गौड़पाद
गौड़पाद या गौडपादाचार्य, भारत के एक दार्शनिक थे। उन्होने माण्डूक्यकारिका नामक नामक दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की जिसमें माध्यमिक दर्शन की शब्दावली का प्रयोग करते हुए अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्तों की व्याख्या की गयी है। अद्वैत वेदांत की परंपरा में गौड़पादाचार्य को आदि शंकराचार्य के 'परमगुरु' अर्थात् शंकर के गुरु गोविंदपाद के गुरु के रूप में स्मरण किया जाता है।
गौड़पादाचार्य | |
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Adi Guru Shri Gauḍapādāchārya | |
खिताब/सम्मान | founder of Shri Gaudapadacharya Math |
धर्म | हिन्दू |
दर्शन | Advaita Vedanta school of Hindu philosophy |
परिचय
संपादित करेंशुक का शिष्य होने के नाते गौड़पाद की भी उसी समय स्थिति मानी जानी चाहिए। यदि यह स्वीकार कर लिया जाय तो ईसा की आठवीं शताब्दी में उत्पन्न शंकर के गुरु गोविंदपाद के गुरु के रूप में गौड़पाद को कैसे स्वीकृत किया जा सकता है? यद्यपि पौराणिक लोग इस दोष का मार्जन करने के लिये कहते हैं कि गौड़पाद हिमालय में समाधिमग्न थे और गोविंद को "निर्माणचित्त" में उपस्थित होकर अद्वैततत्व का उपदेश दिया था। "निर्माणचित्त" की बात साधना के क्षेत्र में विश्वासों का कोई स्थान नहीं है। हाँ, इससे यह तो सिद्ध हो जाता है कि या तो गौड़पाद शुक के साक्षात् शिष्य नहीं थे या फिर वे गोविंदपाद के साक्षात गुरु नहीं थे।
गौड़पाद शुक के साक्षात् शिष्य थे या नहीं इसका निर्णय करना असंभव है। प्राचीनतर पुराणों में गौड़पाद की ऐतिहासिकता सिद्ध करना उचित नहीं जान पड़ता। यदि गोविंदपाद को गोड़पाद का साक्षात् शिष्य भी मान लें तो भी कई कठिनाइयाँ हैं। शंकराचार्य का समय प्राय: 8 वीं शताब्दी ईसवी का उत्तरार्ध माना जाता है। यदि उन दिनों के सामान्य जीवनकाल को 100 वर्ष का भी मान लें तो गौड़पाद को सातवीं शताब्दी में मानना पड़ेगा। परंतु छठी शताब्दी के एक बौद्ध आचार्य भावविवेक या भव्य ने अपने ग्रंथ माध्यमिकहृय में वेदांत दर्शन का विवेचन करते हुए गौड़पाद की एक कारिका उद्धृत की है। इससे यह ज्ञात होता है कि भव्य के पहले ही गौड़पाद वेदांत के आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अत: गौड़पाद का समय 500 ई. के आसपास होना चाहिए। यदि यह सही है तो गौड़पाद गोविंदपाद के साक्षात् गुरु नहीं हो सकते।
शंकराचार्य ने गौड़पाद को "वेदांतविद्वभिराचायैं:" कहकर स्मरण किया है। प्रो॰ वालेसर ने लिखा है कि "गौड़पाद" शब्द में प्रयुक्त "गौड़" शब्द देशपरक है, यह व्यक्तिविशेष का नाम नहीं है। अद्वैत वेदांत के दो प्रस्थान थे - पहला गौड़ प्रस्थान जो उत्तर भारत में प्रचलित था और दूसरा द्राविड़ प्रस्थान, जिसकी स्थापना स्वयं शंकर ने की। वालेसर के अनुसार "गौड़पाद" शब्द का अर्थ है - गौड़ देश में प्रचलित वेदांतशास्त्रपरक पादश्तुष्टयात्मक ग्रंथ। परंतु इस प्रकार की दूरारूढ़ कल्पना के लिये कोई दृढ़ आधार नहीं है। विधुशेखर भट्टाचार्य ने ठीक ही कहा है कि यदि हमें एक ग्रंथ प्राप्त होता है तो उस ग्रंथ का कोई ने कोई लेखक होना चाहिए। अंतरंग परीक्षा के आधार पर यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि गौड़पाद के इस ग्रंथ के चारो प्रकरण एक ही लेखक के हैं। परंपरा इस ग्रंथ के लेखक को गौड़पाद नामक व्यक्ति विशेष को ही ग्रंथ का लेखक मानना पड़ेगा।
