सिद्धान्त ज्योतिष

(गणित ज्योतिष से अनुप्रेषित)

'ज्योतिष' (Astrology) शब्द का अर्थ है - ज्योति, अर्थात्‌ प्रकाशपुंज, संबंधी विवेचन। अति प्राचीन काल से ही इससे उस विद्या का बोध होता रहा है, जिसका संबंध खगोलीय पिंडों, अर्थात्‌ ग्रहनक्षत्रों, के विवेचन से है। इसमें खगोलीय पिंडों की स्थिति, उनके गतिशास्त्र तथा उनकी भौतिक रचना पर विचार किया जाता है।

अतिप्राचीन काल में मानव का ध्यान इन आकाशीय पिंडों की ओर गया और उसने शीघ्र ही यह समझ लिया कि ग्रहनक्षत्रों की स्थिति से वह दिक्‌, देश तथा काल का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। सबसे पहले उसका ध्यान सूर्य तथा चंद्रमा की ओर गया और उनके साथ ही उन नक्षत्रों की ओर जिन्हें वह स्थिर जानता था और जिनकी पृष्ठभूमि पर वह सूर्य और चंद्रमा की गतियों को नाप सकता था। विशेषतया उसने उन क्षेत्रपुंजों का अध्ययन किया जो सूर्य तथा चंद्रमा दृश्य कक्षाओं (aapparentorbits) के आसपास थे। सूर्य की दृश्य कक्षा के 27 भाग करके उनका नाम अश्विनी, भरणी आदि रखा और उसी के तीस तीस अंशों के 12 भाग करके उनका राशिनाम मेष, वृष आदि रख दिया। राशिचक्र का अध्ययन करते समय उसने कुछ ऐसे पिंड जो देखने में तो तारा सरीखे लगते थे, किंतु वे तारों के सापेक्ष पूर्व की तरफ चलते दिखाई पड़ते थे। इनका नाम उसने ग्रह रखा। पृथ्वी को स्थिर माना तथा सूर्य, चंद्र सहित पाँच चक्षु दृश्य ग्रहों, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि का ज्ञान प्राप्त किया। इसी से सप्ताह के सात वारों का नाम पड़ा और उस पंचागपद्धति (calendar) का जन्म हुआ जो अभी तक चली आ रही है। इतना ज्ञान विश्व के कुछ देशों, विशेषतया भारत तथा ग्रीस के निवासियों को ईसा की पहली अथवा दूसरी शताब्दी तक हो चुका था। वेध के सूक्ष्म यंत्रों के अभाव तथा धार्मिक रूढ़ियों के कारण इसमें प्रगति नहीं हो सकी। आधुनिक ज्योतिष का जन्म कोपर्निकस की सूर्यकेंद्रिक प्रणाली के सिद्धांत, गैलिलीयों के दूरदर्शी, केपलर के अनुभूत (emperical) गतिनियमों तथा न्यूटन के व्यापक गुरुत्वाकर्षण सिद्धांतों से हुआ।

सिद्धांत की दृष्टि से हम ज्योतिष को तीन भागों में बाँट सकते हैं :

  • स्थितिद्योतक ज्योतिष (Positional Astrology),
  • गतिशास्त्रीय ज्योतिष (Dynamical Astrology) तथा
  • भौतिक ज्योतिष (Physical Astrology).

