आचरण की सूक्ष्म विशेषताओं पर ध्यान दिया करते थे तथा उसके मुख से निकली वाणी के प्रत्येक शब्द को हृदयंगम कर लेते और उसपर मनन करते थे। वे उससे प्राचीन इतिहास, काव्य तथा देश की सामजिक प्रथाओं का अध्ययन करते थे।

सामाजिक और राजनीतिक विचार

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कनफ़ूशस् का कहना था कि किसी देश में अच्छा शासन और शांति तभी स्थापित हो सकती है जब शासक, मंत्री तथा जनता का प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान पर उचित कर्तव्यों का पालन करता रहे। शासक को सही अर्थो में शासक होना चाहिए, मंत्री को सही अर्थो में मंत्री होना चाहिए। कनफ़ूशस् से एक बार पूछा गया कि यदि उसे किसी प्रदेश के शासनसूत्र के संचालन का भार सौंपा जाए तो वह सबसे पहला कौन सा महत्वपूर्ण कार्य करेगा। इसके लिए उसका उत्तर था– 'नामों में सुधार'। इसका आशय यह था कि जो जिस नाम के पद पर प्रतिष्ठित हो उसे उस पद से संलग्न सभी कर्तव्यों का विधिवत् पालन करना चाहिए जिससे उसका वह नाम सार्थक हो। उसे उदाहरण और आदर्श की शक्ति में पूर्ण विश्वास था। उसका विश्वास था कि आदर्श व्यक्ति अपने सदाचरण से जो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, आम जनता उनके सामने निश्चय ही झुक जाती हे। यदि किसी देश के शासक को इसका भली भाँति ज्ञान करा दिया जाए कि उसे शासन कार्य चलाने में क्या करना चाहिए और किस प्रकार करना चाहिए तो निश्चय ही वह अपना उदाहरण प्रस्तुत करके आम जनता के आचरण में सुधार कर सकता है और अपने राज्य को सुखी, समृद्ध एवं संपन्न बना सकता है। इसी विश्वास के बल पर कनफ़ुशस् ने घोषणा की थी कि यदि कोई शासक १२ महीने के लिए उसे अपना मुख्य परामर्शदाता बना ले तो वह बहुत कुछ करके दिखा सकता है और यदि उसे तीन वर्ष का समय दिया जाए तो वह अपने आदर्शो और आशाओं को मूर्त रूप प्रदान कर सकता है।

कनफ़ूशस् ने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि उसे कोई दैवी शक्ति या ईश्वरीय संदेश प्राप्त होते थे। वह केवल इस बात का चिंतन करता था कि व्यक्ति क्या है और समाज में उसके कर्तव्य क्या हैं। उसने शक्तिप्रदर्शन, असाधारण एवं अमानुषिक शक्तियों, विद्रोह प्रवृत्ति तथा देवी देवताओं का जिक्र कभी नहीं किया। उसका कथन था कि बुद्धिमत्ता की बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण उत्तरदयित्व और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करे और देवी देवताओं का आदर करते हुए भी उनसे अलग रहे। उसका मत था कि जो मनुष्य मानव की सेवा नहीं कर सकता वह देवी देवताओं की सेवा क्या करेगा। उसे अपने और दूसरों के सभी कर्तव्यों का पूर्ण ध्यान था, इसीलिए उसने कहा था कि बुरा आदमी कभी भी शासन करने के योग्य नहीं हो सकता, भले ही वह कितना भी शक्तिसंपन्न हो। नियमों का उल्लंघन करनेवालों को तो शासक दंड देता ही है, परंतु उसे कभी यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके सदाचरण के आदर्श प्रस्तुत करने की शक्ति से बढ़कर अन्य कोई शक्ति नहीं है।

कनफ़ूशीवाद

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कनफ़ूशस्‌ के दार्शनिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों पर आधारित मत को कनफ़ूशीवाद या कुंगफुत्सीवाद नाम दिया जाता है। कनफ़ूशस्‌ के मतानुसार भलाई मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। मनुष्य को यह स्वाभाविक गुण ईश्वर से प्राप्त हुआ है। अत: इस स्वभाव के अनुसार कार्य करना ईश्वर की इच्छा का आदर करना है और उसके अनुसार कार्य न करना ईश्वर की अवज्ञा करना है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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