खाद्य अपमिश्रण अधिनियम, १९५४

खाद्य पदार्थ के अपमिश्रण द्वारा जनता की स्वास्थ्यहानि को रोकने के लिए प्रत्येक देश में आवश्यक कानून बनाए गए हैं। भारत के प्रत्येक प्रदेश में शुद्ध खाद्य संबंधी आवश्यक कानून थे, किंतु भारत सरकार ने सभी प्रादेशिक कानूनों में एकरूपता लाने की आवश्यकता का अनुभव कर, देश-विदेशों में प्रचलित काननों का समुचित अध्ययन कर, सन्‌ 1954 में खाद्य अपमिश्रण निवारक अधिनियम (प्रिवेंशन ऑव फ़ूड ऐडल्टशन ऐक्ट) समस्त देश में लागू किया और सन्‌ 1955 में इसके अंतर्गत आवश्यक नियम बनाकर जारी किए। इस कानून द्वारा अपद्रव्यीकरण तथा झूठे नाम से खाद्यों का बेचना दंडनीय है। वैधानिक दृष्टि से निम्नलिखित दशाओं में खाद्य अपद्रव्यीकृत माना जाता है:

वह पदार्थ जिसका स्वाभाविक गुण, सारतत्व, या श्रेष्ठतास्तर ग्राहक द्वारा अपेक्षित पदार्थ से अथवा सामान्यत: बोध होने वाले पदार्थ से भिन्न हो और जिसके व्यवहार से ग्राहक के हित की हानि होती हो।

वह पदार्थ जिसमें कोई ऐसा अन्य पदार्थ मिला हो जो पूर्णत: अथवा आंशिक रूप से किसी घटिया या सस्ती वस्तु में बदल दिया गया हो अथवा जिसमें से कोई ऐसा संघटक निकाल लिया गया हो जिससे उसके स्वाभाविक गुण, सारतत्व या श्रेष्ठतास्तर में अंतर हो जाए।

वह पदार्थ जो दूषित या स्वास्थ्य के लिए हानिकर हो, जिसमें गंदा, पूतियुक्त, सड़ा, विघटित या रोगयुक्त प्राणिद्रव्य या वानस्पतिक वस्तु मिलाई गई हो, जिसमें कीट या कीड़े पड़ गए हों, अथवा जो मनुष्य के आहार के अनुपयुक्त हो।

वह पदार्थ जो किसी रोगी पशु से प्राप्त किया गया हो, जो विषैले या स्वास्थ्यहानिकारक संघटकयुक्त हो, या जिसका पात्र किसी दूषित या विषैले वस्तु का बना हो।

वह पदार्थ जिसमें स्वीकृत रंजक द्रव्य (कलरिंग मैटर) के अतिरिक्त कोई ऐसा अन्य रंजक मिला हो जिसमें कोई निषिद्ध रासायनिक परिरक्षी हो, अथवा स्वीकृत रंजक या परिरक्षी द्रव्य की मात्रा निर्धारित सीमा से अधिक हो।

वह पदार्थ जिसकी श्रेष्ठता अथवा शुद्धता निर्धारित मानक से कम हो, अथवा उसके संघटक निर्धारित सीमा से अधिक हों।

इसी प्रकार निम्नलिखित दशा में खाद्यों को अपनामांकित (मिसब्रैंडेड) कहा जाता है:

वह पदार्थ जिसका बिक्री का नाम अन्य पदार्थ के नाम की नकल हो, या, इस प्रकार मिलता जुलता हो कि धोखे की संभावना हो और उसके वास्तविक गुणधर्म प्रकट करने के लिए उसपर कोई स्पष्ट और व्यकत नामपत्र (लेबिल) न हो।

वह पदार्थ जो असत्य रूप से किसी देश-विदेश का बना बताया जाय, जो किसी अन्य वस्तु के नाम से बेचा जाए, जिसके संबंध में नाममत्र पर, या अन्य रीति से झूठे दावे किए जाएँ और जो इस प्रकार रंजित, स्वादित, लेपित, चूर्णित या शोधित हो, जिससे उसके विकृत होने का भाव छिप जाय, अथवा जो अपनी वास्तविक दशा से उत्तम या मूल्यवान्‌ दिखाया जाए।

वह पदार्थ जो बंद बेठनों में बेचा जाए और उसके बाहरी भाग पर उसमें रखे हुए पदार्थ की निर्धारित घट बढ़ सीमा के अनुसार ठीक उल्लेख न हो।

