गोविन्दस्वामी वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में एक थे।[1] इनका जन्म भरतपुर के आँतरी (वर्तमान अटारी) गाँव में अगहन कृष्णा नौमी (मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष नवमी) संवत् १५६२ तदनुसार सन 1505 ई. में हुआ था। ये सनाढ्य ब्राह्मण थे, ये विरक्त हो गये थे और पहले गोकुल महावन में आकर रहने लगे बाद में जीवनपर्यंत गोवर्धन परिक्रमा मार्ग स्थित क़दमख़ंडी में रहे थे।[2] 1535 ई० में इन्होंने गोस्वामी विट्ठलनाथ से विधिवत पुष्टमार्ग की दीक्षा ग्रहण की और अष्टछाप में सम्मिलित हो गए। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अपने पदों में वर्णन किया।

गोविंद दास जी के पद

श्री वल्लभ चरण लग्यो चित मेरो।
इन बिन और कछु नही भावे, इन चरनन को चेरो ॥१॥
इन छोड और जो ध्यावे सो मूरख घनेरो।
गोविन्द दास यह निश्चय करि सोहि ज्ञान भलेरो ॥२॥
प्रात समय उठि जसुमति जननी गिरिधर सूत को उबटिन्हवावति।
करि सिंगार बसन भूषन सजि फूलन रचि रचि पाग बनावति॥
छुटे बंद बागे अति सोभित,बिच बीच चोव अरगजा लावति।
सूथन लाल फूँदना सोभित,आजु कि छबि कछु कहति न आवति॥
विविध कुसुम की माला उर धरि श्री कर मुरली बेंत गहावति।
लै दर्पण देखे श्रीमुख को, 'गोविंद' प्रभु चरननि सिर नावति॥

इनका रचनाकाल सन् 1543 और 1568 ई. के आसपास माना जा सकता है। वे कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैये थे। तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे। ये गोवर्धन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक ‘गोविन्दस्वामी की कदम्बखड़ी’ कहलाता है।

दीक्षा तथा गोवर्धन निवास

गोविंदस्वामी गानविद्या के आचार्य थे। काव्‍य एवं संगीत का पूर्ण रूप से उन्‍हें ज्ञान था। गोसाईं विट्ठलनाथ जी उनकी भक्ति-निष्‍ठा और संगीत-माधुरी से परिचित थे। यद्यपि दोनों का साक्षात्‍कार नहीं हुआ था तो भी दोनों एक दूसरे की ओर आकृष्‍ट थे। गोविंदस्‍वामी ने श्रीविट्ठलनाथ जी से संवत 1592 विक्रमी में गोकुल आकर ब्रह्मसम्‍बन्‍ध ले लिया। उनके परम कृपापात्र और भक्त हो गये। गोसाईं जी ने कर्म और भक्ति का तात्विक विवेचन किया। उनकी कृपा से वे गोविंदस्‍वामी से 'गोविंददास' हो गये। उन्‍होंने गोवर्धन को ही अपना स्‍थायी निवास स्थिर किया। गोवर्धन के निकट कदम्‍ब वृक्षों की एक मनोरम वाटिका में वे रहने लगे। वह स्‍थान 'गोविंददास की कदमखण्‍डी' नाम से प्रसिद्ध है।[3]

ब्रज महिमा का बखान

गोविंददास सरस पदों की रचना करके श्रीनाथ जी की सेवा करते थे। ब्रज के प्रति उनका दृढ़ अनुराग और प्रगाढ़ आसक्ति थी। उन्‍होंने ब्रज की महिमा का बड़े सुन्‍दर ढंग से बखान किया है। वे कहते हैं-

"वैकुण्‍ठ जाकर क्‍या होगा, न तो वहां कलिन्दगिरिनन्दिनी तट को चूमने वाली सलोनी लतिकाओं की शीतल और मनोरम छाया है, न भगवान श्रीकृष्‍ण की मधुर वंशीध्‍वनि की रसालता है, न तो वहां नन्द-यशोदा हैं और न उनके चिदानन्‍दघनमूर्ति श्‍यामसुन्‍दर हैं, न तो वहां ब्रजरज है, न प्रेमोन्‍मत्‍त राधारानी के चरणारविन्‍द-मकरन्‍द का रसास्‍वादन है।"

अष्टछाप के कवि

गोविंददास स्‍वरचित पदों को श्रीनाथ जी के सम्‍मुख गाया करते थे। भक्ति पक्ष में उन्‍होंने दैन्‍य-भाव कभी नहीं स्‍वीकार किया। जिनके मित्र अखिल लोकपति साक्षात नन्‍दनन्‍दन हों, दैन्‍य भला उनका स्‍पर्श ही किस तरह कर सकता है। गोविंददास का तो स्‍वाभिमान भगवान की सख्‍य-निधि में संरक्षित और पूर्ण सुरक्षित था। गोसाईं विट्ठलनाथ ने उन्‍हें कवीश्‍वर की संज्ञा से समलंकृत कर 'अष्‍टछाप' में सम्मिलित किया था। संगीत सम्राट तानसेन उनकी संगीत-माधुरी का आस्‍वादन करने के लिये कभी-कभी उनसे मिलने आया करते थे।

