फोर स्ट्रोक इंजन
वर्तमान युग में कारों, ट्रकों, मोटरसाइकिलों व वायुयानों आदि में प्रयोग होने वाले अन्तर्दहन इंजन प्रायः फोर स्ट्रोक इंजन होते हैं। 'चार स्ट्रोक' का मतलब है कि ईंधन से यांत्रिक उर्जा में परिवर्तन का चक्र कुल चार चरणों में पूरा होता है। इन चरणों या स्ट्रोकों को क्रमश: इनटेक, संपीडन (कम्प्रेशन), ज्वलन (combustion), एवं उत्सर्जन (exhaust) कहते हैं। ध्यान देने की बात है कि इन चार चरणों (स्ट्रोकों) को पूरा करने में क्रैंकसाशाफ्ट को दो चक्कर लगाने पड़ते हैं।
वर्तमान में गाड़ियों में सामान्यत: फोर स्ट्रोक इंजन का प्रयोग ज्यादा होता है।[1] इससे पहले गाड़ियों में टू स्ट्रोक इंजन का प्रयोग हुआ करता था, लेकिन कम माइलेज और जीवन अवधि कम होने के कारण इसका स्थान फोर स्ट्रोक इंजन ने ले लिया।
इतिहास
फोर-स्ट्रोक इंजन को सर्वप्रथम यूजेनियो बार्सांटी एवं फेलिस माटुएसी ने १८५४ में पेटेंट कराया था। इसके बाद १८६० में इसका प्रथम प्रोटोटाइप निकाला। फ्रेंच इंजीनियर अल्फोंसे बियउ दे रोका ने भी स्वतंत्र रूप से सिद्धांत अन्वेषित किया था और उसे अपने शोधपत्र में १८६१ में निकाला था। जर्मन इंजीनियर निकोलस आटो ने १८७६ में इस इंजन का कार्यशील प्रतिरूप निकाला। इस कारण ही आज फोर-स्ट्रोक सिद्धांत को ऑटो-साइकिल और इस इंजन में प्रयोग होने वाले स्पार्क प्लगों को प्रायः ऑटो इंजन कहा जाता है। ऑटो-चक्र में ऍडियाबेटिक संपीड़न, स्थिर आयतन पर ऊष्मा संयोजन, ऍडियाबैटिक विस्तार एवं स्थिर आयतन पर ऊष्मा अस्वीकृति चरण आते हैं।
चार घात (स्ट्रोक)
फोर स्ट्रोक इंजन एक पूरी साइकिल यानी एक बार में चार चार प्रक्रियाओं से गुजरता है। जिन्हें अंग्रेज़ी में स्ट्रोक कहा जाता है।
- पहला इनटेक वाल्व: जब यह खुलता है, तो यह कार्ब्युरेटर से हवा और ईंधन को खींचता है।
- दूसरा कंप्रेस साइकिल: इस में ईंधन और हवा के मिश्रण को संपीड़ित करने का काम करता है। उस दौरान इनटेक और एग्जास्ट वाल्व बंद रहता है।
- तीसरा पावर स्ट्रोक: इस प्रक्रिया में ही शक्ति उत्पन्न होती है। इसमें स्पार्क प्लग के माध्यम से ईंधन और हवा का दहन होता है।
- चौथा और अंतिम चरण एग्जास्ट साइकिल का होता है। इनकेट की प्रक्रिया के दौरान यह वाल्व खुलता है और ईंधन दहन के दौरान धक्का मिलने पर यह वाल्व काम करने लगता है और चार स्ट्रोकों की यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है।
संरचना
प्रत्येक इंजन में एक खोखला बेलन होता है, जिसे सिलिंडर कहते हैं। सिलिंडर के भीतर एक पिस्टन चलता है, जिसे हम मुषली कह सकते हैं। इस पिस्टन का काम ठीक वहीं होता है जो बच्चों की रंग खेलने की पिचकारी के भीतर चलनेवाली डाट का। पिस्टन ऐल्यूमिनियम या इस्पात का बनता है और इसमें इस्पात की कमानीदार चूड़ियाँ (rings) लगी रहती हैं, जिससे वायु या गैस, पिस्टन के एक ओर से दूसरी ओर नहीं जा सकती। सिलिंडर का माथा (head) बंद रहता है, परंतु इसमें दो वाल्व रहते हैं। एक के खुलने पर वायु, या वायु और पेट्रोल का मिश्रण, भीतर आ सकते हैं। दूसरे के