वह पदार्थ जिसके नामपत्र पर कोई ऐसा उल्लेख, चित्र या उक्ति हो जो असत्य, भ्रामक या छलपूर्ण हो, जो किसी कल्पित व्यक्ति द्वारा निर्मित बताया जाए और जिसमें प्रयुक्त कृत्रिम रंजक, वासक (फ्लेवरिंग एजेंट), या परिरक्षी वस्तु का उल्लेख न हो।

वह पदार्थ जो किसी विशिष्ट आहार के उपयुक्त बताया जाए, परंतु उसके नामपत्र पर उसकी उपयोगिता के सूचक, उसके खनिज, विटामिन अथवा आहार विषयक संघटकों की सूचना न हो।

इस अधिनियम द्वारा केवल पूर्वोक्त प्रकार के अपद्रव्यीकरण अथवा अपनामांकन का ही निवारण नहीं किया जाता, परंतु भोजन की शुद्धता और स्वच्छता, भोजन के पात्रों, पाकशाला और भांडार की स्वच्छता और परिशोधन तथा खाद्य का मक्खी, धूल, मलीनता आदि से रक्षण इत्यादि स्वास्थ्योचित नियमों का भी यथोचित पालन आवश्यक कर दिया गया है। संक्रामक, सांसर्गिक अथवा घृणित रोग से ग्रस्त मनुष्यों द्वारा खाद्य पदार्थ का बनाना या बेचना वर्जित है। किसी संक्रामक रोग का प्रसार रोकने के लिए अस्थायी आदेश द्वारा किसी खाद्य का विक्रय स्थगित किया जा सकता है। जंग लगे पात्र, बिना कलई के ताँबे अथवा पीतल के पात्र, सीसा मिश्रित ऐल्युमिनियम के पात्र, अथवा जर्जरित एनामेलवाले तामचीनी के पात्रों का प्रयोग वर्जित है।

कोई भी व्यवसायी निम्नलिखित अपमिश्रकों का व्यापार नहीं कर सकता:

(1) क्रीम (मलाई) जो केवल दूध से न बनी हो और जिसमें दुग्धस्नेह (मिल्क फ़ैट) 40% जो से कम न हो; (2) दूध जिसमें जल मिलाया गया हो; (3) घी जिसमें दूध से निकले घी से भिन्न कोई पदार्थ हो; (4) मथित दूध (मक्खनरहित दूध) शुद्ध के नाम से; (5) दो या अधिक तेलों का मिश्रण खाद्य तेल के नाम से; (6) घी जिसमें वनस्पति घी मिला हो; (7) कृत्रिम मिष्टकर (स्वीटनिंग एजेंट) युक्त पदार्थ; (8) हलदी जिसमें कोई अन्य पदार्थ मिला हो।

अपद्रव्यीकरण के निवारण हेतु जो अन्य महत्वपूर्ण नियम लागू किए गए हैं, इस प्रकार है:-