स्थितिद्योतक ज्योतिष

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इसके द्वारा किसी भी खगोलीय पिंड की भूमिस्थित द्रष्टा के सापेक्ष स्थिति को ज्ञात किया जाता है। इसके लिये हम एक भूकेंद्रिक स्थिर खगोल की कल्पना करते हैं। पृथ्वी के अक्ष को यदि अपनी दिशा में बढ़ा दिया जाय तो वह जहाँ पर खगोल में लगेगा उसे खगोलीय ध्रुव कहेंगे। खगोल के उस वृत्त को, जो खगोलीय ध्रुव तथा शिरोबिंदु से होकर जायगा, याम्योत्तर वृत्त कहेंगे। यदि शिरोबिंदु से याम्योत्तर वृत्त के 90o के चाप दोनों ओर काट लें तो उन बिंदुओं से जानेवाले खगोल के वृत्त को खगोलीय क्षितिजवृत्त तथा याम्योत्तर वृत्त के उस संपात बिंदु को, जो खगोलीय ध्रुव की ओर है, उत्तरबिंदु तथा दूसरी ओर के संपातबिंदु को दक्षिणबिंदु कहेंगे। यदि खगोलीय ध्रुव से याम्योत्तर के दोनों ओर 90o को चाप काटकर उनसे किसी खगोलीय वृत्त को खींचें, तो उसे खगोलीय विषुवद्वृत्त कहते हैं। सूर्य की दृश्य कक्षा अथवा पृथ्वी की वास्तविक कक्षा को क्रांतिवृत्त कहते हैं। क्रांतिवृत्त तथा खगोलीय विषुवद् वृत्त से 23o 28' का कोण बनाता है। क्रांतिवृत्त तथा खगोलीय विषुवद्वृत्त के संपात को विषुवबिंदु कहते हैं। जिस विषुवबिंदु पर सूर्य लगभग 21 मार्च को दिखाई पड़ता है। उसे वसंतविषुव कहते हैं। किसी भी खगोलीय पिंड की स्थिति उसके निर्देशांकों से ज्ञात होती है। निर्देशांकों के लिये एक मूल बिंदु, खगोल का वह बृहदवृत्त जिसपर वह बिंदु है, बृहद्वृत्त का ध्रुव, तथा निर्देशांक की धन, ऋण दिशाओं का ज्ञान आवश्यक है। मान लें, हमें किसी तारे के नियामक ज्ञात करने हैं। यदि याम्योत्तरवृत्त तथा खगोलीय विषुवद्वृत्त के ऊपर अभीष्ट तारागामी एक समकोणवृत्त (ध्रुवप्रोत वृत्त) खींचे, तो इस वृत्त पर याम्योत्तर तथा विषुवद्वृत्त के सपात से पश्चिम की ओर धन दिशा मानने पर जितना चाप का अंश होगा वह उसका होरा कोण (Hour angle) तथा समकोण वृत्त के मूल से अभीष्ट तारा तक समकोणीय वृत्त (ध्रुवप्रोत वृत्त) के चाप को क्रांति कहेंगे। क्रांति यदि खगोलीय ध्रुव की ओर है तो, धन अन्यथा ऋण, होगी। यदि बसंतविषुव को मूलबिंदु मानें और खगोलीय ध्रुव से विषुवद्वृत्त पर समकोण वृत्त खींचें तो विषुवबिंदु से समकोणवृत्त के मूल तक, घड़ी की सूई की उल्टी दिशा में, जितने चाप के अंश होंगे उन्हें विषुवांश कहेंगे। विषुवांश तथा क्रांति के द्वारा भी खगोलीय पिंड की स्थिति का ज्ञान होता है। यह निर्देशांक पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है। यदि शिरोबिंदु से इष्ट खगोलीय पिंड पर समकोण वृत्त खींचे तो उत्तरबिंदु से घड़ी की सूई की दिशा में खगोलीय क्षितिज वृत्त तथा समकोणवृत्त के संपात की दूरी (चापीय अंशों में) दिगंश (azimuth) तथा समकोण वृत्त के चाप की क्षितिजवृत्त से खगोलीय पिंड तक दूरी उन्नतांश होगी। यदि तारा के ऊपर क्रांतिवृत्त के ध्रुव (कदम्ब बिंदु) से एक समकोणवृत्त खींचे तो वह जहाँ क्रांतिवृत से लगेगा यहाँ तक वसंतसंपात से लेकर घड़ी की सूई की विरुद्ध दिशा में क्रांतिवृत्त के चाप के अंशों का भोगांश तथा कटानबिंदु से तारा तक समकोणवृत्त के चाप के अंशों को विक्षेप कहेंगे। इसी धन दिशा क्रांति की तरह होगी। यदि विषुवसंपात के स्थान पर आकाशगंगा के विषुवद् तथा खगोलीय विषुवद का संपातबिंदु लें तथा क्रांतिवृत्त के ध्रुव के स्थान पर आकाशगंगा के विषुवद्वृत्त का ध्रुव लें तो हमें आकाशगंगीय भोगांश तथा विक्षेप प्राप्त होंगे। यदि वसंतविषुव को स्थिर मान लें, तो सूर्य के वसंतबिंदु से चलकर पुन: वहाँ पहुँचने के समय को नाक्षत्र वर्ष कहते हैं। यह 365.25636 दिन का होता है। पृथ्वी का अक्ष चल होने के कारण विषुवसंपात प्रति वर्ष 50.2 के लगभग पीछे हट जाता है। सूर्य के चल विषुवसंपात की एक परिक्रमा के समय को सायन वर्ष कहते हैं। यह 365.2422 दिन का होता है। वास्तविक सूर्य की गति एक सी नहीं दिखलाई देती। अत: कालगणना के लिये विषुवद्वृत्त में एक गति से चलनेवाले ज्योतिष-माध्य-सूर्य की कल्पना की जाती है। उसके एक याम्योत्तर गमन से दूसरे याम्योत्तर गमन को माध्य-सूर्य-दिन कहते हैं। हमारी घड़ियाँ यही समय देती हैं। वास्तवसूर्य तथा ज्योतिष-माध्य-सूर्य के होराकोण के अंतर को कालसमीकार कहते हैं। वायुमंडलीय वर्तन, अपेरण, भूकेंद्रिक लंबन और अयन तथा विदोलन गति के कारण हमें गणित द्वारा उपलब्ध स्थान से आकाशपिंड कुछ हटे से दिखलाई देते हैं। अत: वास्तविक स्थिति का ज्ञान करने के लिये हमें उसमें उपयुक्त संशोधन करने पड़ते हैं।

गतिशास्त्रीय ज्योतिष

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गतिशास्त्रीय ज्योतिष में हम न्यूटन के व्यापक गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के प्रयोग द्वारा खगोलीय पिंडों की गतियों, कक्षाओं आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसमें हम सापेक्ष (relativistic) संशोधन कर देते हैं। इसका सफलतापूर्वक प्रयोग सौर परिवार, युग्म तारा, तथा बहुतारा पद्धतियों में हो चुका है।

भौतिक ज्योतिष

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भौतिक ज्योतिष में हम आकाशीय पिंडों की भौतिक स्थितियों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसके लिये हमारे मुख्य यंत्र वर्णक्रमदर्शी, प्रकाशमापी, तथा रेडियो दूरदर्शी हैं। वर्णक्रम विश्लेषण से हम आकाशीय पिंड के वायुमंडल, तापमान, मूलतत्व आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

आकाशीय पिण्ड

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आकाशीय पिंडों को हम प्राय: तीन भागों में बाँटते हैं :

