विदिशा में स्थित सिद्ध महात्माओं की तपस्थली रही,यह भूमि पर्यटन की दृष्टि से सुंदर स्थान है। एक अवधारणा के अनुसार भगवान राम के चरण पड़ने के कारण इस तीर्थ का नाम चरणतीर्थ पड़ा, लेकिन साहित्यिक प्रमाण बताते हैं कि अयोध्या से लंका जाने के मार्ग में यह स्थान नहीं था। यह धारणा पूर्णरुपेण मि है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह स्थान भृगुवंशियों का केंद्र स्थल था। इस कुंड में च्वयन ॠषि ने तपस्या की थी। पहले इसका नाम च्वयनतीर्थ था, जो कालांतर में चरणतीर्थ के नाम से जाना जाने लगा।

त्रिवेणी मंदिर के सामने नदी में ही दोनों शिव मंदिर बने हैं। एक मंदिर को नदी के कटाव से बचाने के लिए उसका चबूतरा इस प्रकार बना है कि पानी का बहाव चबूतरे के कोण को टक्कर मारकर दो धारों में विभक्त हो जाती है। भेलसा के जागीरदारों द्वारा १९ वीं सदी में बना मंदिर कोण को काटने वाला न बनाये जाने के कारण गिर चुका है।

नदी के दूसरे किनारे पर अत्यंत प्राचीन "नौलखी' है। कहते हैं कि ऊँचे टीले पर स्थित यह स्थान प्राचीन राजा रुक्मांगद का बगीचा था, जो उसने अपनी प्रयसी के विहार के लिए बनवाया था। इस बगीचे में नौ लाख घास के पूलों की नीड़ होने के कारण यह स्थान नौलखी कहलाता है।

त्रिवेणी और नौलखी के नीचे नदी बहुत गहरी है, क्योंकि यहाँ दो नदियों का संगम है। इसके ५० फीट आगे का स्थान दाना बाबा घाट कहलाता है। इसी स्थान से यक्ष व यक्षिणी की विशाल मूर्ति प्राप्त हुई है। यक्षवाली मूर्ति भारत में मिली अब तक की सबसे बड़ी मूर्ति है। इसी मूर्तियों की प्रतिकृतियाँ अभी रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया के दरवाजे के दोनों तरफ लगी हुई है।