  • एक समय आंतरी ग्राम से कुछ परिचित व्‍यक्ति गोविंददास से मिलने आये। वे यशोदा घाट पर स्‍नान कर रहे थे। उन्‍होंने गांव वालों को पहचान लिया, पर वे नहीं जान सके कि गोविंदस्‍वामी वे ही हैं। उन्‍होंने गोविंददास से पूछा कि- "गोविंदस्‍वामी कहां हैं।" गोविंददास ने कहा- "वे मरकर गोविंददास हो गए।" गांव वालों ने उनका चरण स्‍पर्श किया। उनके पवित्र दर्शन से अपने सौभाग्‍य की सराहना की।

भैरव राग गायन

एक दिन गोविंददास यशोदा घाट पर बैठकर बड़े प्रेम से भैरव राग गा रहे थे। प्रात:काल के शीतल शान्‍त वातावरण में चराचर जीव तन्‍मय होकर भगवान की कीर्तिमाधुरी का पान कर रहे थे। बहुत-से यात्री एकत्र हो गये। भक्त भगवान के रिझाने में निमग्‍न थे। वे गा रहे थे-

"आओ मेरे गोविंद, गोकुल चंदा।

भइ बड़ि बार खेलत जमुना तट, बदन दिखाय देहु आनंदा।।

गायन कीं आवन की बिरियां, दिन मनि किरन होति अति मंदा।

आए तात मात छतियों लगे, 'गोबिंद' प्रभु ब्रज जन सुख कंदा।।"

भक्त के हृदय के वात्‍सल्‍य ने भैरव राग का माधुर्य बढ़ा दिया। श्रोताओं में बादशाह अकबर भी प्रच्‍छन्‍न वेष में उपस्थित थे। उनके मुख से अनायास "वाह-वाह" की ध्‍वनि निकल पड़ी। गोविंददास पश्‍चाताप करने लगे और उन्‍होंने उसी दिन से श्रीनाथ जी के सामने भैरव राग गाना छोड़ दिया। उनके हृदय में अपने प्राणेश्‍वर प्रेमदेवता ब्रजचन्‍द्र के लिये कितनी पवित्र निष्‍ठा थी।

श्रीनाथ जी के साथ सख्य लीलाएँ

  • गोविंददास जी की भक्ति सख्‍य भाव की थी। श्रीनाथ जी साक्षात प्रकट होकर उनके साथ खेला करते थे। बाल-लीलाएं किया करते थे। गोविंददास सिद्ध महात्‍मा और उच्‍च कोटि के भक्त थे। एक बार रासेश्‍वर नन्‍दनन्‍दन उनके साथ खेल रहे थे। कौतुकवश गोविंददास ने श्रीनाथ जी को कंकड़ मारा। गोसाईं विट्ठलनाथ जी से पुजारी ने शिकायत की। गोविंददास ने निर्भयतापूर्वक उत्‍तर दिया कि आपके लाल ने तो तीन कंकड़ मारे थे। श्रीविट्ठलनाथ जी ने उनके सौभाग्‍य की सराहना की।
  • भक्‍तों की लीलाएं बड़ी विचित्र होती हैं। उनको समझने के लिए प्रेमपूर्ण हृदय चाहिये। एक बार गोविंददास जी श्रीनाथ जी के साथ गुल्‍ली खेल रहे थे। राजभोग का समय हो रहा था। भगवान बिना दांव दिये ही मन्दिर में चले गये। गोविंददास ने पीछा किया। श्रीनाथ जी को गुल्‍ली मारी। प्रेमराज्‍य में रमण करने वाले सखा की भावना मुखिया और पुजारियों की समझ में न आयी। उन्‍होंने उनको तिरस्‍कारपूर्वक मन्दिर से बाहर निकाल दिया। गोविंददास रास्‍ते पर बैठ गये। उन्‍होंने सोचा कि श्रीनाथ जी इसी मार्ग से जायंगे। बदला लेने में सुविधा होगी। उधर भगवान के सामने राजभोग रखा गया। मित्र रूठकर चले गये। विश्‍वपति के दरवाजे से अपमानित होकर गये थे। भोग की थाली पड़ी रह गयी। भगवान भोग स्‍वीकार करें, असम्‍भव बात थी। मन्दिर में हाहाकार मच गया। ब्रज के रंगीले ठाकुर रूठ गये। उन्‍हें तो उनके सखा ही मना पायेंगे। विट्ठलनाथ जी ने गोविंददास की बड़ी मनौती की। वे उनके साथ मन्दिर आ गये। भगवान ने राजभोग स्‍वीकार किया। गोविंददास ने भोजन किया। मित्रता भगवान के पवित्र यश से धन्‍य हो गयी। इसी लीला पर उनका एक सुंदर पद भी है-