(1) सूर्य तथा उसके परिवार के सदस्य,

(2) तारे तथा

(3) आकाशगंगाएँ

सूर्य हमारा निकटतम तारा है। यह गैसों से बना गोला है, जिसका व्यास 13,93,000 किलोमीटर है। इसका माध्य (mean) व्यास 31' 59.3 0.1 है, यह सौर परिवार के केंद्र में है तथा इसकी द्रव्यमात्रा अत्यधिक होने के कारण यह अपने परिवार के सदस्यों की गतिविधि पर पूर्ण नियंत्रण रखता है। इसकी पृथ्वी से दूरी नौ करोड़ 30 लाख मील के लगभग, अथवा (1.4960 ± .0003) ´ 108, किलोमीटर के तुल्य है। इसे ज्यौतिष इकाई कहते हैं तथा सौर परिवार की कक्षाओं की दूरियाँ प्राय: इसी इकाई में व्यक्त की जाती हैं। इसकी द्रव्यमात्रा (1.991 ± .002) ´ 1033, ग्राम है। इसका सामान्य अवस्था में घनत्व पानी के सापेक्ष 1.410 ± .002 है। इसके धरातल का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का 27.89 गुना है। इसके पृष्ठतल का ताप 6,000 सेंo, केंद्र का ताप लगभग 2,00,00,000 सेंo तथा प्रकाशमंडल (Photosphere) का लगभग 5,000 सेंo है। इसका फोटो दृष्ट (photovisual) कांतिमान (magnitude) - 26.73 ± .03 है। सूर्य के पृष्ठतल की चमक प्रति वर्ग इंच 15,00,000 कैंडल पावर है। इसका निरपेक्ष कांतिमान 4.84 ± .03 है। इसके घूर्णाक्ष (axis of rotation) का आनतिकोण 7° 15' है। यह प्रति सेकंड (3.86 ± 03)1033 अर्ग ऊर्जा (energy) प्रसारित करता है। पलायन वेग (velocityof escape) पृथ्वी के पृष्ठतल पर 11 किलोमीटर प्रति सेकंड तथा सूर्य के पृष्ठ पर 618 किलोमीटर प्रति सेकंड है। सूर्य के तल पर, अपेक्षाकृत धुँधली पृष्ठीभूमि पर, असंख्य प्रकाशकण से दिखलाई देते हैं, जो चावल के कणों सरीखें प्रतीत होते हैं। वस्तुत: वे बहुत उष्ण बादल हैं जो अपेक्षाकृत धुँधली पृष्ठभूमि पर उड़ा करते हैं। सूर्य के प्रकाश मंडल में दूरदर्शी से देखने पर बड़े बड़े काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। ये प्रकाशमंडल के कम ताप के स्थान हैं। इनका ताप लगभग 4,000 केo होता है। इन्हें सूर्यकलंक कहते हैं। इनके वेध से पता चलता है कि सूर्य पृथ्वी के सापेक्ष अपनी धुरी की 27.25 दिन में परिक्रमा करता है। सूर्य की अपने अक्ष के सापेक्ष परिक्रमा का नक्षत्रकाल 25.35 दिन है। सूर्यकलंकों के पास कुछ चमकते भाग भी दिखलाई देते हैं, इन्हें अतिभा (faculae) कहते हैं। जहाँ सूर्यकलंक होते हैं वहाँ अतिभा अवश्य होते हैं। सूर्य का वायुमंडल उत्क्रमण परत (Reversing layers) से प्रारंभ होता है। इसे सूर्य के वास्तविक वायुमंडल का भाग समझना चाहिए। यह सैंकड़ों मील घना है तथा इसका ताप प्रकाशमंडल से कम है। इसमें हाइड्रोजन तथा हीलियम का आधिक्य है, न्यून मात्रा में सिलिकन, आक्सजीन तथा अन्य परिचित गैसें भी मिलेंगी। उत्क्रमण परतों के ऊपर वर्णमंडल (chromosphere) है। यह पूर्ण ग्रहण के अवसर पर ही दिखलाई देता है। इसका विस्तार 6,000 मील तक है। इसमें कैल्सियम, हाइड्रोजन तथा हीलियम पाए जाते हैं। इसका विस्ता एकरूप नहीं है। वर्णमंडल में सूर्य की कुछ महत्वपूर्ण आकृतियाँ हैं जिनमें से एक उड़ती हुई आग की लपटें हैं, जिन्हें सौर ज्वाला कहते हैं। कभी कभी ये सूर्य के प्रकाशमंडल से हजारों मील ऊपर उठी दिखाई देती हैं। पूर्ण ग्रहण के अवसर पर जब सूर्य का बिंब चंद्रमा से पूर्णतया ढक जाता है तब वर्णमंडल से ऊपर अत्युज्वल शुभ्र प्रकाश का जो परिवेष (halo) दिखाई देता है उसे सूर्यकिरीट (corona) कहते हैं।

सौर परिवार

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जो खगोलीय पिंड सूर्य की परिक्रमा करते हैं वे सौर परिवार के सदस्य हैं। इनमें ग्रह (Planet), उपग्रह, क्षुद्रग्रह (Asteroids), घूमकेतु (Comets) तथा उल्काएँ (Meteors) हैं।

वे खगोलीय लघु ठोस पिंड जो किसी तारे की, विशेषतया सूर्य की, परिक्रमा करते हैं ग्रह हैं। सौर परिवार के ग्रह हैं : बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, गुरु शनि, वारुणी (Uranus) तथा वरुण (Neptune)। इनमें बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल तथा यम छोटे हैं तथा गुरु, वारुणी और वरुण विशाल हैं। बुध तथा शुक्र की कक्षाएँ सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी की कक्षा के भीतर पड़ती है। अत: इन्हें अंतर्ग्रह कहते हैं। शेष बहिर्ग्रह हैं।