(1) शहद के समान रूप रंगवाला पदार्थ जो शुद्ध नहीं है, शहद नहीं कहा जा सकता; (2) सैकरीन किसी भी खाद्य में मिलाया जा सकता है, परंतु नामपत्र पर इसका स्पष्ट उल्लेख आवश्यक है; (3) प्राकृतिक मृत्यु से मृत पशु का मांस नहीं बेचा जा सकता और न कोई खाद्य बनाने में प्रयुक्त हो सकता है; (4) अनधिकृत रूप से किसी खाद्य में कोई रंजक नहीं मिलाया जा सकता। रंजक का उपयोग करने पर नामपत्र पर 'कृत्रिम रीति से रंजित' लिखना आवश्यक है; (5) पनीर (चीज), आइसक्रीम (मलाई की बर्फ या कुल्फी), बर्फीली शर्करा (आइसकैंडी) और श्लेषामिष्ठान (जिलेटीन डेजर्ट) में स्वीकृत रंजक का तथा कैरामेल का प्रयोग बिना उल्लेख के किया जा सकता है; (6) अकार्बनिक रंजक तथा वर्णक (पिगमेंट) सर्वथा वर्जित हैं। स्वीकृत रंजक का प्रयोग केवल शुद्ध रूप में तथा एक ग्रेन प्रति पाउंड तक के अनुपात में किया जा सकता है। (7) मलाई की बर्फ (कुल्फी), धूमित (स्मोक्ड) मछली, अंडा निर्मित खाद्य, मिठाई, फलों से बने शर्बत तथा अन्य पदार्थ एवं सुरारहित वातित या फेनिल (एअरेटेड) पेयों में ही रंजक प्रयुक्त हो कसते हैं। दूध, दही, मक्खन, घी, छेना, संघनित (कंडेंस्ड) दूध, क्रीम (मलाई), चाय, काफी और कोको में रंजक का प्रयोग वर्जित है। (8) आहार को स्वादिष्ट, रुचिकर, सुवासपूर्ण, सुपाच्य, पौष्टिक और अधिक काल तक सुरक्षित रखने के लिए वासक (फ्लेवरिंग), रंजक, विरंजक, गंधनाशक, तथा परिरक्षी पदार्थो की नियमानुकूल की गई मिलावट न्यायसंगत है, परंतु केवल वैध पदार्थ ही स्वीकृत खाद्यों में प्रयुक्त किए जाएँ और नामपत्र पर उनका स्पष्ट उल्लेख हो। (9) कोचिनियल या कारमाइन, कैरोटीन या कैरोटिनोइड्स, क्लोरोफ़िल, लेक्टोफ्लेवीन, कैरामेल, अनोटो, रतनजोत, केसर और करक्यूमिन प्रकृतिप्रदत्त रंजक हैं, जो प्राकृतिक या संश्लेषित रीति से प्राप्त कर प्रयोग में लाए जा सकते हैं। (10) तारकोल या अलकतरे से प्राप्त रंजक प्राय: कैंसरजनक होते हैं, परंतु तारकोल से प्राप्त 11 प्रकार के लाल, पीले, नीले और काले रंजक केंद्रीय समिति द्वारा इस समय खाद्य में प्रयुक्त करने के लिए स्वीकृत हैं। (11) बेंजोइक अम्ल तथा बेंजोएट और सलफ़र डाइ ऑक्साइड तथा सल्फ़ाइड खाद्य परिरक्षक के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं। इनका प्रयोग फलों के रस, शर्बत तथा संरक्षित फल, मुरब्बा आदि तक ही सीमित है। (12) नमक, चीनी, सिरका, लैक्टिक अम्ल, साइट्रिक अम्ल, ग्लिसरीन, ऐलकोहल, मसाले तथा मसालों से प्राप्त सगंध तेल आदि स्वादकर पदार्थ परिरक्षक भी हैं, किंतु इनके प्रयोग के लिए कोई विशेष नियम नहीं है। (13) टार्टरिक अम्ल, फॉस्फोरिक अम्ल अथवा किसी खनिज (मिनिरल) अम्ल का प्रयोग खाद्य पेय में वर्जित है।

निम्नलिखित खाद्य पदार्थों के निर्माण, संचय, वितरण, विक्रय आदि के लिए अनुज्ञापत्र प्राप्त करना आवश्यक है और उसके नियमों का पालन अनिवार्य है:

(1) दूध तथा मथित दूध (मक्खनरहित दूध); (2) दूधजन्य पदार्थ (खोआ, क्रीम, रबड़ी, दही आदि); (3) घी; (4) मक्खन; (5) चर्बी; (6) खाद्य तेल; (7) निकम्मा (वेस्ट) घी; (8) मिठाई; (9) वातित या फेनिल पेय (एअरेटेड वाटर); (10) मैदा के बने पदार्थ (बिस्कुट, केक, डबल रोटी आदि); (11) फलोत्पन्न पदार्थ (फ्रूंट प्रॉडक्ट्स) के अतिरिक्त अन्य पदार्थ जो प्रादेशिक सरकार निश्चय करे। फलोत्पन्न पदार्थ का नियंत्रण केंद्रीय सरकार के फ्रूंट प्रॉडक्ट्स आर्डर के अनुसार किया जाता है।

यदि अनुज्ञापत्र द्वारा नियंत्रित कोई व्यापार एक से अधिक स्थान में किया जाता है तो व्यापारी को प्रत्येक स्थान के लिए पृथक्‌ अनुज्ञापत्र प्राप्त करना होगा। अनुज्ञापत्र उसी स्थान के लिए दिया जा सकता है जो अस्वास्थ्यकारी दुर्गुणों से रहित हो। घी के व्यापारी को निकम्मा घी, वनस्पति तथा चरबी के व्यापार की अनुमति नहीं मिलती। होटल और भोजनालय के प्रबंधकों को घी, तेल, वनस्पति, चर्बी आदि में पके पदार्थों की अलग-अलग सूची ग्राहकों की जानकारी के लिए विज्ञापित करना आवश्यक है। घी, मक्खन, वनस्पति, खाद्य तेल तथा चर्बी के निर्माता और थोक व्यापारियों को इन पदार्थों के निर्माण, आयात, निर्यात संबंधी विवरण रखने पड़ते हैं जिनका आवश्यकतानुसार निरीक्षण किया जा सकता है। फेरीवालों को भी अनुज्ञापत्र लेना पड़ता है और एक धातु का बिल्ला धारण करना पड़ता है जिसपर आवश्यक सूचना होती है। किसी पदार्थ का आपत्तियोग्य, संदिग्ध या भ्रामक व्यापारिक नाम स्वीकार नहीं किया जाता।