खुलने पर सिलिंडर के भीतर की वायु या गैस बाहर निकल सकती है। माथे में एक स्पार्क प्लग भी लगा रहता है जिसके सिरे पर दो तार होते हैं। उचित समयों पर इन दोनों तारों के बीच बिजली की चिनगारी (स्पार्क) निकलती है, जिसका नियंत्रण इंजन के चलते रहने पर अपने-आप होता रहता है। क्रैंक का काम है पिस्टन के आगे पीछे चलने की गति को धुरी के अक्षघूर्णन में बदलता। क्रैंक के कारण पिस्टन के आगे पीछे चलने पर इंजन की धुरी (शैफ्ट) घूमती है। ईधन के बार-बार जलने से पिस्टन बहुत गरम न हो जाए इस विचार से सिलिंडर की दीवारें होती हैं और उनके बीच पंप द्वारा पानी प्रवाहित होता रहता है। मोटरकार आदि में एक के बदले चार, छह या आठ सिलिंडर रहते हैं और लोहे की जिस इष्टिका में ये बने रहते हैं उसे ब्लॉक कहते हैं।
ऊपर बताए गए वाल्व, कमानी (स्प्रिन्ग) के कारण चिपककर, वायु आदि के मार्ग को बंद रखते हैं, परंतु वाल्व कैम द्वारा उचित समय पर उठ जाता है, जिससे वायु या गैस के आने का मार्ग खुल जाता है। कैम जिस धुरी पर जड़े रहते हैं उसको कैम-धुरी (cam shaft) कहते हैं। यह धुरी इंजन से ही चलती रहती है और वाल्वों को उचित समयों पर खोलती रहती है। (कैम, इस्पात के टुकड़े होते हैं, जिनका रूप कुछ-कुछ पान की आकृति का होता है; जब कैम का चौड़ा भाग वाल्व के तने (स्टेम) के नीचे रहता है तो वाल्व बंद रहता है; जब इसका लंबा भाग घूमकर वाल्व के तने के नीचे आ जाता है तो वाल्व उठ जाता है।)
इंजन की विविध संधियों (joints) को, जहाँ एक पुरजा दूसरे पर घूमता या चलता रहता है, बराबर तेल से तर रखना नितांत आवश्यक है। इसीलिये सर्वत्र स्नेहक तेल (lubricating oil) पहुँचाने का प्रबंध रहता है। मोटरकारों में इंजन का निचला हिस्सा बहुधा थाल के रूप में होता है जिसमें तेल डाल दिया जाता है। प्रत्येक चक्कर में क्रैंक तेल में डूब जाता है और छींटे उड़ाकर सिलिंडर को भी तेल से तर कर देता है। अन्य स्थानों में तेल पहुँचाने के लिए पंप लगा रहता है।
चतुर्घात चक्रवाले इंजन का कार्यकरण
चतुर्घात चक्र (फ़ोर स्ट्रोक साइकिल) के अनुसार काम करनेवाले इंजनों में पिस्टन के चार बार चलने पर (दो बार आगे, दो बार पीछे चलने पर) इसके कार्यक्रम का एक चक्र पूरा होता है। ये चार निम्नलिखित हैं:
- (क) सिलिंडर में पिस्टन माथे से दूर जाता हैं; इस समय अंतर्ग्रहरण वाल्व (इन-टेक-वाल्व) खुल जाता है और वायु, तथा साथ में उचित मात्रा में पेट्रोल (या अन्य ईधन), सिलिंडर के भीतर खिंच आता है। इसे अंतर्ग्रहण घात कहते हैं।
- (ख) जब पिस्टन लौटता है तो अंतग्र्रहण वाल्व बंद हो जाता है; दूसरा वाल्व भी (जिसे निष्कास वाल्व कहते हैं) बंद रहता है। इसलिए वायु और पेट्रोल मिश्रण को बाहर निकलने के लिए कोई मार्ग नहीं रहता। अत: वह संपीडित (कंप्रेस्ड) हो जाता है। इसी कारण इसे संपीडन घात (कंप्रेशन स्ट्रोक) कहते हैं।