ग्रहों की कक्षाएँ
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ग्रह ऐसी दीर्घवृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण करते हैं, जिनकी एक नाभि में सूर्य है। दोनों नाभियों से परिधि तक जानेवाली सरल रेखा को दीर्घ अक्ष (major axis) तथा दीर्घवृत्त के केंद्र से दीर्घ अक्ष पर लंब रेखा के परिधि पर्यंत भाग को लघु अक्ष (minor axis) कहते हैं। दीर्घवृत्त परिधि का वह बिंदु जो रवि के निकट दीर्घ अक्ष पर स्थित है उसे रविनीच, तथा जो बिंदु दीर्घ अक्ष के दूसरी ओर है उसे सूर्योच्च कहते हैं। दीर्घ अक्ष पर सूर्योच्च तथा रविनीच स्थिति हैं, इसलिये इसे नीचोच्च रेखा कहते हैं। रविनीच से नाभि स्थित सूर्य पर परिधि का कोण कोणिकांतर (Anomaly) कहलाता है। ग्रह के रविनीच अथवा सूर्योच्च के सापेक्ष परिक्रमा काल को परिवर्ष कहते हैं। ग्रहों की कक्षाएँ क्रांतिवृत्त के धरातल में नहीं हैं, किंतु उससे झुकी हुई हैं। ग्रह की कक्षा तथा क्रांतिवृत्त के संपातबिंदु को पात कहते हैं। जहाँ से ग्रह क्रांतिवृत्त से ऊपर की ओर जाता है वह बिंदु अरोहपात कहलाता है तथा दूसरा आवरोहपात। आकाश में ग्रह की स्थिति जानने के लिये हमें ग्रह का दीर्घ अक्ष, उत्केंद्रता (eccentricity), कक्षा की क्रांतिवृत्त से नति (inclination), निर्देशक्षण (epoch), सूर्योच्च की स्थिति तथा पात की स्थिति का ज्ञान करना आवश्यक है। ग्रहों में घूर्णन (rotation) तथा परिक्रमण (revolution) की दो प्रकार की गतियाँ पाई जाती हैं। एक तो वे अपने कक्षा में चलते हुए सूर्य की परिक्रमा करते हैं, इसे उनका परिक्रमण कहते हैं। जब कोई ग्रह किसी तारे के सापेक्ष सूर्य की परिक्रमा करता है, तो उसे उसका नाक्षत्र काल कहते हैं। ग्रह के पृथ्वी के सापेक्ष परिक्रमण काल को संयुति काल कहते हैं।

ग्रहों की पृथ्वी के सापेक्ष गति
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पृथ्वी के निवासियों को बहिर्ग्रह तो पृथ्वी की परिक्रमा करते दिखलाई देते हैं, किंतु अंतर्ग्रह सूर्य से पूर्व तथा पश्चिम दोलन (oscillation) करते दिखलाई देते हैं। यह उनकी कक्षाओं की विशेष स्थिति के कारण है। पृथ्वी के सापेक्ष अंतर्ग्रह की सूर्य से चरमकोणीय दूरी को चरम वितान (maximum elongation) कहते हैं। जब अंतर्ग्रह सूर्य तथा पृथ्वी को मिलानेवाली सरल रेखा में होता है तो उसे ग्रह की अंतर्युति तथा जब अंतर्ग्रह तथा पृथ्वी को मिलानेवाली सरल रेखा सूर्य के केंद्र से होकर जाती है तो उसे बहिर्युति कहते हैं। बहिर्ग्रह को पृथ्वी से मिलानेवाली रेखा जब सूर्य में से होकर जाती है, तो उसे संयुति (conjuction) तथा जब ग्रह पृथ्वी और सूर्य को मिलानेवाली रेखा के बीच में रहता है तो उसे ग्रह की वियुति (opposition) कहते हैं। ग्रह की एक संयुति से दूसरी संयुति तक के समय को संयुतिकाल कहते हैं बहिर्ग्रहों का यही, पृथ्वी के सापेक्ष, राशिचक्र की परिक्रमा का काल होता है। अंतर्ग्रह प्राय: पृथ्वी की परिक्रमा काल में ही राशिचक्र की परिक्रमा करते हैं। अपनी कक्षाओं में गति की दिशा एक ही होने के कारण अंतर्ग्रह अंतर्युति के आसन्न तथा बहिर्ग्रह वियुति के आसन्न काल में पृथ्वी के सापेक्ष विरुद्ध दिशा में चलते प्रतीत होते हैं। इस कारण ये हमें राशिचक्र में पश्चिम की ओर जाते दिखलाई देते हैं। यह ग्रहों की वक्रगति है। ग्रहों की, वक्रगति प्राप्त करने के कुछ समय पूर्व, पृथ्वी के सापेक्ष गति स्थिर हो जाती है। इससे ग्रह स्थिर से प्रतीत होते हैं। अंतर्युति अथवा वियुति के समय में ग्रह की वक्र गति परमाधिक होती है1 उसके कुछ काल बाद यह कम होने लगती है, फिर ग्रह स्थिर प्रतीत होकर ऋजु गति से चलते लगता है।

ग्रहकलाएँ
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अंतर्ग्रहों के प्रकाशित भाग चंद्रमा की तरह कम तथा अधिक प्रकाशित होते रहते हैं और ये कलाएँ प्राप्त करते हैं। इनके आकारों के अति छोटा होने के कारण बिना यंत्र के इनकी कलाएँ दिखलाई नहीं पड़तीं। बहिर्ग्रहों की कलाएँ सदा अर्धाधिक रहती है।

जस प्रकार ग्रह सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के कारण सूर्य की परिक्रमा करते हैं, उसी प्रकार उपग्रह ग्रहों की परिक्रमा करते हैं। व्यापक गुरुत्वाकर्षण नियम से यह स्पष्ट है कि इनकी द्रव्यमात्राएँ अपने ग्रहों से कम होती हैं। पृथ्वी के उपग्रह का चंद्रमा कहते हैं। चंद्रमा का हमारे जीवन से बहुत संबंध है। धार्मिक कृत्यों के लिये अभी बहुत से देशों में चांद्र मासों का व्यवहार किया जाता है। चंद्रमा को प्राचीन काल में ग्रह माना जाता था। पृथ्वी के अतिरिक्त मंगल के दो, गुरु के 12, शनि के 9, वारुणी (यूरेनस) के 5, तथा वरुण (नेप्चून) के 2 उपग्रह हैं। बुध, शुक्र तथा यम का कोई भी उपग्रह नहीं है1

ग्रहण तथा ताराप्रच्छादन
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जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है तो अमावस्या के दिन पृथ्वी पर दृश्य सूर्य का भाग उससे ढक जाता है। इसे सूर्यग्रहण कहते हैं। इसी प्रकार जब पूर्णिमा की रात में चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रविष्ट होकर प्रकाशहीन हो जाता है तो उसे चंद्रग्रहण करते हैं। सूर्य तथा चंद्रमा के ग्रहण बहुत प्रसिद्ध हैं। सूर्य के ग्रहणों से सूर्य के वायुमंडल तथा किरीट की प्रकृति के अध्ययन में बहुत सहायता मिलती है। गुरु के उपग्रहों के ग्रहणों के अध्ययन से सर्वप्रथम प्रकाश के वेग को ज्ञात किया गया। चंद्रमा द्वारा ताराओं के ढके जाने को ताराप्रच्छादन (occulation) कहते हैं (देखें - ग्रहण)!