खाद्यशुद्धता संबंधी एक केंद्रीय समिति तथा एक केंद्रीय प्रयोगशाला की स्थापना की गई है। इनके द्वारा भारतीय खाद्य का रासायनिक विश्लेषण करने की सर्वमान्य रीति तथा शुद्धता के मानक (स्टैंडर्ड) स्थिर किए जाते हैं। इसी प्रकार प्रदेशों में खाद्यविश्लेषक तथा अनेक खाद्यनिरीक्षक नियुक्त हैं। खाद्यनिरीक्षक विक्रेताओं से संदिग्ध खाद्य का नमूना मोल लेकर विश्लेषक से परीक्षा कराता है और यदि नमूना अपद्रव्यित सिद्ध होता है तो स्वास्थ्याधिकारी की अनुमति से अपद्रव्यित खाद्य के विक्रेता को न्यायालय से उचित दंड दिलाता है। खाद्यविश्लेषक के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह रासायनिक विश्लेषण द्वारा अपद्रव्यकारी पदार्थ तथा उसकी मात्रा का पता लगाए। अपराध सिद्ध करने के लिए शुद्धता का अभाव ही प्रमाणित करना पर्याप्त है। खाद्यनिरीक्षक समय-समय पर प्रत्येक अनुज्ञापत्र प्राप्त विक्रेता की खाद्य सामग्री का निरीक्षण करता रहता है और अनुज्ञापत्र में उल्लिखित नियमों का उललंघन होने पर स्वास्थ्यधिकारी द्वारा अनुज्ञापत्र अस्वीकृत कराता है या न्यायालय द्वारा विक्रेता को दंड दिलाता है और आवश्यक समझे तो उसे अपने अधिकार में ले सकता है। इसके औचित्य का निपटारा अंत में न्यायालय द्वारा होता है।

अपद्रव्यीकरण सिद्ध करने के लिए खाद्य की रासायनिक परीक्षा आवश्यक है। खाद्य का नमूना प्राप्त करने से पूर्व स्वास्थ्य निरीक्षक विक्रेता का सूचना देता है और उचित मूल्य चुकाकर आवश्यक मात्रा मोल लेता है। इसके तीन भाग कर, अलग-अलग तीन बोतलों में बंद कर, सब पर मुहर लगा देता है और नामपत्र लगाकर सब ज्ञातव्य तथ्य लिख देता है। एक बोतल विक्रेता को, दूसरी खाद्य विश्लेषक और तीसरी खाद्यनिरीक्षक के लिए होती है। खाद्य विश्लेषक बोतल पाने पर उसकी परीक्षा करता है। परीक्षाफल से अपद्रव्यण सिद्ध होने पर विक्रेता पर स्वास्थ्याधिकारी द्वारा अभियोग लगाया जाता है और न्यायालय द्वारा उचित धनदंड या कारादंड अथवा दोनों दिलाए जाते हैं। यदि खाद्य विश्लेषक की परीक्षा पर अभियोगी या अभियुक्त किसी को संदेह हो और पुन: परीक्षा की आवश्यकता जान पड़े तो उनके पास की सुरक्षित बोतल आवश्यक शुल्क सहित केंद्रीय खाद्यप्रयोगशाला में भेजी जाती है और उसकी परीक्षा का फल सर्वथा आपत्तिरहित माना जाता है। साधारण ग्राहक भी आवश्यक शुल्क देकर किसी विक्रेता से प्राप्त खाद्य की परीक्षा करा सकता है, परंतु उसे अपनी इस इच्छा की पूर्वसूचना विक्रेता को देनी आवश्यक है और खाद्य निरीक्षक द्वारा प्रयुक्त ढंग से ही नमूना मोल लेना होगा। परीक्षाफल से अपद्रव्यीकरण सिद्ध होने पर ग्राहक को शुल्क का धन वापस प्राप्त करने का अधिकार होगा।

