गाँजे का पौधा

और उससे होने वाले लाभ और हन्नी

गाँजे के पौधे का वानस्पतिक नाम कैनाबिस सैटिवा (Cannabis sativa) है। यह भांग (Cannabis indica) की जाति का ही एक पौधा है। यह देखने में भाँग से भिन्न नहीं होता, पर भाँग की तरह इसमें फूल नहीं लगते। कैनाबिस के पौधों से गाँजा, चरस और भाँग, ये मादक और चिकित्सोपयोगी द्रव्य तथा फल, बीजतैल और हेंप (सन सदृश रेशा), ये उद्योगोपयोगी द्रव्य, प्राप्त किए जाते हैं।

गाँजे का पौधा

नेपाल की तराई, बंगाल आदि में यह भाँग के साथ अपने आप उगता है; पर कहीं कहीं इसकी खेती भी होती है। इसमें बाहर फूल नहीं लगते, पर बीज पड़ते हैं। वनस्पतिशास्त्रविदों का मत है कि भाँग के पौधे के तीन भेद होते है—स्त्री, पुरुष और उभयलिंगी। इसकी खेती करनेवालों का यह भी अनुभव है कि यदि गाँजे के पौधे के पास या खेत में भाँग के पौधे हो, तो गाँजा अच्छा नहीं होता। इसलिये गाँजे के खेत से किसान प्रायः भाँग के पौधे उखाड़कर फेंक देते हैं। उत्तराखंड में भांग की खेती भी की जाती है और कुछ स्थानों मैं यह बिना खेती के भी उग जाता हैं। चुकी उत्तराखंड एक ठंडा प्रदेश है तो वहां इस भांग का प्रयोग कई तरह से किया जाता हैं। जैसे भांग के जो बीज होते हैं उसकी सब्जी, चटनी आदि कई खाने की चीजें बनाए जाती हैं। जबकि आज अमेरिका के खोजकर्ता भी मान चुके हैं कि इसका उपयोग कैंसर जैसी बीमारियों में किया जा सकता है आतो यह सिद्धन होता है कि हम जो इसका उपयोग 200 BC पूर्व से कर रहे हैं इसके ओषधीय गुणों से भली भांति परिचिती थे परंतु हम आज की पीढ़ी इन सब ज्ञान से दूर भाग रही हैं और अपने अस्तित्व को ही भलते जा रह हैं।

कैनाबिस सैटाइवा (Cannabis sativa Linn) मोरेसिई (Moreaceae) कुल के कनाब्वायडी समुदाय का पौधा है। यह मध्य एशिया का आदिनिवासी है, परंतु समशीतोष्ण एवं उष्ण कटिबंध के अनेक प्रदेशों में स्वयं पैदा होता है या इसकी खेती की जाती है। भारत में बीज की बोआई वर्षा ऋतु में की जाती है। गाँजे का क्षुप प्राय: एकलिंग, एकवर्षायु और अधिकतर चार से आठ फुट तक ऊँचा होता है। इसके कांड (तने) सीधे और कोणयुक्त, पत्तियाँ करतलाकार, तीन से आठ पत्रकों तक में विभक्त होती हैं। पुष्प हरिताभ, नर पुष्पमंजरियाँ लंबी, नीचे लटकी हुई और रानी मंजरियाँ छोटी, पत्रकोणीय शुकिओं (Spikes) की होती हैं। फल गोलाई लिए लट्टु के आकार का और बीज जैसा होता है। पौधे गंधयुक्त, मृदुरोमावरण से ढके हुए और रेज़िन स्राव के कारण किंचित् लसदार होते हैं।

गाँजे के पौधे से एक प्रकार का लासा भी निकलता है। यद्यपि नीचे के देशों में यह यह लासा उतना नहीं निकलता तथापि हिमालय पर यह बहुतायत से निकलता है और इसी से चरस बनती है। भारत में गाँजा खाया नहीं जाता; लोग इसमें तमाकू मिलाकर इसे चिलम पर पीते हैं; पर अँगरेजी दवाओं में इसका सत्त काम में लाया जाता हैं।

गाँजे की कई जातियाँ है—बालूचर, पहाड़ी, चपटा, गोली, भँगेरा इत्यादि। बालूचर के तैयार होने पर उसे काटकर और पूला बनाकर पैरों से रौंदते हैं। इस प्रकार ऊपर रखकर तले गाँजे को वैद्यक में कडुवा, कसैला, तीता और उष्ण लिखा है और उसे कफनाशकत, ग्राही, पाचक और अग्निवर्धक माना है। यह नशीला और पित्तोत्पादक होता है। इसके रेशे मजबूत होते हैं और सन की तरह सुतली बनाने के काम में आते हैं। नैपाल आदि पहाड़ी देशों में इन रेशों से एक प्रकार का मोटा कपड़ा भी बुनते हैं जिसे 'भँगरा' कहते हैं।

गाँजे की खेती

संपादित करें

इसकी खेती आर्द्र एवं उष्ण प्रदेशों में भुरभुरी, दोमट (loamy) अथवा बलुई मिट्टी में बरसात में होती है। जून जुलाई में बोआई और दिसंबर जनवरी में, जब नीचे की पत्तियाँ गिर जाती हैं और पुष्पित शाखाग्र पीले पड़ने लगते हैं, कटाई होती है। कारखानों में इनकी पुष्पित शाखाओं को बारंबार उलट पलट कर सुखाया और दबाया जाता है। फिर गाँजे को गोलाकार बनाकर दबाव के अंदर कुछ समय तक रखने पर इसमें कुछ रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जो इसे उत्कृष्ट बना देते हैं। अच्छी किस्म के गाँजे में से १५ से २५ प्रतिशत तक रेज़िन और अधिक से अधिक १५ प्रतिशत राख निकलती है। कारखानों से निकलने के बाद चप्पड़ों में हलकी गंध, हलका हरापन, अथवा हरापन लिए भूरा रंग होता है और उनका रेज़िन सूखकर कड़ा और भंगुर हो जाता है। यह लाभदायक हे। ओर हानि कारक भी हे।

इन्हें भी देखें

संपादित करें
  • गाँजाएक अति लाभकारी औरअध्यात्म की ओर ले जाने वाला रसायन है।-बाबा ठाकुर