कोटा शिवराम कारन्त
कोटा शिवराम कारन्त (अक्टूबर १० , १९०२ - दिसंबर ९, १९९७) ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता। वह कन्नड लेखक, यक्षगान कलाकार और फिल्म के निदेशक आदि थे। इनके द्वारा रचित एक लोक नाट्य–विवेचन यक्षगान बायलाट के लिये उन्हें सन् १९५९ में साहित्य अकादमी पुरस्कार ([साहित्य अकादमी पुरस्कार कन्नड़|कन्नड़]]) से सम्मानित किया गया।[3]
कोटा शिवराम कारन्त | |
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भाषा | कन्नड़ |
१९७७ में ज्ञानपीठ से सम्मानित |
कोटा शिवराम कारन्त | |
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जन्म | १० अक्टूबर १९०२ कोटा , उडुपि |
मौत | ९ दिसम्बर १९९७ मणिपाल , कर्नाटक , भारत |
पेशा | कन्नड लेखक, यक्षगान कलाकार और फिल्म के निदेशक [1][2] |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
काल | 1924–1997 |
आंदोलन | नवोदय |
जीवनसाथी | Leela Alva (वि॰ 1936–86) |
बच्चे | ४; के.उल्लास सहित |
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "Karanth: Myriad-minded "Monarch of the Seashore"". The Indian Express. 10 December 1997. मूल से 8 October 1999 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 November 2018.
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नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है। - ↑ "अकादमी पुरस्कार". साहित्य अकादमी. मूल से 15 सितंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 सितंबर 2016.
व्यक्तिगत जीवन
संपादित करेंकोटा शिवराम कारंत के मन में बचपन से ही प्रकृति के प्रति बहुत आकर्षण था। स्कूल की पढ़ाई ने उन्हें कभी नहीं बांधा। यही कारण था कि 1922 में गांधीजी की पुकार कान में पड़ते ही वह कॉलेज छोड़कर रचनात्मक कार्यक्रम में लग गए। कुछ ही समय के भीतर उन्हें लगा समाज को सुधारने से पहले लोगों की प्रकृति और सारी स्थिति को समझ लेना बहुत आवश्यक है, अत: वहीं से वह एक स्वतंत्र पथ का निर्माण करने में जुट पड़े उन्होंने अपनी पैनी दृष्टि से बहुत पहले ही भांप लिया था कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में क्या कमी और दोष हैं और फिर अवसर आते ही अपने विचार को व्यावहारिक रूप देने के लिए वह स्वयं पाठ्य पुस्तकें लिखने, शब्दकोशों तथा विश्वकोशों को तैयार करने में जी जान से जुट पड़े। शुरुआत उन्होंने कर्नाटक कला से की और फिर वह संपूर्ण विश्वव्यापी कला तक पहुँच गए।
कला विषयक ज्ञान
संपादित करेंअपने कला विषयक ज्ञान के बल पर शिवराम कारंत ने यक्षगान के अंतरंग में प्रवेश करने का साहस किया। कला विषयक क्षेत्र में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। शिवराम कारंत ने अपना ध्यान मानव और उसकी परिस्थिति को देखने पर केंद्रित किया। उनके कई उपन्यास एक के बाद एक प्रकाशित हुए। इससे स्पष्ट होता है कि चारों ओर के वास्तविक जीवन को उन्होंने बहुत सूक्ष्मता के साथ परखा था। सबसे अधिक वह इससे प्रभावित हुए कि बड़ी दु:खद घटनाओं के बीच भी मनुष्य की सहज जीने की इच्छा बनी रहती है।