स्वास्थ्यरक्षा की दृष्टि से प्रत्येक खाद्य पदार्थ की उपादेयता उससे प्राप्त पोषक सारों की मात्रा पर निर्भर है। पोषक सारों की मात्रा बढ़ाने के हेतु या भोजन पकाने से उनकी मात्रा कम न होने देने के लिए खाद्य की गुणवृद्धि अथवा समृद्धि की जाती है। यह कार्य वैज्ञानिक रीति से जनता में व्याप्त कुपोषण दूर करने के सदुद्देश्य से करना प्रशंसनीय है। विदेशों में मैदा, डबलरोटी, बिस्कुट, मार्गरीन, काफी, कोको, चाकलेट, चाय, लवण आदि अनेक खाद्य और पेय पदार्थों में विटामिन और खनिज द्रव्य द्वारा नियमानुसार गुणवृद्धि करने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। भारत में भी आटे में कैलसियम कार्बोनेट (चाक, खडिया), मैदा और चावल में बी-विटामिन और कैलसियम कार्बोनेट, समंजित (टोन्ड) और पुनस्संयोजित दूध तथा बनस्पति में ए-विटामिन और गलगंड (गॉयटर) के स्थानिक रोगवाले क्षेत्रों में लवण में आयोडीन की मिलावट द्वारा गुणवृद्धि अथवा समृद्धि करने का प्रस्ताव है और कुछ अंशों में यह किया भी जा रहा है। रक्षा मंत्रालय के आदेशानुसार सन्‌ 1946 से भारतीय सेना में कैलसियम कार्बोनेट द्वारा प्रबलित आटे का व्यवहार हो रहा है। बंबई सरकार ने भी यही किया और 640 पाउंड आटे में एक पाउंड कैलसियम कार्बोनेट मिलाना जारी किया, किंतु कुछ अड़चनों के कारण इस प्रयोग को सन्‌ 1949 में बंद कर दिया गया। वनस्पति घी में 700 अंतरराष्ट्रीय मात्रक (आई.यू.) विटामिन-ए प्रति आउंस मिलाने का चलन हो गया है। लवण में सोडियम आयोडेट मिलाकर गलगंडीय क्षेत्रों में भेजा जाता है। ग्राहक की जानकारी के लिए नामपत्र पर गुणवृद्धिकारी पदार्थ का नाम और मात्रा की आवश्यक सूचना होती है, जिससे किसी प्रकार के भ्रम की संभावना नहीं रहती। अब संश्लिष्ट विटामिन बनने लगे हैं और भारत में भी जब विटामिन का उत्पादन होने लगेगा तो पोषक द्रव्यों द्वारा खाद्य की गुणवृद्धि कर जनता में व्याप्त कुपोषण दूर करना सुगम हो जाएगा।

प्रत्येक खाद्य के अपद्रव्यीकरण के संबंध में प्रचलित कुरीतियाँ, उसके निरीक्षण और परीक्षण की विधियाँ तथा उसकी शुद्धता के मानक (स्टैंडर्ड) का विवरण देना संभव नहीं है, किंतु संकेत रूप में नित्यप्रति के व्यवहार में आनेवाले खाद्य के अपमिश्रण के विषय में कुछ ज्ञातव्य तथ्यों का उल्लेख संक्षेप में किया जाता है:

1. खाद्यान्न-खाद्यान्न में धूल, ककंड़, तृण, भूसा आदि के अतिरिक्त अन्य सस्ते अन्न मिलावट के रूप में प्राय: नित्य ही देखने में आते हैं। जो, ज्वार, मक्का, चना, मटर, तथा अन्य निम्न श्रेणी के अन्नों के दाने कुछ खेत में, या कृषक के भंडार में अनायास मिल जाते हैं, पर बहुधा इन्हें भ्रष्टाचारी व्यापारी जान बूझकर मिलाते हैं। कुछ प्रदेशों में इस प्रकार की मिलावट को रोकने के लिए मानक निर्धारित हैं, किंतु भारत सरकार ने समस्त देश के लिए अभी लागू नहीं किए हैं। साधारणत: अन्न में धूल, कंकड, तृण आदि 4%, बाहरी अन्न के दाने 10%, (चावल में केवल 3%), टूटे दाने 10%, फफूंदीयुक्त दाने 1.5%, तथा कोटयुक्त दाने 6%, से अधिक नहीं होने चाहिए। सब मिलाकर अच्छे दाने 80%, से कम न हों और जल की मात्रा गेहूं में 12%, तथा अन्य में 15%, से अधिक किसी भी ऋतु में नहीं होनी चाहिए। खाद्यान्न में की गई मिलावट का पता ग्राहक को सहज ही चल जाता है और मिलावट के अनुसार दाम भी घट जाता है। इस कारण सावधान ग्राहक को धोखे की आशंका नहीं रहती, किंतु यह बात पिसे हुए अन्न (आटा, मैदा, सूजी, बेसन, दलिया आदि) के संबंध में नहीं कही जा सकती।

