खाण्डव वन
This article consists almost entirely of a plot summary and should be expanded to provide more balanced coverage that includes real-world context. Please edit the article to focus on discussing the work rather than merely reiterating the plot. (जुलाई 2016) |
- श्वैतकि के यज्ञ में निरंतर बारह वर्षों तक घृतपान करने के उप्ररांत अग्नि देवता को तृप्ति के साथ-साथ अपच हो गया। उन्हें किसी का हविष्य ग्रहण करने की इच्छा नहीं रही। स्वास्थ्य की कामना से अग्निदेव ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा ने कहा की यदि वे खांडव वन को जला देंगे तो वहाँ रहने वाले विभिन्न जंतुओं से तृप्त होने पर उनकी अरुचि भी समाप्त हो जायेगी। अग्नि ने कई बार प्रयत्न किया किंतु इन्द्र ने तक्षक नाग तथा जानवरों की रक्षा के हेतु अग्निदेव को खांडव वन नहीं जलाने दिया। अग्नि पुनः ब्रह्मा के पास पहुंचे। ब्रह्मा से कहा की नर और नारायण रूप में अर्जुन तथा कृष्ण खांडव वन के निकट बैठे हैं, उनसे प्रार्थना करें तो अग्नि अपने मनोरथ में निश्चित सफल होंगे।
- एक बार अर्जुन और कृष्ण अपनी रानियों के साथ जल-विहार के लिए गये। अग्निदेव ने उन दोनों को अकेला पा ब्राह्मण के वेश में जाकर उनसे यथेच्छा भोजन की कामना की। उनकी स्वीकृति प्राप्त कर अग्निदेव ने अपना परिचय दिया तथा भोजन के रूप में खांडव वन की याचना की। अर्जुन के यह कहने पर भी कि उसके पास वेगवहन करने वाला कोई धनुष, अमित बाणों से युक्त तरकश तथा वेगवान रथ नहीं है। अग्निदेव ने वरुण देव का आवाहन करके गांडीव धनुष, अक्षय तरकश, दिव्य घोड़ों से जुता हुआ एक रथ (जिस पर कपिध्वज लगी थी) लेकर अर्जुन को समर्पित किया। अग्नि ने कृष्ण को एक चक्र समर्पित किया।
- गांडीव धनुष अलौकिक था। वह वरुण से अग्नि को और अग्नि से अर्जुन को प्राप्त हुआ था। वह देव, दानव तथा गंधर्वों से अनंत वर्षों तक पूजित रहा था। वह किसी शस्त्र से नष्ट नहीं हो सकता था तथा अन्य लाख धनुषों की समता कर सकता था। उसमें धारण करने वाले के राष्ट्र को बढाने की शक्ति विद्यमान थी। उसके साथ ही अग्निदेव ने एक अक्षय तरकश भी अर्जुन को प्रदान किया था जिसके बाण कभी समाप्त नहीं हो सकते थे। गति को तीव्रता प्रदान करने के लिए जो रथ अर्जुन को मिला, उसमें आलौकिक घोड़े जुते हुए थे तथा उसके शिखर पर एक दिव्य वानर बैठा था। उस ध्वज में अन्य जानवर भी विद्यमान रहते थे जिनके गर्जन से दिल दहल जाता था। पावक ने कृष्ण को एक दिव्य चक्र प्रदान किया, जिसका मध्य भाग वज्र के समान था। वह मानवीय तथा अमानवीय प्राणियों को नष्ट कर पुनः कृष्ण के पास लौट आता था।
- तदनंतर अग्निदेव ने खांडव वन को सब ओर से प्रज्वलित कर दिया। जो भी प्राणी बाहर भागने की चेष्टा करता, अर्जुन तथा कृष्ण उसका पीछा करते। इस प्रकार दहित खांडव वन के प्राणी व्याकुल हो उठे। उनकी सहायता के लिए इन्द्र समस्त देवताओं के साथ घटनास्थल पर पहुचे किंतु उन सबकी भी अर्जुन तथा कृष्ण के सम्मुख एक न चली। अंततोगत्वा वे सब मैदान में भाग खड़े हुए। तभी इन्द्र के प्रति एक आकाशवाणी हुई- 'तुम्हारा मित्र तक्षक नाग कुरुक्षेत्र गया हुआ है, अतः खांडव वन दाह से बच गया है। अर्जुन तथा कृष्ण नर नारायण हैं अतः उनसे कोई देवता जीत नहीं पायेगा।' यह सुनकर इन्द्र भी अपने लोक की ओर बढे। खांडव वन–दाह से अश्वसेन, मायासुर तथा चार शांगर्क नामक पक्षी बच गये थे। इस वन दाह से अग्नि देव तृप्त हो गये तथा उनका रोग भी नष्ट हो गया उसी समय इन्द्र मरुद्गण आदि देवताओं के साथ प्रकट हुए तथा देवताओं के लिए भी जो कार्य कठिन है, उसे करने वाले अर्जुन तथा कृष्ण को उन्होंने वर मांगने के लिए कहा। अर्जुन ने सब प्रकार के दिव्यास्त्रों की कामना प्रकट की। इन्द्र ने कहा कि शिव को प्रसन्न कर लेने पर ही दिव्यास्त्र प्राप्त होंगे। कृष्ण ने इन्द्र से वर प्राप्त किया कि अर्जुन से उनका (कृष्ण का) प्रेम नित्य प्रति बढता जाये।[1]
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ महाभारत आदिपर्व, अध्याय 221 से 227 तक, अध्याय 233, श्लोक 7 से14 तक