क्षुद्रग्रह

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बोडे ने ग्रहों की सूर्य से दूरियाँ ज्यौतिषीय इकाई में ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित नियम बताया था--

दू 0.4 + 0.3 ´ 2न, जहाँ न = - ¥, 0,1,2,3,4,........इससे बुध की दूरी 0.4, शुक्र की दूरी = 0.7, पृथ्वी की दूरी --1.0 तथा मंगल की दूरी 1.6 प्राप्त हुई।

यहाँ तक तो प्राय: ठीक है, किंतु गुरु की दूरी इस नियम से ठीक नहीं बैठती। परंतु यदि हम बीच में किसी और ग्रह की कल्पना कर लें, तो शेष ग्रहों की दूरियाँ इस नियम से ठीक बैठ जाती हैं। इसलिये ज्योतिषियों ने मंगल तथा गुरु की कक्षा के बीच अन्य ग्रह की खोज शुरू की। इससे उन्हें बहुत से क्षुद्रग्रह मिले। सर्वप्रथम क्षुद्रग्रह सीटो का आविष्कार जनवरी, 1801 ईसवी में इटली के ज्योतिषी पियाज़ी ने किया था। सन्‌ 1950 में क्षुद्रग्रहों की संख्या 1,600 तक पहुँच गई थी। अनुमान है कि इनकी संख्या 1,00,000 होगी।

ये अति न्यून घनत्ववाली द्रव्यमात्रा के बने आकाशीय पिंड हैं, जो सूर्य के समीप आने पर सूर्य से विपरीत दिशा में बहुत दूर तक पुच्छ जैसे अपने भाग को प्रकाशित करते हैं। इनके आकार को मुख्यतया दो भागों में बाँटा जाता है। गोलाकार घने प्रकाशित भाग को सिर तथा हलके प्रकाशित भाग को पुच्छ कहते हैं। सिर में इनका नाभिक होता है। ये सूर्य के नियंत्रण में शांकव मार्गों में जाते हैं। इनमें कुछ की कक्षाएँ परवलयाकार तथा अतिपरवलयाकार दिखलाई पड़ती हैं, जिससे प्रतीत होता है कि कदाचित्‌ गुरु ने अपने आकर्षण के कारण इन्हें सौर परिवार का सदस्य बना लिया। बहुत से धूमकेतु दीर्घवृत्ताकार कक्षाओं में नियतकाल में परिक्रमण करते हैं। इनमें हैलि (Halley) का धूमकेतु प्रसिद्ध है। धूमकेतुओं की गति पर गुरु का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इसके कारण इनकी कक्षा बदल जाती है। प्राचीन काल में धूमकेतु का दिखाई पड़ना अनिष्ट का सूचक माना जाता था।

बहुधा रात्रि के समय कुछ चमकीले पदार्थ पृथ्वी की ओर अतिवेग से आते दिखाई देते हैं। इन्हें तारा का टूटना या उल्कापात कहते हैं। उल्काएँ हमें तभी दिखलाई देती हैं जब ये अतिवेग से पृथ्वी के वायुमंडल में घुसती हैं। इनका वेग 11 से लेकर 62 किलोमीटर प्रति सेकेंड तक रहता है। ये जब हमारे धरातल से 100 तथा 120 किलोमीटर की दूरी के भीतर होती हैं तो हमें प्रथम बार दिखलाई पड़ती हैं और 50 या 60 किलोमीटर की दूरी तक आने पर अदृश्य हो जाती हैं। वस्तुत: पृथ्वी के घने वायुमंडल में अतिवेग से घुसने पर इनके द्रव्य में आग उत्पन्न हो जाती है और ये जल जाती हैं। इनकी द्रव्यमात्रा अत्यल्प होती है। कभी कभी उल्काएँ जब पृथ्वी पर गिरती हैं तो बड़े बड़े गड्ढ़े बना देती हैं। यदि हमारा वायुमंडल हमारी रक्षा न करे, तो उल्कापात से पृथ्वी तथा हमारी बहुत हानि हो (देखें उल्का)।