- (ग) ज्यों ही पिस्टन लौटने लगता है, स्पार्क प्लग से चिनगारी निकलती है और संघनित पेट्रोल-वायु-मिश्रण जल उठता है। इससे इतनी गरमी और दाब बढ़ती है कि पिस्टन को जोर का धक्का लगता है और पिस्टन हठात् माथे से हटता हे। इस हटने में पिस्टन और उससे संबंद्ध प्रधान धुरी (मेन शैफ्ट) भी बलपूर्वक चलते हैं और बहुत सा काम कर सकते हैं। पेट्रोल के जलने की ऊर्जा इसी प्रकार धुरी के घूमने में परिवर्तित होती है। धुरी पर एक भारी चक्का जड़ा रहता है जिसे फ्लाईहील कहते हैं। यह भी अब वेग से चलने लगता है।
- (घ) फ्लाईहील की झोंक से पिस्टन जब फिर माथे की ओर चलता है तो दूसरा वाल्व खुल जाता है। इस वाल्व को निष्कास वाल्व (एग्ज़ॉस्ट वाल्व) कहते हैं। इसके खुले रहने के कारण और पिस्टन के चलने के कारण, पेट्रोल के जलने से उत्पन्न सब गैंसे बाहर निकल जाती हैं।
अब फ्लाईहील की झोंक से फिर पिस्टन वायु और पेट्रोल चूसता है (चूषण घात), उसे संपीडित करता है (संपीडन घात), ईधन जलकर शक्ति उत्पन्न करता है (शक्ति घात) और जली गैसें बाहर निकलती हैं (निष्कास घात)। यही क्रम तब तक चालू रहता है जब तक स्विच बंद करके चिनगारियों को बंद नहीं कर दिया जाता।
इंजन को चालू करने के लिए इसकी प्रधान धुरी में हैंडिल लगाकर घुमाना पड़ता हे, या बैटरी द्वारा संचालित विद्युतमोटर से (जिसे सेल्फ स्टार्टर कहते हैं) उसे घुमाना पड़ता है। एक बार फ्लाईव्हील में शक्ति आ जाने पर इंजन चलने लगता है।
डीज़ल इंजनों में चूषण घात में पिस्टन केवल हवा खींचता है, ईधन नहीं; ईधन को शक्ति घात के आरंभ में सिलिंडर में सूक्ष्म नली द्वारा, पंप की सहायता से, बलपूर्वक छोड़ा जाता है और वह, संपीडित वायु के तप्त रहने के कारण, बिना चिनगारी लगे ही, जल उठता है।
लाभ एवं हानियाँ
- लाभ
चार स्ट्रोक इंजिन के कई लाभ होते हैं।[1] यह इंजन की शक्ति दक्षता को बढ़ाता है। इससे गाड़ी की दक्षता (माइलेज) में सुधार होता है। टू-स्ट्रोक की अपेक्षा इंजन में कम गर्मी पैदा होती है। ऊर्जा का पूरा उपयोग होने से इंजन की आयु बढ़ती है और वह धुंआ कम फेंकता है। इस प्रकार इंजन की क्षमता के साथ-साथ ही उत्सर्जन भी अपेक्षाकृत कम होता है।
- हानियाँ
टू-स्ट्रोक इंजन में क्रैक-शाफ़्ट के एक चक्कर में ही उर्जा के दोनो चक्र पूरे कर लिये जाते हैं जबकि फोर-स्ट्रोक इंजन में क्रैंक-शाफ्ट के दो चक्करों में उर्जा के चारो चक्र पूरे हो पाते हैं। इससे चतुर्घाती इंजन में बलाघूर्ण का उताचढ़ाव (या झटका) होता रहता है। चार घाती इंजनों में घूमने वाले हिस्सों की तरलता के लिए व उन्हें रगड़ और घर्षण से बचाने के लिए अलग से लुब्रीकेशन ऑयल पहुंचाया जाता है (पेट्रोल में ही नहीं मिलाया जाता)। बिना लुब्रीकेन्ट ऑयल मिले पेट्रोल में जब दहन होता है तो जो अपशिष्ट गैसे बनती है, उसमें उपस्थित जल की वाष्प सायलेंसर से गुजरते हुए उसे खराब अवश्य करती है। सायलेंसर की यह स्थिति उन वाहनों में देखने में नहीं आती, जिनमें इंर्धन के साथ ऑयल मिला होता है। इसके अलावा चतुर्घाती इंजनों में अधिक कलपुर्जे लगे होते हैं जिससे उनकी मरम्मत अधिक मंहगी पड़ती है।
ऊर्जा संतुलन
सन्दर्भ
- ↑ अ आ फोर स्ट्रोक इंजन Archived 2015-04-26 at the वेबैक मशीन। हिन्दुस्तान लाइव। ७ जनवरी २०१०