गेहूँ में ग्ल्यूटीन नामक चिपचिपा प्रोटीन होता है, जो अन्य अन्नों में नहीं होता। यदि आटे में गेहूँ के अतिरिक्त किसी अन्य सस्ते अन्न का मेल है तो ग्ल्यूटीन का अनुपात काम हो जाता है। प्राय: 8% से कम ग्ल्यूटीन वाला आटा अपमिश्रित समझा जाता है। अन्नों के स्टार्च के कणों की आकृति सूक्ष्मदर्शी यंत्र (माइक्रॉस्कोप) द्वारा देखने से मिलावटी अन्न का पता चल सकता है।

खेसारी की दाल (लेथिरस सेटाइवा) के उपयोग से लैथिरिज्म नामक रोग (एक प्राकर की पंगुता) होने की आशंका रहती है। इसी कारण इस दाल का सेवन नहीं करना चाहिए। अकालपीड़ित जनता जब इस दाल को खाती है तो कुछ मनुष्यों को लैथिरिज्म रोग हो जाता है और पैरों की निर्बलता के कारण खड़ा होना या चलना कठिन हो जाता है। रोग बढ़ने पर रागी पंगु हो जाता है। अत: खाद्यान्न में खेसारी की दाल की मिलावट नहीं होनी चाहिए।

2. दूध दही-स्वस्थ गाय, भैंस, भेड़ और बकरी के दूध को नवदुग्ध (फेनुस, कोलास्ट्रम) रहित होना चाहिए। दूध में जल मिलाने से उसका विशिष्ट गुरुत्व कम हो जाता है और मक्खन या क्रीम (मलाई) निकाल लेने से बढ़ जाता है। कुछ मक्खन निकालकर और निश्चित मात्रा में जल मिलाने से दूध का विशिष्ट गुरुत्व शुद्ध दूध के अनुकूल किया जा सकता है। ऐसी अवस्थ में दुग्धमापी (लैक्टोमीटर) से केवल विशिष्ट गुरुत्व के आधार पर दूध के अपद्रव्यीकरण का पता नहीं चल सकता। विभिन्न पशुओं से प्राप्त दूध के सारभूत पोषक द्रव्यों की मात्रा एक सी नहीं होती। इस कारण उनके दूध की शुद्धता के मानक (स्टैंडर्ड) भी भिन्न होते हैं। दुग्धवसा (मिल्क फ़ैट) तथा स्नेहातिरिक्त-ठोस-द्रव्य की मात्राओं के आधार पर दूध के अपमिश्रण का पता चल जाता है। गाय के दूध में दुग्धवसा की मात्रा उड़ीसा में 3%, पंजाब में 4% और भारत के अन्य प्रदेशों में 3.5% से कम न होनी चाहिए और स्नेहातिरिक्त-ठोस-द्रव्य की अधिकतम मात्रा 8.5% होनी चाहिए। भैंस के दूध में दुग्धवसा की मात्रा दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रेदश, बिहार, बंगाल, आसाम तथा बंबई में 6% तथा शेष भारत में 5% है और स्नेहातिरिक्त-ठोस-द्रव्य की अधिकतम सीमा 9% है। भेड़ बकरी के दूध में दुग्धवसा की निम्नतम सीमा मध्य प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बंबई तथा केरल राज्य में 3.5% तथा शेष भारत में 3% है और वसातिरिक्त-ठोस-द्रव्य की अधिकतम सीमा 9% है। पशु की जाति अज्ञात होने की अवस्था में दूध भैंस का माना जाता है। दही में भी दुग्धेतर कोई बाहरी पदार्थ नहीं होना चाहिए। इसका मानक दूध के समान ही है।