17 वीं शताब्दी के बालकृष्णानंद सरस्वती ने "शारीरक मीमांसा भाष्य वार्तिक" नामक ग्रंथ में लिखा है कि कुरुक्षेत्र में हिरणयवती नदी के तट पर कुछ गौड़ लोग रहते थे। गौड़पाद उन्हीं में से एक थे। परंतु द्वापर के आरंभ से ही समाधिस्थ रहने के कारण उनका असली नाम लोगों को ज्ञात न हो सका। इस अनुश्रुति कि आधार पर गौड़पाद को कुरुक्षेत्र के आसपास का होना चाहिए। 'अगद्गुरु रत्नमालास्तव' नामक ग्रंथ के अनुसार गौड़पाद का ग्रीक लोगों के साथ संपर्क था। आचार्य ने इनकी पूजा की और निषाकसिद्ध अपलून्य (अपोलोनियस ऑव त्याना) इनका शिष्य था। अपोलोनियस भारत आया था या नहीं इसके बारे में ग्रीक इतिहासज्ञों में बड़ा विवाद है और अधिकांश विद्वान् मानते हैं कि अपोलोनियस कभी भारत आया ही नहीं था। इन्हीं सुनी सुनाई बातों के आधार पर ही भारत का वर्णन कर दिया था। इसके अलावा ग्रीक ग्रंथों और अपोलोनियस के भारतवर्णन में गौड़पाद का कोई उल्लेख भी नहीं मिलता।
गौड़पाद के व्यक्तित्व के बारे में इसके अलावा कि वे एक योगी और सिद्ध पुरुष थे तथा गौड़पादीय कारिकाओं के कर्ता थे, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। गौड़पादकृत कारिकाएँ हमारे सामने हैं। इन कारिकाओं को चार प्रकरणों में विभाजित किया गया है और ये एक ही व्यक्ति की कृति हैं। इसका पहला प्रकरण आगम प्रकरण कहा जाता है। इसका कारण यह है कि इस प्रकरण में मांडूक्य उपनिषद् का कारिकामय व्याख्यान उपस्थित किया गया है। आगम अर्थात् उपनिषद् के ऊपर आधारित होने के कारण इसको आगम प्रकरण कहते हैं। कुछ आचार्य इस प्रकरण की कारिकाओं को "आगम" कहते हैं और इनको गौड़पाद की कृति नहीं मानते। कभी-कभी तो इन कारिकाओं को मांडूक्य उपनिषद् के साथ जोड़ लिया जाता है। विधुशेखर भट्टाचार्य का तो कहना है कि ये कारिकाएँ पहले लिखी गईं थीं और बाद में इन्हीं के आधार पर मांडूक्य उपनिषद् की रचना हुई। पर यह मत तर्कसंगत नहीं है। इसका प्रमाण इस प्रकरण की कारिकाओं से ही मिलता है। ये कारिकाएँ व्याख्यानात्मक हैं। अत: मांडूक्य उपनिषद् ही इनसे पहले का मालूम पड़ता है। दूसरे प्रकरण में संसार की वितथता या मिथ्यात्व सिद्ध किया गया है, अत: उसका नाम वैतथ्य प्रकरण है। अद्वैत तत्व का प्रतिपादन होने के कारण तीसरा प्रकरण अद्वैत प्रकरण कहलाता है। सारे मिथ्या विवादों की शांति का प्रतिपादन करने के कारण अलातशांति कहा गया है।
विधुशेखर भट्टाचार्य का मत है कि ये चारो प्रकरण चार स्वतंत्र रचनाएँ हैं, किसी एक ग्रंथ के चार अध्याय नहीं, क्योंकि ये परस्पर संबंधित नहीं हैं। साथ ही चतुर्थ प्रकरण के आरंभ में "तं वंदे द्विपदांबरम्" कहकर बुद्ध की स्तुति के रूप में मंगलाचरण किया गया है। मंगलाचरण ग्रंथ के आरंभ में किया जाता है, बीच में प्रकरण के आरंभ में मंगलाचरण नहीं देखा गया है। अत: चतुर्थप्रकरण एक स्वतंत्र ग्रंथ है। यह मत कुछ ठीक नहीं लगता क्योंकि पहली बात तो यह है कि चारों प्रकरण एक दूसरे से संबंधित हैं। प्रथम प्रकरण में उपनिषद् के आधार पर स्थूल रूप से कुछ सिद्धांत उपस्थित किए गए हैं और दूसरे तथा तीसरे प्रकरणों में क्रमश: संसार का मिथ्यात्व तथा एक अद्वय तत्व की स्थिति का प्रतिपादन किया गया है। चौथा प्रकरण उपसंहारात्मक है जिसमें पूर्वोक्त तीन प्रकरणों में कहे गए उपनिषद् अनुमोदित सिद्धांतों का बुद्ध द्वारा उपदिष्ट सिद्धांतों से अविरोध दिखलाया गया है। इस प्रकरण के आधार पर ही भट्टाचार्य ने गौड़पाद को बौद्ध कहा है परंतु यदि एक प्रकरण के आधार पर ही उनको बौद्ध कहा जा सकता है तो पहले तीन प्रकरणों के आधार पर उन्हें महावेदांती भी घोषित किया जा सकता है।