ये गरम गैसों से स्वयंप्रकाशित खगोलीय पिंड हैं, जो अपने द्रव्य को निजी गुरुत्वाकर्षण से संबद्ध रखते हैं। तारों के समूह एक विशेष आकृति धारण कर लेते हैं, इन्हें तारामंडल (constellations) कहते हैं। क्रांतिवृत्त के क्षेत्र के तारामंडलों को राशि कहते हैं, जो मेष, वृष, मिथुन आदि 12 हैं। सर्पधर (Ophiuchus) का कुछ भाग वृश्चिक तथा धनु राशियों के बीच में है। क्रांतिवृत्त तथा खगोलीय ध्रुव के बीच 21 तथा सर्पधर के शेष भाग और क्रांतिवृत्त तथा दक्षिणी खगोलीय ध्रुव के बीच 47 तारामंडल हैं। अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में इनके कुछ नाम ग्रीक पुराणकथाओं पर आधारित हैं तथा कुछ के नाम अरबी के हैं। नक्षत्रों के अश्विनी, भरणी, मृगशिरा आदि के भारतीय नाम भी पुराणकथाओं से संबद्ध हैं। राशियों में तारें की चमक के क्रम को बताने के लिये ग्रीक वर्णमाला का प्रयोग किया जाता है। जिस तारामंडल में तारों की संख्या वर्णमाला के अक्षरों से अधिक होती है, उनकी चमक के क्रम को अंकों द्वारा भी व्यक्त किया जाता है। प्रत्येक कांतिमान (magnitude) अपने अगले कांतिमान से 2.5 गुना अधिक चमकीला होता है। कांतिमान जितना कम होगा उतना ही तारों की सापेक्ष चमक 2.5 गुणा बढ़ जाएगी। इस प्रकार 1 से 6 तक कांतिमान के तारों की चमक का अनुपात 100 : 40 : 16 : 6.3 : 2.5 : 1 होगा। तारों के रंग से उनके ताप का ज्ञान होता है। बिना यंत्र के देखने से भी रंग का पता चल जाता है, किंतु सूक्ष्म ज्ञान के लिये रंगप्रभावी (colour sensitive) लेप (emulsion) वाली फोटोग्राफी की प्लेटों, फिल्मों तथा वर्णक्रमदर्शी फोटोग्राफी का प्रयोग किया जाता है। केवल आँख से दृश्य तारों की संख्या लगभग 6,500 है। इनमें लगभग 20 तारे 1 से 1.5 कांतिमान के लगभग, 50 तारे द्वितीय, 150 तारे तृतीय, 500 तारे चतुर्थ, 1,500 तारे पंचम तथा शेष तारे छठे कांतिमान के हैं। केवल आँख से, छठे कांतिमान से कम चमकीले तारे नहीं देखे जा सकते। 200 इंच व्यास के दूरदर्शी की सहायता से 23वें कांतिमान तक के तारे देखे जा सकते हैं। अब तक बड़े दूरदर्शियों द्वारा देखे गए हमारी आकाशगंगा के तारों की संख्या 1011 है। तारों की गतियों को दो भागों में बाँट देते हैं। एक तो वह, जिससे हमारे देखने की दिशा में आगे पीछे हटते हैं, दूसरी वह, जिससे तारे अतिदूरवर्ती तारों के सापेक्ष किसी दिशा में हटते दिखाई देते हैं। प्रथम को त्रिज्यावेग (radial velocity) तथा द्वितीय को निजी गति (proper motion) कहते हैं। दोनों वेगों का लब्धवेग तारा का वास्तविक वेग होता है। त्रिज्यावेग को वर्णक्रम की लाल रेखाओं के विचलन से डॉपलर के नियम द्वारा जाना जाता है, तथा निजी गति को कुछ वर्षों के अंतराल से लिए गए फोटोग्राफों द्वारा। तारों की निजी गति बहुत कम होती है। ज्योतिषी बर्नार्ड ने सबसे अधिक निजी गतिवाले तारे की वार्षिक निजी गति 10.3 ज्ञात की है। तारों की दूरियाँ नापने के लिये वार्षिक लंबन का प्रयोग किया जाता है। पृथ्वी की कक्षा का व्यास यदि आधार मान लें और शीर्षबिंदु पर तारे को मानें तो शीर्षबिंदु पर बना कोण द्विगुण वार्षिक लंबन होगा। इसके लिये एक तारे के, छ: महीने के अंतर पर, दो वेध लेने पड़ते हैं। किसी भी तारे का वार्षिक लंबन 1.00 से अधिक नहीं। जिस तारे का लंबन 1.00 हो वह हमसे पृथ्वी की कक्षा के अर्धव्यास के 2,06,265 गुना दूरी पर होता है। इस दूरी को एक पारसेक कहते हैं। तारों की दूनियाँ इतनी अधिक हैं कि उनके लिये पारसेक इकाई का काम देता है। तारों की दूरियाँ नापने के लिये प्रकाशवर्ष भी इकाई के रूप में प्रयुक्त होता है। प्रकशवर्ष वह दूरी है जिसे प्रकाश अपनी गति (1,86,000 मील प्रति सेकेंड) से एक वर्ष में तय करता है। यह 58,60,00,00,00,000 मील है तथा पारसेक का 0.307 है। अति समीप के नक्षत्रों का वार्षिक लंबन सूर्य के सापेक्ष निजी गति के ज्ञान द्वारा, युग्म तारों का गतिशास्त्र द्वारा तथा शेष का वर्णक्रमदर्शी विधि द्वारा ज्ञात किया जाता है। तारों के आकार के अधार पर उनके अतिदानवाकार (supergiant), दनवाकार (giant), सामान्यक्रम (main sequence) तथा वामनाकार (dwarf) भेद किए जाते हैं। इनका आकार उत्तरोत्तर छोटा होता जाता है। नवतारा (Nova) नवजात तारा होता है। वस्तुत: यह पहले से विद्यमान होता है, जिसमें विस्फोट हो चुका होता है। नवतारा की विशेषता यह है कि एकाएक अति प्रकाशित होकर विस्फुटित हो जाता है। कुछ तारों का प्रकाश नियत क्रम से बढ़ता घटता रहता है। इन्हें चल तारे कहते हैं। इनमें सिफियस चतुर्थ (d-cepheus) तथा आर आर लाइरा क्रम के तारे महत्वपूर्ण हैं। सिफियस चतुर्थ की श्रेणी के तारों को सिफीड कहते हैं। इनमें प्रकाश के उतार चढ़ाव का उनके काल से निश्चित संबंध (period luminosity relation) रहता है। जहाँ ऐसे तारे पाए जाते हैं यहाँ इस संबंध से तारापुंज की दूरी ज्ञात करना सरल होता है। आर आर लाइरा तारे प्राय: समान ऊँचाई पर रहते हैं। इनसे आकाशगंगा प्रणाली की दूरी ज्ञात करने में सहायता मिली है। नक्षत्रों के तल (surface) का ताप ज्ञात करने के लिये ज्योतिर्मिति (फोटोमेट्री) द्वारा वर्णज्ञान प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार लाल रंग के तारों के तल का ताप 2,000o-3,000o केo, नारंगी रंग के तारों का 3,000o-5000o केo और नीले रंग के तारों का 12,000o-20,000o-30,000o केo अथवा और ऊपर होता है। वस्तुत: रंगों का ठीक ज्ञान वर्णक्रमदर्शी (spectroscopic) विधि से होता है। इसीलिये ताप के लिये वर्णक्रमदर्शी के आधार पर तारों के भेद को अंग्रेजी वर्णमाला के बड़े अक्षरों से व्यक्त करते हैं। इस प्रकार तारों के वर्णदर्शी क्रम से ओ, बी, ए, एफ, जी, के एम, आर, एन, एस, भेद किए जाते हैं। इनके उपभेदों को व्यक्त करने के लिये अंग्रेजी वर्णमाला के ए से इ तक के लघु अक्षरों, अथवा शून्य से 9 तक के अंकों, का प्रयोग करते हैं। कुछ तारे जोड़ों (doubles) में होते हैं। इनमें साथी तारे पर सामान्य गुरुत्वाकर्षण नियम का प्रयोग करके उसके अकार, द्रव्यमात्रा आदि का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। किसी भी वामनाकार तारे की द्रव्यमात्रा सूर्य की द्रव्यमात्रा के 0.1 से कम नहीं पाई गई। सूर्य की द्रव्यमात्रा से दसगुनी द्रव्यमात्रा वाले दानवाकार तारे भी इने गिने ही हैं। शेष की द्रव्यमात्रा इन दो सीमाओं के भीतर रहती है। तारों का घनत्व आयतन का व्युत्क्रमानुपाती होता है। इसी कारण दानवाकार तारों का घनत्व कम होता है। ज्येष्ठा तारे का घनत्व, जिसका व्यास सूर्य के व्यास का 480 गुना है और जिसकी द्रव्यमात्रा सूर्य के 20 गुने से अधिक नहीं है, साधारण वायु के 0.0001 के बराबर है। औसत तारों के मूल तत्वों में 70% हाइड्रोजन, 28% हीलियम, 1.5% कार्बन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा नियोन और .5% लौह वर्ग के भारी तत्व होते हैं। तारों के केंद्र की भीषण गर्मी से हाइड्रोजन के अणु हीलियम के अणुओं में परिवर्तित होते रहते हैं। इस आणविक प्रतिक्रिया में कुछ द्रव्यमात्रा ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है, जिससे तारों को असीम ऊर्जा प्राप्त होती रहती है। इसका ये प्रकाश के रूप में वितरण करते रहते हैं। इसी प्रक्रिया के आधार पर तारों की आयु का निर्णय किया जाता है। अत्यधिक प्रकाशमान तारों की औसत आयु 106 वर्ष, सामान्य क्रम के तारों की 1010 से लेकर 1013 वर्ष तक की होती है।

