कैमूर पर्वतमाला

(कैमूर की पहाड़ी से अनुप्रेषित)

कैमूर (पर्वत) भारत की विध्य पर्वतश्रेणी का पूर्वी भाग जो मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के कटंगी के पास (23, 26, उ.अ. से 79, 48 पू. दे.) प्रारंभ होकर सर्वोतरी श्रेणी के रूप में रोहतासगढ क्षेत्र (24 57 उ. अ. से 84 2 पू. दे.) तक चली जाती है।

कैमूर की पहाड़ी

इसकी अधिकतम चौड़ाई लगभग 50 मील है। मध्यप्रदेश के जूलेखी स्थान से उत्तर पूर्व की ओर लगभग 150 मिल तक है। यह पर्वत श्रेणी सोन नदी की घाटी की उत्तरी किनारे पर खड़ी दीवाल के रूप में चली जाती है। इस क्षेत्र में बलुआ पत्थर की प्रधानता है किंतु कहीं-कहीं परिवर्तित चट्टाने भी प्रचुर मात्रा में मिलती है। गोविंदगढ़ के पास लगभग 2,000 ऊँचा भाग उत्तर पश्चिम की ओर चला जाता है। रोहतास गढ़ क्षेत्र के मध्य छोटी किंतु अत्यंत उपजाऊ घाटियाँ स्थित हैं। पहाड़ों की ढालें अत्यंत खड़ी एवं दुर्गम है परंतु बीच बीच में दर्रे हैं। चुनार गढ़, विजय गढ़ तथा रोहतास गढ़ के किलों के कारण इन श्रेणियों का ऐतिहासिक महत्व हैं। विजयगढ़ के पास कंदराओं में प्रागैतिहासिक चित्र एवं प्रस्तरकालिनक हथियार उपलब्ध हुए है। संपूर्ण क्षेत्र भवन निर्माणार्थ बलुआ पत्थर की खदानें है। चूना पत्थर में डालमियानगर, जपला, बनजारी और चुर्क में सीमेंट तथा चूना बनता है। डेहरी-ओन-सोन के दक्षिणी डेहरी रोहतास चुटिया रेलवे के पास बनजारी एवं अमझोर के पास गंधक के खनिज माक्षिक (Pyrites) मिले हैं।

बिहार में रोहतास प्राचीन काल से ही विकसित संस्कृति का क्षेत्र रहा है। यहां बिखरीं पड़ीं धरोहरें इतिहास के कालखंडों के रहस्यों को अपने गर्भ में छिपाए हैं। कैमूर की गुफाओं में हजारों वर्ष पूर्व के शैलचित्र मौजूद है। ये शैलचित्र यहां की प्राचीन शैली के गवाह हैं, पर संरक्षण के अभाव में ये जीवंत दस्तावेज विलुप्त होने के कगार पर है। इतिहासविद् शैलचित्रों के आरंभ को ईसा पूर्व से ही जोड़ते हैं। इसकी खोज ब्रिटिश नागरिक एसी कारलाईल ने की थी। यूरोप में शैलचित्रों का उल्लेख 1868 ई. के आसपास किया गया। बाद में कारलाईल ने 1880-81 के बीच विंध्य पर्वत श्रृंखला के मिर्जापुर व रीवां जिले में शैलचित्रों की पहचान की। 1883 में मि. राकवर्न ने इस तरह के शैलचित्रों का उल्लेख करते हुए मिर्जापुर की गोड़, चेरो, बैंगा, खरवार, भूटिया आदि जनजातियों के चित्रांकन के साथ इसका तुलनात्मक विवरण दिया। इसके बाद देशभर में शैलचित्रों का अध्ययन प्रारंभ हुआ। सन 1922 में मनोरंजन घोष, 1933 में डीएच गोरडोन, 1952 में एसके पाण्डेय, अलंचिन, 1967 में एस बाकनकर व 1977 में शंकर तिवारी, केडी वनजी आदि विद्वानों ने इस कला का विस्तृत अध्ययन किया।

