साधारण घरेलू छिपकली
(घरेलू छिपकली से अनुप्रेषित)
साधारण घरेलू छिपकली (Common house gecko), जिसका वैज्ञानिक नाम हेमिडैक्टाएलस फ्रेनैटस (Hemidactylus frenatus) है, गेक्को छिपकलियों की एक जीववैज्ञानिक जाति है, जो भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिणपूर्वी एशिया के कई भागों में पाई जाती है। यह अक्सर मानवों के आवासों में रहती हैं। यह जाति निशाचरी है, और दिन भर छुपकर रात्रि में कीट पकड़ने के लिए निकलती है। यह विषैली नहीं होती, और इस से विपरीत प्रचलित धारणा गलत है। साधारणः यह शांत स्वभाव की होती हैं और मानवों से दूर भागती हैं, लेकिन अगर इन्हें तंग करा जाए तो स्वयं को बचाने के लिए काट सकती हैं। इनका आकार 7.5–15 सेमी (3–6 इंच) होता है, और इनका जीवनकाल लगभग 7 वर्ष तक का है। अपने कीट-नियंत्रक व्यवहार के कारण यह मानवों के लिए लाभकारी मानी जाती है।[2][3][4]
साधारण घरेलू छिपकली Common house gecko | |
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साधारण घरेलू छिपकली (आँखें बंद हैं) | |
साधारण घरेलू छिपकली की ध्वनी | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | जंतु |
संघ: | रज्जुकी (Chordata) |
वर्ग: | सरीसृप (Reptilia) |
गण: | स्क्वमाटा (Squamata) |
उपगण: | गेक्कोटा (Gekkota) |
अधिकुल: | गेक्कोनोइडेया (Gekkonoidea) |
कुल: | गेक्कोनिडाए (Gekkonidae) |
वंश: | हेमिडैक्टाएलस (Hemidactylus) |
जाति: | एच. फ्रेनैटस H. frenatus |
द्विपद नाम | |
Hemidactylus frenatus डुमेरिल व बिबरोन, 1836 | |
भौगोलिक वितरण |
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ Ota, H. & Whitaker, A.H. 2010. Hemidactylus frenatus. The IUCN Red List of Threatened Species 2010: e.T176130A7184890. https://dx.doi.org/10.2305/IUCN.UK.2010-4.RLTS.T176130A7184890.en. Downloaded on 08 June 2018.
- ↑ Gibbons, J. Whitfield; Gibbons, Whit (1983). Their Blood Runs Warm: Adventures With Reptiles and Amphibians. Alabama: University of Alabamain Press. p. 164. ISBN 978-0-8173-0135-4.
- ↑ James Macartney: Table III in: George Cuvier (1802) "Lectures on Comparative Anatomy" (translated by William Ross under the inspection of James Macartney). Vol I. London, Oriental Press, Wilson and Co.
- ↑ Alexandre Brongniart (1800) "Essai d’une classification naturelle des reptiles. 1ère partie: Etablissement des ordres." Bulletin de la Science. Société Philosophers de Paris 2 (35): 81-82