गुरुदत्त विद्यार्थी
पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी (२६ अप्रैल १८६४ - १८९०), महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनन्य शिष्य एवं कालान्तर में आर्यसमाज के प्रमुख नेता थे। उनकी गिनती आर्य समाज के पाँच प्रमुख नेताओं में होती है। उन्होने डी ए वी कॉलेजों की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभायी। २६ वर्ष की अल्पायु में ही उनका देहान्त हो गया किन्तु उतने ही समय में उन्होने अपनी विद्वता की छाप छोड़ी और अनेकानेक विद्वतापूर्ण ग्रन्थों की रचना की।
जीवनी
संपादित करेंअद्भुत प्रतिभा, अपूर्व विद्वत्ता एवं गम्भीर वक्तृत्व-कला के धनी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी का जन्म 26 अप्रैल 1864 को मुल्तान के प्रसिद्ध 'वीर सरदाना' कुल में हुआ था।[1] आपके पिता लाला रामकृष्ण फारसी के विद्वान थे। आप पंजाब के झंग में शिक्षा विभाग में अध्यापक थे।
विशिष्ट मेधा एवं सीखने की उत्कट लगन के कारण वे अपने साथियों में बिल्कुल अनूठे थे। किशोरावस्था में ही उनका हिन्दी, उर्दू, अरबी एवं फारसी पर अच्छा अधिकार हो गया था तथा उसी समय उन्होंने 'द बाइबिल इन इण्डिया' तथा 'ग्रीस इन इण्डिया' जैसे बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ लिये। कॉलेज के द्वितीय वर्ष तक उन्होंने चार्ल्स ब्रेडले, जेरेमी बेन्थम, जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे पाश्चात्त्य विचारकों के शतशः ग्रन्थ पढ़ लिये। वे मार्च, 1886 में पंजाब विश्वविद्यालय की एम ए (विज्ञान, नेचुरल साईन्स) में सर्वप्रथम रहे। तत्कालीन महान समाज सुधरक महर्षि दयानन्द के कार्यों से प्रभावित होकर उन्होंने 20 जून 1880 को आर्यसमाज की सदस्यता ग्रहण की। महात्मा हंसराज व लाला लाजपत राय उनके सहाध्यायी तथा मित्र थे। वे ‘द रिजेनरेटर ऑफ आर्यावर्त’ के वे सम्पादक रहे।
1884 में उन्होने ‘आर्यसमाज साईन्स इन्स्टीट्यूशन’ की स्थापना की। अपने स्वतन्त्र चिन्तन के कारण इनके अन्तर्मन में नास्तिकता का भाव जागृत हो गया। दीपावली (1883) के दिन, महाप्रयाण का आलिंगन करते हुए महर्षि दयानन्द के अन्तिम दर्शन ने गुरुदत्त की विचारधरा को पूर्णतः बदल दिया। अब वे पूर्ण आस्तिक एवं भारतीय संस्कृति एवं परम्परा के प्रबल समर्थक एवं उन्नायक बन गए। वे डीएवी के मन्त्रदाता एवं सूत्रधार थे। पूरे भारत में साईन्स के सीनियर प्रोफेसर नियुक्त होने वाले वह प्रथम भारतीय थे। वे गम्भीर वक्ता थे, जिन्हें सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। उन्होंने कई गम्भीर ग्रन्थ लिखे, उपनिषदों का अनुवाद किया। उनका सारा कार्य अंग्रेजी में था। उनकी पुस्तक ‘द टर्मिनॉलॅजि ऑफ वेदास्’ को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकृत किया गया। उनके जीवन में उच्च आचरण, आध्यात्मिकता, विद्वत्ता व ईश्वरभक्ति का अद्भुत समन्वय था। उन्हें वेद और संस्कृत से इतना प्यार था कि वे प्रायः कहते थे कि - "कितना अच्छा हो यदि मैं समस्त विदेशी शिक्षा को पूर्णतया भूल जाऊँ तथा केवल विशुद्ध संस्कृतज्ञ बन सकूँ।" ‘वैदिक मैगजीन’ के नाम से निकाले उनके रिसर्च जर्नल की ख्याति देश-विदेश में फैल गई। यदि वे दस वर्ष भी और जीवित रहते तो भारतीय संस्कृति का बौद्धिक साम्राज्य खड़ा कर देते।
अत्यधिक कार्य करने व आवश्यकतानुसार विश्राम न करने आदि अनेक कारणों से आपको क्षय रोग हो गया था जिसका परिणाम 19 मार्च, सन् 1890 को लगभग २६ वर्ष की अल्पायु में आपका निधन हो गया। पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ ने 2000 ई में उनके सम्मान में अपने रसायन विभाग के भवन का नाम ‘पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी हाल’ रखा है।
कृतियाँ
संपादित करें- वैदिक संज्ञा विज्ञान (द टर्मिनॉलॅजी ऑफ वेदास्)
- ईश-मुण्डक व माण्डूक्य उपनिषदों की व्याख्या,
- इण्डियन विजडम,
- जीवात्मा की असितत्व
- सम्पादन
- वे ‘द रिजेनरेटर ऑफ आर्यावर्त’ के वे सम्पादक रहे।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "A BIOGRAPHICAL SKETCH OF PANDIT GURUDATTA (By Pt.Chamupati M.A.)". मूल से 6 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 जून 2014.
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- गुरुदत्त लेखावली (हिन्दी अनुवादक : पं० सन्तराम बी०ए० एवं पं० भगवद्दत्त बी०ए०)
- पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी
- पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी का पावन एवं प्रेरणाप्रद जीवन
- A BIOGRAPHICAL SKETCH OF PANDIT GURUDATTA