यह सही है कि गौड़पाद के सिद्धांत बौद्धों के निकट हैं। उनका अजातिवाद माध्यमिक पद्धति पर आधारित है। इनके द्वारा प्रतिपादित आत्मा का स्वरूप योगाचारानुमत विज्ञान (आलय) की अनुकृति सा मालूम पड़ता है। उनकी तर्कपद्धति वही है जो माध्यमिक शून्यवादियों की है। उन्होंने बुद्ध का बड़ा आदर किया है। यह सब होते हुए भी गौड़पाद शुद्ध वेदांती हैं, क्योंकि -
- (1) उनका आगम में पूर्ण विश्वास है। बहुत से स्थानों पर उन्होंने बृहदारण्यक आदि प्राचीन उपनिषदों को प्रमाण रूप में उद्घृत किया है।
- (2) बौद्धसंप्रदाय में नित्य आत्मा का घोर विरोध किया गया है और उन्होंने अपने मत को "आनात्मवाद" की संज्ञा दी है। परंतु गौड़पाद का कहना है कि एक आत्मा ही जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में अवस्थि रहकर भी शुद्धत: तुरीयावस्था (चतुर्थ अवस्था) में स्थित है, जहाँ वह न तो स्वयं किसी कारण से उत्पन्न है और न किसी कार्य को उत्पन्न करती है। आत्मा का यह नित्यत्व निश्चय ही बौद्धों की स्वीकार्य नहीं हो सकता।
- (3) यही कारण है कि भावविवेक, शांतरक्षित, कमलशील आदि बौद्ध आचार्यों ने गौड़पाद का खंडन किया है। किसी भी बौद्धग्रंथ में गौड़पाद का अनुमोदन नहीं मिलता। यह सिद्ध करता है कि यद्यपि गौड़पाद ने बौद्धों की तर्कपद्धति अपनाई परंतु उस पद्धति के आधार पर उन्होंने आत्मा की अद्वैतता सिद्ध की जो उपनिषदों में प्रतिपादित की गई है।
इस प्रसंग में यह ध्यान देना अवश्यक है कि गौड़पाद न तो केवल माध्यमिक सिद्धातों के अनुयायी हैं और न शुद्धत: योगाचार दर्शन के। जहाँ उनको तर्कसगंत बात मिली, उन्होंने उसे ग्रहण किया। उन्होंने सर्वदा यह दिखाने का प्रयत्न किया कि बौद्ध विचारधारा और औपनिषदिक विचारधारा में तत्वत: कोई विरोध नहीं है। जो विरोध किया जाता है वह अज्ञानमूलक है। गौड़पाद की भारतीय दर्शन को देन है। शंकराचार्य ने इसी समन्वय के मार्ग को अपनाकर अपना अद्वैत मत प्रतिष्ठापित किया पर उनका मूल गौड़पादीय दर्शन रहा। इसी कारण गौड़पाद अपना अविरोध दर्शन प्रतिष्ठापित करने के लिये ही बुद्ध को नमस्कार करते हैं अत: यह नमस्कार मंगलाचरण के रूप में नहीं ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषय के रूप में स्वीकृत किया जाना चाहिए।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस दर्शन में तर्क को उतना स्थान नहीं दिया गया है जितना साक्षात्कार और अनुभव को। योग का मार्ग ही प्रमुख मार्ग है अत: उस मार्ग में तर्कजन्य विरोध को कोई स्थान नहीं होना चाहिए। जैसे सिद्धों- गुंडुरिपा, सरहपा आदि- के नामों के अंत में "पाद" शब्द आता है उसी प्रकार गौड़पाद के नामांत में भी पाद शब्द का प्रयोग गौड़पाद के सिद्धों के सथ संबंध की ओर इंगित करता है। सरहपाद के दोहों तथा गौड़पाद की कारिकाओं में समानता भी दर्शनीय है। हो सकता है गौड़पाद बौद्ध और बौद्धेतर र्तकसंप्रदायों के बीच की कड़ी हों।
इस कारिकाग्रंथ के अतिरिक्त सांख्यकारिका के ऊपर भाष्य भी गौड़पाद का माना जाता है। उत्तरगीताभाष्य, नृसिंहतापिनी उपनिषद् तथा दुर्गासप्तशती की टीका, सुभगोदय तथा श्रीविद्यारत्नसूत्र भी इनकी रचनाएँ कही जाती हैं।