जल मिलाकर दूध बेचना वर्जित है। दूध में कोई रंजक या परिरक्षक पदार्थ नहीं मिलाया जा सकता। दूध का खट्टा होना कुछ काल के लिए रोकने, या खट्टापन दबाने के लिए सोडा मिलाना अनुचित है। अधिक उबालने से दूध में बहुत भौतिक और रासायनिक परिवर्तन हो जाते हैं। उसका खाद्यमान (फ़ूड वैल्यू) भी कम हो जाता है। लैक्टोज नामक दुग्धशर्करा कैरामेल में परिणत हो जाती है, जिससे उसके स्वाद और रंग में अंतर हो जाता है। इस कारण दूध या किसी शर्करायुक्त पक्वान्न में कैरामेल का पाया जाना अपद्रव्यीकरण नहीं कहा जा। दूध में अनेक प्रकार के कीटाणु पाए जाते हैं, जिनमें कुछ भयंकर रोगकारक होते हैं और इसी कारण अशुद्ध और अस्वच्छ रीति से दूध का प्रयोग अनेक रोगों का कारण है। दूध का उबालना या पास्च्युरीकरण रोगकारी कीटाणुओं का नाशक है। यद्यपि उबालने अथवा पास्च्युरीकरण से दूध में बहुत परिवर्तन हो जाता है, तथापि स्वास्थ्यरक्षार्थ यह अत्यंत आवश्यक कार्य है और इसलिए यह दूध का अपद्रव्यीकरण नहीं समझा जाता।

3. मक्खन तथा घी-मक्खन या घी केवल गाय या भैंस के दूध से ही प्राप्त पदार्थ हैं। दुग्धेतर कोई पदार्थ मक्खन या घी में नहीं होना चाहिए। मक्खन में कम से कम 80% दुग्धवसा होना आवश्यक है और जल की मात्रा 16% से अधिक नहीं होनी चाहिए। उसमें नमक तथा अनोटो नामक पीला रंजक पदार्थ मिलाया जा सकता है। घी में जल की मात्रा 0.5% उसे अधिक नहीं होनी चाहिए और रंजक या परिरक्षक पदार्थ का मेल वर्जित है।

4. क्रीम (मलाई)---जो केवल दूध से ही न बनाई गई हो और जिसमें 40% से कम दुग्धवसा हो उस क्रीम का बेचना वर्जित है। इसमें कोई दुग्धेतर वस्तु नहीं मिलाई जा सकती, किंतु मलाई की बर्फ या कुल्फी (आइसक्रीम) में क्रीम के साथ दूध, चीनी, शहद, अंडा, मेवा, फल, चाकलेट तथा स्वीकृत रंजक या वासक पदार्थ नियमानुकूल मिलाए जा सकते हैं। क्रीम में ठोस द्रव्य की मात्रा 36% और दुग्धवसा की 10% से कम नहीं होनी चाहिए। आइसक्रीम में किसी फल या मेवे का उपयोग करने की अवस्था में दुग्धवसा 10% के स्थान में 8% से कम न हो। क्रीम में स्टार्च, कृत्रिम मिष्टकर अथवा इस प्रकार का कोई अन्य निर्दोष भरण का उपयोग किया जा सकता है। परंतु दुग्धवसा की मात्रा क्रीम के समान ही होनी चाहिए।

5. खोआ-इसमें कोई दुग्धेतर पदार्थ नहीं होना चाहिए और दुग्धवसा की मात्रा 20ऽ से कम न रहनी चाहिए।

6. वनस्पति घी-यह रूप रंग और स्वाद में घी से मिलता-जुलता स्नेह है, परंतु घी नहीं है। यह केवल शोधित और जमाया हुआ तेल है। वनस्पति घी का निर्माण उत्प्रेरक (कैटेलिस्ट) निकल की सहायता से शोधित, उदासीनीकृत (न्यूट्रेलाइज्ड) और प्रक्षालित वानस्पतिक तेल के हाइड्रोनीकरण द्वारा किया जाता है। उसे निर्गंध कर कोई वासक (फ्लेवरिंग) पदार्थ मिलाया जाता है। वनस्पति घी में वसाविलय (फ़ैटसोल्यूबल) और ए तथा डी विटामिन मिलाए जा सकते हैं। इसमें कम से कम 5% तिल का तेल मिलाना अनिवार्य है। खाद्यमूल्य की दृष्टि से वनस्पति घी के गुण-दोष का विवेचन असंगत है, परंतु वनस्पति घी का सबसे अधिक दुरुपयोग घी के अपद्रव्यीकरण में होता है। वनस्पति घी में कोई उपयुक्त रंजक मिलाकर घी के अपद्रव्यीकरण को रोकना अभी तक संभव नहीं हुआ है। वनस्पति में तिल के तेल का मिश्रण इस हेतु करना अनिवार्य है कि बोदोइन द्वारा सुझाई गई फ़रफ़रोल परीक्षा द्वारा घी में वनस्पति का अपमिश्रण सुगमता से जाना जा सके। सांद्रित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और शर्करा के संयोग से प्राप्त फ़रफ़रोल तिल के तेल में गुलाबी रंग उत्पन्न कर देता है। शुद्ध घी में वनस्पति घी मिश्रित कर बेचना वर्जित है और एक ही व्यापारी घी तथा वनस्पति घी दोनों का व्यापार नहीं कर सकता।

