गिरमिटिया

ग़ुलामी की शर्त पर विदेश भेजे जाने वाले भारतीय मज़दूर

सत्रहवीं सदी में आये अंगरेज़ों ने आम भारतीयों को एक-एक रोटी तक को मोहताज कर दिया। फिर उन्होंने गुलामी की शर्त पर लोगों को विदेश भेजना प्रारंभ किया। इन मज़दूरों को गिरमिटिया कहा गया। गिरमिट शब्द अंगरेजी के `एग्रीमेंट' शब्द का अपभ्रंश बताया जाता है। जिस कागज पर अंगूठे का निशान लगवाकर हर साल हज़ारों मज़दूर दक्षिण अफ्रीका या अन्य देशों को भेजे जाते थे,( लोकेश मरमट बरथल)उसे मज़दूर और मालिक `गिरमिट' कहते थे। इस दस्तावेज के आधार पर मज़दूर गिरमिटिया कहलाते थे। हर साल १० से १५ हज़ार मज़दूर गिरमिटिया बनाकर फिजी, ब्रिटिश गुयाना, डच गुयाना, ट्रिनीडाड, टोबेगा, नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) आदि को ले जाये जाते थे। यह सब सरकारी नियम के अंतर्गत था। इस तरह का कारोबार करनेवालों को सरकारी संरक्षण प्राप्त था।

इतिहास संपादित करें

गिरमिटिया प्रथा अंग्रेजों द्वारा सन् १८३४ से आरम्भ हुई और सन् १९१७ में इसे निषिद्ध घोषित किया गया।

गिरमिटियों की दुर्दशा संपादित करें

गुलाम पैसा चुकाने पर भी गुलामी से मुक्त नहीं हो सकता था, लेकिन गिरमिटियों के साथ केवल इतनी बाध्यता थी कि वे पांच साल बाद छूट सकते थे। गिरमिटिये छूट तो सकते थे, लेकिन उनके पास वापस भारत लौटने को पैसे नहीं होते थे। उनके पास उसके अलावा और कोई चारा नहीं होता था कि या तो अपने ही मालिक के पास काम करें या किसी अन्य मालिक के गिरमिटिये हो जायें। वे भी बेचे जाते थे। काम न करने, कामचोरी करने पर प्रताड़ित किये जा सकते थे। आमतौर पर गिरमिटिया चाहे औरत हो या मर्द उसे विवाह करने की छूट नहीं थी। यदि कुछ गिरमिटिया विवाह करते भी थे तो भी उन पर गुलामी वाले नियम लागू होते थे। जैसे औरत किसी को बेची जा सकती थी और बच्चे किसी और को बेचे जा सकते थे। गिरमिटियों (पुरुषों) के साथ चालीस फीसदी औरतें जाती थीं, युवा औरतों को मालिक लोग रखैल बनाकर रखते थे और उनका भरपूर यौनशोषण करते थे। आकर्षण खत्म होने पर यह औरतें मज़दूरों को सौंप दी जाती थीं। गिरमिटियों की संतानें मालिकों की संपत्ति होती थीं। मालिक चाहे तो बच्चों से बड़ा होने पर अपने यहां काम करायें या दूसरों को बेच दें। गिरमिटियों को केवल जीवित रहने लायक भोजन, वस्त्रादि दिये जाते थे। इन्हें शिक्षा, मनोरंजन आदि मूलभूत ज़रूरतों से वंचित रखा जाता था। यह १२ से १८ घंटे तक प्रतिदिन कमरतोड़ मेहनत करते थे। अमानवीय परिस्थितियों में काम करते-करते सैकड़ों मज़दूर हर साल अकाल मौत मरते थे। मालिकों के जुल्म की कहीं सुनवाई नहीं थी।

गिरमिटिया प्रथा के विरूद्ध महात्मा गांधी का सहयोग संपादित करें

इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से अभियान प्रारंभ किया। भारत में गोपाल कृष्ण गोखले ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में मार्च १९१२ में गिरमिटिया प्रथा समाप्त करने का प्रस्ताव रखा। काउंसिल के २२ सदस्यों ने तय किया कि जब तक यह अमानवीय प्रथा खत्म नहीं की जाती तब तक वे हर साल यह प्रस्ताव पेश करते रहेंगे। दिसंबर १९१६ में कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भारत सुरक्षा और गिरमिट प्रथा अधिनियम प्रस्ताव रखा। इसके एक माह बाद फरवरी १९१७ में अहमदाबाद में गिरमिट प्रथा विरोधी एक विशाल सभा आयोजित की गयी। इस सभा में सीएफ एंड्रयूज और हेनरी पोलाक ने भी प्रथा के विरोध में भाषण दिया।इसके अलावा  गिरमिटिया मज़दूरी की प्रथा को समाप्त करने में पं मदन मोहन मालवीय, सरोजिनी नायडू, जिन्ना जैसे भारतीय नेताओं का भी बहुत बड़ा योगदान था | तोता राम सनाढ्य और कुंती जैसे फिजी के गिरमिटियों का भी गिरमिट प्रथा को समाप्त करने में बहुत बड़ा योगदान है |  इसके बाद गिरमिट विरोधी अभियान ज़ोर पकड़ता गया। मार्च १९१७ में गिरमिट विरोधियों ने अंगरेज़ सरकार को एक अल्टीमेटम दिया कि मई तक यह प्रथा समाप्त की जाये। लोगों के बढ़ते आक्रोश को देखते हुए अंतत: सरकार को गंभीरता से सोचना पड़ा। १२ मार्च को ही सरकार ने अपने गजट में यह निषेधाज्ञा प्रकाशित कर दी कि भारत से बाहर के देशों को गिरमिट प्रथा के तहत मज़दूर न भेजे जायें।

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें