कृष्णचंद्र गांधी (11 अक्टूबर 1921 -- 24 नवंबर 2002 ) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक भारतीय शिक्षाशास्त्री थे।[1] उनका नाम भारतीय शिक्षा, संस्कृति और सेवा के क्षेत्र में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे सरस्वती शिशु मंदिर एवं विद्या भारती योजना के सूत्रधार थे। [2] वे ऐसे व्यक्तित्व थे, जिन्होंने अपने समर्पण, त्याग और अनुशासन से लाखों लोगों के जीवन में बदलाव लाने का काम किया। वे बचपन से ही एक अनुशासनप्रिय, सादगीपूर्ण और साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। उनका जीवन बहुत ही सादा था। वे कभी चश्मा नहीं पहनते थे, अंग्रेजी दवाओं का उपयोग नहीं करते थे और न ही कभी किसी निजी अस्पताल में भर्ती हुए।

कृष्ण चंद्र गांधी का जन्म 11 अक्टूबर 1921 को विजयादशमी के दिन उत्तर प्रदेश के मेरठ में श्री मुरारीलाल मित्तल के घर में हुआ था। उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में सादगी और नैतिकता का पालन किया। उनका जीवन दर्शन न केवल भारतीय मूल्यों और संस्कारों से ओतप्रोत था, बल्कि वे उस शिक्षा प्रणाली को विकसित करने के प्रति भी समर्पित थे, जो भारतीय संस्कृति और आदर्शों को प्रतिबिंबित करती हो। वे मानते थे कि समाज का वास्तविक उत्थान भारतीय संस्कृति से जुड़े संस्कारों और शिक्षा से ही संभव है।

1943 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और 1944 में बी.ए. करने के बाद उन्होंने अपना जीवन संघ के प्रचारक के रूप में समर्पित कर दिया। उनका शारीरिक और मानसिक संयम संघ की गतिविधियों के लिए बेहद उपयुक्त था। घोष, तैराकी और घुड़सवारी जैसे शारीरिक कार्यक्रमों में उनकी विशेष रुचि थी। मथुरा में जिला प्रचारक रहते हुए, उन्होंने बाढ़ के समय उफनती यमुना को तैरकर पार किया और युवाओं को इसके लिए प्रेरित किया।

1952 में, गोरखपुर में विभाग प्रचारक के रूप में रहते हुए गांधीजी ने नानाजी देशमुख के साथ मिलकर प्रांत प्रचारक भाऊराव देवरस के मार्गदर्शन में पहला “सरस्वती शिशु मंदिर” स्थापित किया। यह विद्यालय भारतीय शिक्षा व्यवस्था का एक प्रतीक बन गया और देखते ही देखते सरस्वती शिशु मंदिर की शाखाएँ पूरे देश में फैलने लगीं। यह गांधीजी के प्रयासों और नेतृत्व का परिणाम था कि “विद्या भारती” एक विशाल शिक्षा संस्थान के रूप में उभरकर सामने आई, जिसके अंतर्गत आज 12 हजार से अधिक औपचारिक विद्यालय संचालित हैं जिनमें लगभग 31 लाख विद्यार्थी अध्ययनरत है तथा 8 हजार से अधिक अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों के माध्यम से 2 लाख बच्चों को निशुल्क शिक्षा प्रदान की जा रही है।

विद्या भारती योजना को आगे बढ़ाने के लिए गांधीजी को उत्तर प्रदेश के बाद पूर्वोत्तर भारत भेजा गया। पूर्वोत्तर भारत में उनके प्रयासों ने शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांति का सूत्रपात किया। हाफलांग जैसे जनजातीय क्षेत्रों में उन्होंने नौ जनजातियों के बच्चों के लिए छात्रावास और विद्यालय की स्थापना की, जो कि वहां के शैक्षिक विकास का केंद्र बना।

उनका समर्पण और प्रयास पूर्वोत्तर के वनवासी क्षेत्रों में शिक्षा की नींव रखने में महत्वपूर्ण साबित हुआ। असम, त्रिपुरा, नागालैंड, मणिपुर, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में उन्होंने शिक्षा के कई प्रकल्प प्रारंभ किए। असम के तेजपुर में 1997 में उनके मार्गदर्शन में पूर्वोत्तर जनजाति शिक्षा समिति की स्थापना हुई, जिसने शिक्षा को दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँचाने का प्रयास किया। उनके अद्वितीय योगदान के लिए उनकी स्मृति में 2007 से कृष्णचंद्र गांधी पुरस्कार की स्थापना की गई, जिसे जनजाति शिक्षा में विशेष योगदान देने वाले व्यक्तियों को प्रदान किया जाता है। [3] 2020 में "[कृष्णचंद्र गांधी फाउंडेशन]" की स्थापना हुई। यह फाउंडेशन जनजातीय शिक्षा के क्षेत्र में विशेष कार्य करने के लिए समर्पित है। इसके माध्यम से जनजातीय समाज में शिक्षा, संस्कृति और जीवन मूल्यों के संरक्षण के कार्यों को और अधिक प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाया जा रहा है।

1975 के आपातकाल के दौरान जब पूरे भारत में अराजकता का माहौल था, गांधीजी ने विद्या भारती और सरस्वती शिशु मंदिरों को बचाने के लिए अपार संघर्ष किया। उस समय सरकार ने सरस्वती शिशु मंदिरों को जबरन अपने नियंत्रण में ले लिया था। परंतु गांधीजी के नेतृत्व में अभिभावकों और शिक्षा प्रेमियों ने शांतिपूर्ण विरोध किया, जिससे सरकार को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ा। आपातकाल के बाद, गांधीजी ने नष्ट हो चुके विद्यालयों को पुनः स्थापित करने का काम शुरू किया, जिसमें उन्हें अपार सफलता मिली।

सरस्वती शिशु मंदिरों में दी जाने वाली उत्तम शिक्षा और संस्कारों ने समाज में अपनी विशेष पहचान बनाते हुए व्यापक सम्मान और लोकप्रियता प्राप्त की। इसकी सफलता से प्रेरित होकर शिशु मंदिरों का विस्तार अन्य राज्यों में भी होने लगा और कुछ ही वर्षों में कई नए विद्यालयों की स्थापना की गई। विभिन्न क्षेत्रों में विद्यालयों के कुशल प्रबंधन के लिए राज्य स्तरीय समितियों का गठन हुआ। 1977 में एक राष्ट्रीय निकाय “विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान” का गठन किया गया, जिसने भारतीय शिक्षा और संस्कारों के प्रसार में एक नई दिशा दी। विद्या भारती का पंजीकृत कार्यालय लखनऊ में और कार्यकारी मुख्यालय दिल्ली में स्थित है। सभी प्रान्त स्तरीय समितियां इस विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान से संबद्ध हैं।

1978 में गांधीजी के नेतृत्व में दिल्ली में “शिशु संगम” का आयोजन हुआ, जिसमें 16,000 से अधिक विद्यार्थियों ने भाग लिया। यह आयोजन विद्या भारती के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने भी भाग लिया।

मथुरा में अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब उन्हें महसूस हुआ कि उनका समय निकट आ रहा है, तो उन्होंने भोजन, दूध और जल लेना बंद कर दिया। 24 नवंबर 2002 को इस महान पुरुष ने मथुरा में अपनी अंतिम सांस ली और अपनी देह श्रीकृष्ण को समर्पित कर दी।