काव्यादर्श अलंकारशास्त्राचार्य दंडी (६ठी - ७वीं शती ई.) द्वारा रचित संस्कृत काव्यशास्त्र संबंधी प्रसिद्ध ग्रंथ है।

काव्यादर्श के प्रथम परिच्छेद में काव्य के तीन भेद किए गए हैं– (१) गद्य, (२) पद्य तथा (३) मिश्र।। गद्य पुन: 'आख्यायिका' और 'कथा' शीर्षक दो उपभेदों में विभाजित है। परंतु उक्त दोनों के लक्षणों में किसी मौलिक अंतर का निर्देश नहीं किया गया है। कृतिकार ने संस्कृत गद्य साहित्य की भी चार कोटियाँ मानी हैं– 'संस्कृत', 'प्राकृत', 'अपभ्रंश' तथा 'मिश्र'। 'वैदर्भी' और 'गौड़ी' नामक दो शैलियों तथा १० गुणों का परिचय भी इसी परिच्छेद में है। रचयिता ने अनुप्रास के भेद गिनाकर उनमें से प्रत्येक के लक्षण एवं उदाहरण भी दिए हैं। 'श्रुत', 'प्रतिभा' तथा 'अभियोग' को दंडी ने कवि मात्र के तीन नियामक गुण माने हैं।

द्वितीय परिच्छेद में अलंकार की परिभाषा, लक्षण और उद्देश्य देने के उपरांत स्वभावोक्ति, उपमा, रूपक, दीपक, आवृत्ति, आक्षेप, अर्थातरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा, हेतु, सूक्ष्म, लेश, क्रम (यथासंख्य), प्रेयस्, रसवत्, ऊर्जस्वी, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त, अप्ह्रति, श्लेष, विशेषोक्ति, तुल्ययोगिता, विरोध, अप्रस्तुतप्रशंसा, व्याजस्तुति, निदर्शन, सहोक्ति, परिवृत्ति, आशी, संसृष्टि (संकीर्ण) तथा भाविक इत्यादि ३५ अलंकारों के लक्षण, भेद एवं उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं।

तृतीय परिच्छेद में 'यमक' का सांगोपांग विवेचन है। साथ ही, चित्रकाव्य, गोमूत्रिका, अर्धभ्रम, सर्वताभेद्र, स्वरनियम, स्थाननियम, वर्णनियम तथा प्रहेलिका इत्यादि के लक्षण एवं उदाहरण भी दे दिए गए हैं। ग्रंथा के अन्त में काव्यदोषों का परिचय है।

डॉ॰ एस.के. बेलतलकर द्वारा संपादित एवं १९२४ ई. में पूना से प्रकाशित काव्यादर्श के संस्करण में तीन परिच्छेद और कुल ६६० छंद हैं जबकि रंगाचार्य रेड्डी शास्त्री द्वारा संपादित और मद्रास से १९१० ई. में प्रकाशित काव्यादर्श के संस्करण में चार परिच्छेद और ६६३ छंद हैं। वस्तुत: मूल ग्रंथ में जो तीन ही परिच्छेद हैं, किंतु रंगाचार्य रेड्डी ने तृतीय परिच्छेद को दो भागों में विभक्त करके उक्त ग्रंथ को चार परिच्छेदों में प्रस्तुत कर दिया है।

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