हमारी आकाशगंगा

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यह कृष्णपक्ष की किसी रात्रि में उत्तर से दक्षिण की ओर फैली हुई, धुँधले चमकीले नक्षत्रों की एक चौड़ी मेखला सी दिखलाई देती है। आकाशगंगा का पूर्वार्ध हंस (Cygnus), धनु (Sagittarius) में से होता हुआ करीना (Carina) तक फैला है और दूसरे अर्धांश की अपेक्षा, जो हंस, मृगशिरा (Orion) तथा करीना या नौतल तक फैला है, अत्यधिक चमकीला है। आकाशगंगा धनु के समीप अधिकतम चौड़ी तथा अधिकतम चमकीली है।

आकाशगंगा की मेखला के बीच से खगोल का जो बृहद्वृत्त जाता है उसे आकाशगंगीय विषुद्वृत्त कहते हैं। ऐक्विला, अथवा गरुड़, नामक तारामंडल के समीप खगोलीय विषुवद्वृत्त से लगभग 62o का कोण बनाता है। इसी बिंदु को हम आकाशगंगीय नियामकों का मूल बिंदु मानते हैं (देखें - आकाशगंगा)।

हमारी आकाशगंगा सर्पिल (spiral) आकार की है। इसका नाभिक (nucleus) सूर्य से लगभग 2,700 प्रकाशवर्ष की दूरी पर धनु राशि में स्थित है। इसके आकाशगंगीय नियामक, भोगांक 328o तथा विक्षेप 0o अथवा - 2o, हैं। सूर्य उसकी बाहरी भुजा में है। इसके विषुवद्वृत्त का व्यास लगभग 10,00,000 प्रकाशवर्ष है। इसके केंद्रीय भाग में तारों की संख्या बहुत अधिक है। ज्यों ज्यों केंद्र से दूर हटते जाते हैं, तारों की संख्या कम होती जाती है। आकाशगंगा में लगभग 1011 तारे होंगे। इसकी द्रव्यमात्रा सूर्य की द्रव्यमात्रा की 1011 है। अतिशक्तिशाली दूरदर्शी से देखने पर बहुत से खगोलीय पदार्थ, पर्याप्त भाग में, चमकदार छोटे छोटे प्रकाशकणों से प्रकाशित दिखलाई देते हैं। इनमें से कुछ हमारी आकाशगंगा की तरह स्वयं विश्वद्वीप हैं। इसलिये इनका अध्ययन करना भी आवश्यक है। इन पदार्थों को हम इन भागों मे बाँट सकते हैं : नीहारिकाएँ, तारागुच्छ, तारामेघ तथा आकाशगंगाएँ। नीहारिकाएँ गैस से बने मेघ होती हैं, जिनके अणु पास के किसी बहुत उष्ण तारे के प्रखर प्रकाश के कारण आयनीकृत (ionised) होकर चमकने लगते हैं। ये प्रकाशित नीहारिकाएँ कहलाती हैं, जैसे मृगशिरा की नीहारिका। जिन गैस मेघों को किसी उष्ण नक्षत्र की ऊर्जा नहीं मिलती उनके अणु प्रकाशित नहीं हो पाते और वे अन्य तारों के प्रकाश के अवरोधक हो जाते हैं। पास के प्रकाशित भाग की अपेक्षा वे भाग अंधकारपूर्ण होते हैं। ऐसी काली आकृति को काली नीहारिका कहते हैं, जैसे अश्वसिर (Horse head) नीहारिक। प्रारंभ में नीहारिका शब्द का अर्थ अस्पष्ट था तथा बड़े दूरदर्शी से किसी भी धुँधले, या अधिक प्रकाशित क्षेत्र, को नीहारिका कह देते थे, जैसे देवयानी (Andromeda) नीहारिका। किंतु वह नीहारीका न होकर स्वयं आकाशगंगा है।