पोत ले भाज गयो री गँवार। खोलि किवार धँस्यो घर भीतर सिखा दिए लंगवार। कबहुँ तो निकसैगो बाहर ऐसी दउगौ मार।। गोविंद प्रभु सौं बैर करिके सुखी न सोबै यार।।


  • एक बार पुजारी श्रीनाथ जी के लिये राजभोग की थाली ले जा रहा था। गोविंददास ने कहा कि- "पहले मुझे खिला दो।" पुजारी ने गोसाईं जी से कहा। गोविंददास ने सख्‍यभाव के आवेश में कहा कि- "आपके लाला खा-पीकर मुझसे पहले ही गाय चराने निकल जाते हैं।" गोसाईं जी ने व्‍यवस्‍था कर दी कि राजभोग के साथ ही साथ गोविंददास को भी खिला दिया जाय।
  • भगवान को जो जिस भाव से चाहते हैं, वे उसी भाव से उनके वश में हो जाते हैं। एक समय गोविंददास को श्रीनाथ जी ने प्रत्‍यक्ष दर्शन दिया। वे श्‍यामढाक पर बैठकर वंशी बजा रहे थे। इधर मन्दिर में उत्‍थापन का समय हो गया था। गोसाईं जी स्‍नान करके मन्दिर में पहुंच गये थे। श्रीनाथ जी उतावली में वृक्ष से कूद पड़े। उनका बागा वृक्ष में उलझकर फट गया। श्रीनाथ जी का पट खुलने पर गोसाईं विट्ठलनाथ ने देखा कि उनका बागा फटा हुआ है। बाद में गोविंददास ने रहस्‍योद्घाटन किया। गोसाईं जी को साथ ले जाकर वृक्ष पर लटका हुआ चीर दिखलाया। गोविंददास का सखा भाव सर्वथा सिद्ध था।
  • कभी-कभी कीर्तन गान के समय श्रीनाथ जी स्‍वयं उपस्थित रहते थे। एक बार उन्‍हें श्रीनाथ जी ने राधारानी सहित प्रत्‍यक्ष दर्शन दिये। श्रीनाथ जी स्‍वयं पद गा रहे थे और श्रीराधा जी ताल दे रही थीं। गोविंददास ने श्रीगोसाईं जी से इस घटना का स्‍पष्‍ट वर्णन किया।
  • श्रीनाथ जी उनसे प्रकट रूप से बात करते थे, पर देखने वालों की समझ में कुछ भी नही आता था। एक समय श्रृंगार दर्शन में श्रीनाथ जी की पाग ठीक रूप से नहीं बांधी गयी थी। गोविंददास ने मन्दिर में प्रवेश करके उनकी पाग ठीक की। भक्तों के चरित्र की विलक्षणता का पता भगवान के भक्‍तों को ही लगता है।


गुरु विट्ठलनाथ के साथ ही लीला प्रवेश

गोविंदस्‍वामी ने गोवर्धन में एक कन्‍दरा के निकट संवत 1642 (1585 ई.) विक्रमी में अपने गुरु विट्ठलनाथ के साथ ही लीला-प्रवेश किया। उन्‍होंने आजीवन श्रीराधा-कृष्ण की श्रृंगार-लीला के पद गाय। भगवान को अपनी संगीत और काव्‍य-कला से रिझाया।

गोविंद स्वामी की कदमखण्डी - गोवर्धन परिक्रमा मार्ग [4]

आज भी श्री गोवर्धन परिक्रमा मार्ग में गोविंद स्वामी की कदमखण्डी पर भरतपुर रियासत राज्य की १२ बीघा पक्की भूमि में स्थित देवस्थान विभाग राजस्थान का सुपुर्दगी मंदिर श्री वनबिहारीजी बिराजमान हैं और यहीं पर गोविन्द स्वामी जी की बैठक मौजूद है । अष्टसखा गोविन्द स्वामी को कृष्ण के अंतरंग सखा तथा राधा जू के भाई श्रीदामा के अवतार बताया जाता है । यहीं पर भगवान श्री कृष्ण, अष्टसखा और गोविन्द स्वामी पर शोध, खोज और लेखन के लिए अष्टसखा गोविन्दस्वामी शोध संस्थान कार्यरत है ।

  1. "Google Books". Google. 8 May 2008. Retrieved 9 March 2025.
  2. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, सम्वत २०३८, पृष्ठ १२३
  3. Devpura, Bhagwati prasad (2001). गुरु-गोविंद के अनन्य उपासक - अष्टछाप कवि गोविन्द दास. Nathdwara: Sahitya mandal nathdwara. pp. 1–166.
  4. Rathi, Ramanand (December 2024- January 2025). "Hindi Buniyad- Rajasthan Hindi Granth Academy ki Mukhya patrika". December 2024- January 2025: 1–48. {{cite journal}}: Check date values in: |date= (help); Cite journal requires |journal= (help)

इन्हें भी देखें

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साँचा:विट्ठलनाथ