रोहतास जिले के शैलचित्रों का सर्वेक्षण सर्वप्रथम फरवरी 1999 में कर्नल उमेश प्रसाद के नेतृत्व में आए पर्वतारोही दल ने किया। जिसमें पूर्व निदेशक पुरातत्व विभाग बिहार डॉ॰ प्रकाशचंद प्रसाद, कैप्टन सुभाष धले व डॉ॰ कुमार आनंद शामिल थे। रोहतास गढ़ के पास बाण्डा गांव की पूरब पहाड़ी की गुफाओं में चार शैलचित्र मिले है। इनके नाम मिठईयामान, मंगरूआ मान, चनाइनमान, इनरबिगहिया मान हैं। ये सभी शैलचित्र पहाड़ी की ऊंचाई पर गुफाओं में हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन काल से ही मानव सबसे सुरक्षित स्थान पर आवास बनाता रहा है। इन सभी शैलचित्रों के नजदीक ही पानी के स्रोत हैं। शैलचित्रों में विभिन्न प्रकार के चित्ताकर्षक दृश्यों का अंकन है। सभी गहरे लाल रंग के है। कहीं पशु पक्षी तो कहीं मानवों को युद्ध करते दिखाया गया है। एक गुफा में शैलचित्र पर नृत्य करते तो एक में आदमी जानवर पर बैठा है। मिठईया मान में राइमो के मुख के कंकाल, सुअर व बंदर का चित्र बना है। कुछ चित्रों में भाला-बाण आदि शस्त्रों से पशु पक्षियों के शिकार का अंकन है। यह मानव के आखेटक जीवन की झांकी का मनोरम चित्रण है।

इसी तरह के शैलचित्र फुलवरिया घाट, गीता घाट के समीप की गुफा, कादिम कुंड, सिंगाय कुंड, बड़की कापरी, बुढ़ी खोह, जमुनिया मांद में भी पाए गए है। यहां की जनजातियों में आज भी दीवारों पर भालू, बंदर, हाथी, घोड़े, हिरण, बाघ, कुत्ते आदि के चित्र बनाने की परम्परा जीवित है।

सर्वेक्षण दल में रहे शोधकर्ताओं का मानना है कि ये शैलचित्र प्राचीन इतिहास की अनसुलझी गुत्थियों को सुलझाने में सहयोग कर सकते हैं। सरकार व पुरातत्वविदों को मध्यप्रदेश में भीमवेटिका की तरह पर्यटन की दृष्टि से यहां की गुफाओं को संरक्षित व विकसित कर पर्यटकों को इन राक पेंटिंग की गुफाओं तक पहुंचाना होगा। शैल चित्रों पर रेखाएं खींचकर चरवाहे इन्हे नुकसान पहुंचा रहे है।

पुरातत्व विज्ञानियों ने पुरापाषाण, मध्य पाषाण और नव पाषाण काल के अवशेषों के लिए विंध्य कैमूर शृंखला और गंगा के मैदानी इलाकों की मानव सभ्यता के इतिहास के प्रमुख स्थलों के रूप में पहचान की है। कैमूर पर्वतीय क्षेत्र उनमें काफी महत्व रखता है। सासाराम आकाशवाणी में कार्यरत डा श्याम सुंदर तिवारी ने जिले के दक्षिणी भाग में कैमूर पहाड़ी पर 53 नए रॉक शेल्टर की खोज की है जो शैल चित्रों के विशाल खजाने साबित हो सकते हैं। कैमूर के पर्वतीय क्षेत्रों में मिले इन शैल चित्रों में बाघ जैसे पशु को मानव द्वारा पालतू कुत्तों के जरिए घेरते हुए दिखाया गया है। शैल चित्रों में सूअर, बाघ, बैल आदि पालतू जानवरों को दिखाया गया है। सारोदाग में एक गैंडे का चित्र बना है। धर्मशालामान में हाथी और उसके बच्चों के भागने और हिरण के शिकार को दर्शाया गया है। वहीं चनैनमान में एक अज्ञात लिपि भी दिखी है। चनैन मान से मिले शैलचित्र में नाच करते महिला पुरुष और पालतू पशुओं को दर्शाया गया है। इससे पहले रोहतास में सेनुवार, सकास, मलांव और कैमूर के अकोढी आदि गांवों में नवपाषाण काल के अवशेषों की खोज बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के इतिहास और पुरातत्व विभाग ने की थी।

वर्ष 2001 के 25 मई से 27 मई तक भभुआ में आयोजित राक आर्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया के छठे सम्मेलन में स्क्रीन पर दिखाए गए कैमूर पहाड़ी के शैलचित्रों को पुरातत्व वेत्ताओं ने अद्भुत मानते हुए इसके संरक्षण की आवश्यकता जताई थी। डा0 श्यायाम सुन्दर तिवारी मानते हैं कि इन शैलचित्रों से इतिहासकार प्राचीन काल के कई सूत्र ग्रहण कर उस काल के रहन-सहन, कला-संस्कृति के नये अध्याय लिख सकते है। किन्तु दुखद स्थिति यह है कि इनकी संरक्षा पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। पुरातत्व अधिकारी नीरज सिंह कहते है कि केंद्र व प्रदेश सरकार को प्रस्ताव भेजा गया था। किन्तु कोई कार्रवाई नहीं हुई।