तारागुच्छ

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कुछ तारों के समूह यंत्र बिना देखने पर प्रकाश के धब्बे से प्रतीत होते हैं, जिनसे कुछ छोटे तारे तथा एकाध चमकीला तारा दिखलाई पड़ता है। दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इनमें सैकड़ों तारे तथा एक दो नीहारिका जैसे पदार्थ भी दिखलाई देते हैं, जैसे कृत्तिका तारागुच्छ। तारागुच्छ के तारे प्राय: एक सी निजी गति से चलते दिखलाई देते हैं। तारागुच्छ दो प्रकार के होते हैं : आकाशगंगीय तारागुच्छ तथा गोलीय (globular) तारागुच्छ। कृत्तिका तारागुच्छ आकाशगंगीय तारागुच्छ है तथा बिना यंत्र के दिखलाई पड़ जाता है। एक आकाशगंगीय तारागुच्छ में कुछ सौ से लेकर कुछ हजार तक चमकीले तारे दिखलाई पड़ जाते हैं। आकाशगंगीय तारागुच्छ आकाशगंगा के धरातल में या उसके पास रहते हैं। चमकीले तारागुच्छ आकाशगंगा के धरातल से 100 से लेकर 1,000 प्रकाशवर्षों तक की दूरी पर स्थित हैं, किंतु अधिकांश 1,000 से 15,000 प्रकाशवर्षों की दूरी पर स्थित हैं। गोलीय (globular) तारागुच्छ आकाशगंगा के धरातल से दूर होते हैं। निकटतम गोलीय तारागुच्छ 20,000 प्रकाशवर्ष की दूरी पर होगा। इनमें हजारों तारे होते हैं, जो गोल के केंद्र के पास लगभग इस प्रकार इकट्ठे रहते हैं कि इन्हें बड़े दूरदर्शी से देखने पर भी उनकी आकृति स्पष्ट नहीं दिखलाई पड़ती। गोलीय तारागुच्छ की आकृति लगभग गोलाकार रहती है, जिसका व्यास लगभग 100 प्रकाशवर्ष होता है। इनका घना केंद्रीय भाग 5 प्रकाशवर्षों के लगभग होता है। (देखें - तारागुच्छ)।

खगोल में कहीं कहीं चमकीले भाग मेघाकार प्रतीत होते हैं। बड़े दूरदर्शी से देखने पर इनमें असंख्य तारे दिखलाई पड़ते हैं। इनमें से कुछ आकाशगंगाएँ हैं। दो तारामेघ प्रसिद्ध हैं। बड़ा मेगलानिक तारामेघ तथा छोटा मेगलानिक। मेघ वस्तुत: आकाशगंगाएँ हैं, जो हमारी अपनी आकाशगंगा के निकटतम हैं। अपनी आकाशगंगा के अध्ययन से हमें अन्य आकाशगंगाओं का पता चला है एवं हमारी कुछ गलत धारणाएँ भी दूर हुई हैं। प्रत्येक नीहारिका आकाशगंगा नहीं है, यद्यपि कुछ आकाशगंगाएँ ऐसी भी हैं जिन्हें हम नीहारिका समझे बैठे थे।

आकाशगंगाएँ कई प्रकार की होती है : सर्पिल, दीर्घवृत्ताकार तथा अनियमित। देवयानी (Andromeda) आकाशगंगा हमारी आकाशगंगा की ही भाँति सर्पिल आकार की है। आकाशगंगा के अध्ययन से हमें विश्व की सीमा तथा उसकी उत्पत्ति एवं विकास के ज्ञान में सहायता मिलती है। हमारे बड़े से बड़े दूरदर्शक भी विश्व की अंतिम सीमा तक नहीं पहुँच सके हैं, तथापि आकाशगंगा के त्रिज्यावेगों के अध्ययन से हमने इतना जान लिया है कि अभी विश्व का विस्तार हो रहा है। यह लेमित्रे तथा एडिंगटन का मत है। इसी सिद्धांत के आधार पर अनुमान है कि विश्व की उत्पत्ति कदाचित्‌ 10 वर्ष पूर्व हुई होगी।

हमारा ज्योतिष का वर्तमान ज्ञान भूतल पर लगे यंत्रों से प्राप्त हुआ है। इनकी अपनी सीमा है। इसीलिये हमारा ज्ञान भी सीमित है। पिछले कुछ वर्षों से विज्ञान में नए नए प्रयोग हो रहे हैं। गुब्बारों पर दूरदर्शियों को बहुत ऊँचा भेजने का प्रयास किया जा रहा है। राँकेट तथा कृत्रिम उपग्रह पृथ्वी के वायुमंडल के अज्ञात तत्वों तथा सौर परिवार के सूक्ष्म पदार्थों के अध्ययन का साधन बन रहे हैं। बड़े बड़े रेडियों दूरदर्शी तथा राडार यंत्र ज्योतिष को नई दिशा दिखला रहे हैं। इससे यह आशा की जा रही है कि हमें निकट भविष्य में खगोल के बहुत से नवीन रहस्यों का ज्ञान प्राप्त हो सकेगा।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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