7. मार्गरीन-यह पदार्थ भी घी या मक्खन से मिलता-जुलता है, जिसमें 10% से अधिक दुग्धवसा नहीं होती। इसमें वानस्पतिक अथवा जांतववसा 80% से कम और जल की मात्रा 16% से अधिक नहीं होनी चाहिए। वनस्पति घी के समान मार्गरीन में भी 5% तिल का तेल मिलाना अनिवार्य है।

8. खाद्य तेल-खाद्य तेल के निर्माता तथा विक्रेता को अनुज्ञापत्र लेना आवश्यक है। कोई दो या दो से अधिक तेल मिलाकर नहीं बेचे जा सकते। सरसों के तेल का एक विशेष रूप से अपद्रव्यीकरण होता है। भटकटैया नामक एक जंगली कँटीली झाड़ी के बीज काली सरसों के दाने से मिलते-जुलते हैं। इस झाड़ी का वैज्ञानिक नाम आर्गीमनी मेक्सिकाना है और उत्तर भारत में इसे भटकटैया, सियाल, काँटा, मखार, भरभंड, भरभरवा, घमोया, पीली कटाई, बंग, सत्यानासी, कुटीला आदि कहते हैं। सरसों के साथ इसके बीज की मिलावट कर तेल पेर लिया जाता है। इस प्रकार अपमिश्रित सरसों का तेल बेचने से व्यापारी को आर्थिक लाभ होता है। यह तस्कर व्यापार बहुत बढ़ गया है। इस अपमिश्रित तेल के सेवन से बेरीबेरी से मिलती-जुलती, परंतु सर्वथा भिन्न, महामारी जलशोथ (ड्रॉप्सी) नामक रोग हो जाता है। आर्गीमनी मेक्सिकाना में पाया जानेवाला सेंग्यूनेरीन नामक विषैला ऐलकैलॉयड संभवत: इस रोग का कारण है। यह रोग कभी-कभी बहुत व्यापक हो जाता है और उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल में इसके प्रकोप यदाकदा होते रहे हैं। पूरी छानबीन कर आर्गीमनी मेक्सिकाना को अब विष घोषित कर दिया गया है और अफीम, संखिया, कुचला आदि की तरह कोई इसे अनधिकृत रूप से अपने पास नहीं रख सकता। इस उपाय से यह विषैला अपमिश्रण बहुत कुछ नियंत्रित हो गया प्रतीत होता है।

9. वातित या फेनिल पेय (एअरेटेड वाटर)-अशुद्ध जल अथवा अशुद्ध बर्फ के योग से बना पेय शुद्ध नहीं माना जाता। शर्करा, साइट्रिक अम्ल तथा स्वीकृति रंजक का नियमित मात्रा में प्रयोग वैध है। टार्टरिक अम्ल, फास्फोरिक अम्ल तथा खनिज अम्ल का प्रयोग और सीसा आदि विषैली धातुओं के लवणों का मिश्रण निषिद्ध है1

भारत से मसालों का निर्यात व्यापार बहुत होता है। अपमिश्रित मसालों के निर्यात से इस विदेशी व्यापार को बहुत हानि पहुँचने की आशंका है। इस कारण मसालों की शुद्धता के मानक स्थिर कर दिए गए हैं। काफी, चाय, चीनी, शहद, आदि के मानक भी स्थिर हो गए है। शेष पदार्थों के मानक देश के प्रत्येक भाग के नमूनों की परीक्षा कर समय-समय पर स्थिर किए जा रहे हैं। केंद्री खाद्य मानक समिति यह कार्य बराबर कर रही है। कुछ प्रदेशों ने अखिल भारतीय मानक के अभाव में अपने मानक लागू कर रखे हैं।

सन्दर्भ ग्रंथ

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  • प्रिवेंशन ऑव फ़ूड ऐडल्टरेशन एक्ट, 1954;
  • प्रिवेंशन ऑव फ़ूड ऐडल्टरेशन रूल्स, 1955;
  • मॉडेल पब्लिक हेल्थ एक्ट, (रिपोर्ट, 1955);
  • एनवाइरन्मेंटल हाइजीन कमेटी रिपोर्ट, 1949; (ये सभी स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रकाशन हैं)।