बनारस के राजा बलवंतसिंह के पुत्र राजा चेतसिंह के उत्तराधिकार ग्रहण (१७७० ई.) करने के बाद, उक्त राजस्व का अधिकार अवध के आधिपत्य से ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत ले ली गई (१७७५)।[1]

बनारस राज्य के राजा चेत सिंह का १९ वीं शताब्दी का स्केच

हेस्टिंग्ज़ ने तब

राजा चेतसिंह को वचन दिया था कि उनके नियमित कर देते रहने पर, उनसे किसी भी रूप में अतिरिक्त धन नहीं लिया जाएगा। किंतु मैसूर युद्ध से उत्पन्न आर्थिक संकट में हेस्टिंग्ज ने उनसे पाँच लाख रुपयों की माँग की (१७७८)। राजा चेतसिंह के आनाकानी करने पर हेंस्टिंग्ज ने पाँच दिनों के अंदर भूगतान की धमकी दे रकम वसूल ली। अगले वर्ष उनसे पाँच लाख की दुबारा माँग की। राजा चेतसिंह के पूर्व आश्वासन का विनम्र उल्लेख करने पर, हेस्टिंग्ज ने सक्रोध हर्जाने के रूप में बीस हजार रुपए भी साथ वसूले।

१७८० में हेस्टिंग्ज ने उतना ही धन (पाँच लाख) देने का फिर आदेश दिया। राजा चेतसिंह ने हेंस्टिंग्ज को मनाने अपना विश्वासपात्र नौकर कलकत्ते भेजा; साथ में दो लाख रुपए की घूस भी अर्पित की। हेस्टिंग्ज ने घूस तो स्वीकार करली, लेकिन भारी दंड सहित उक्त धन तीसरी बार भी वसूल किया। अब उसने राजा चेतसिंह को एक हजार घुड़सवार भेजने की फरमाइश की। राजा चेतसिंह के पाँच सौ घुड़सवार और पाँच सौ पैदल तैयार करने पर, हेंस्टिंग्ज ने पाँच लाख रुपए का जुर्माना थोप दिया। हेस्टिंग्ज के बनारस पहुँचने पर उसने राजा चेतसिंह से मिलना ही अस्वीकार नहीं किया, बल्कि उनके नम्रतापूर्ण पत्र को विद्रोहप्रदर्शन घोषित कर, उन्हें बंदी बनाने का आदेश दिया। 14 अगस्त सन् 1781 को वारेन हेस्टिंग्स एक विशाल सेना लेकर बनारस पहुंचा, उस दिन सावन का अंतिम सोमवार था और काशी नरेश राजा चेत सिंह शिवालय घाट किले पर पूजा कर रहे थे उसी समय अंग्रेजी सेना के एक दल ने किले के अंदर प्रवेश किया और उसने वारेन हेस्टिंग्स के द्वारा लिखित राजा चेत सिंह को बंदी बनाने का आदेश पढ़कर सुनाया। राजा चेत सिंह के अंगरक्षक बाबू नन्हकू सिंह ने आदेश सुनाने वाले अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट मार्क होम को मौत के घाट उतार दिया। नन्हकू सिंह ने अपनी तलवार से अंग्रेजों के मुलाजिम चेत राम और लेफ्टिनेंट स्टाकर को भी मौत के घाट उतार दिया।इसके बाद अंग्रेजों की सेना ने किले पर हमला कर दिया। राजा चेत सिंह के सैनिकों ने भी अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया। हेस्टिंग्स के निवास स्थान को घेर लिया गया। बनारस शहर में जब यह खबर फैली कि शिवालय घाट किले पर काशी नरेश राजा चेत सिंह और अंग्रेजी सेना के बीच युद्ध चल रहा, तब काशी (बनारस) की समस्त प्रजा अपने राजा को बचाने के लिए शस्त्रों के साथ युद्ध स्थल की ओर निकल पड़ीरामनगर किले से काशी नरेश चेत सिंह की सशस्त्र सैन्य टुकड़ी भी शिवालय घाट किले पर आ गई जिसने अंग्रेजी सेना को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया । काशी की प्रसिद्ध लोकगायिका दुलारी बाई ने पूरे बनारस शहर में घूम- घूमकर लोगों को अपने राजा के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। सावन के अंतिम सोमवार के दिन दुलारी बाई भी राजपरिवार के सदस्यों के साथ गंगा नदी पर स्थित शिवालय किले पर भजन गाने के लिए अन्य गायिकाओं के साथ मौजूद थी। अंग्रेजी सेना के किले में प्रवेश करने के बाद सभी गायिकाएं किसी तरह किले से बाहर निकलने में सफल हुई थी और सभी ने पूरे बनारस शहर में घूम- घूमकर इस खबर को लोगों तक पहुंचा दिया था। भारत के इतिहास में दुलारी बाई जैसी राष्ट्र भक्त गायिकाओं और नर्तकियों के अनेकों उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने ने विकट परिस्थितियों में अपने राजा और राष्ट्र के लिए लोगों को लड़ने के लिए प्रेरित किया। काशी की प्रजा ने अंग्रेजों को चुन- चुन मारना शुरू कर दिया। भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी राज्य की समस्त प्रजा ने अपने राजा के लिए हमलावर सेना के साथ युद्ध किया। 14 अगस्त से लेकर 21 अगस्त सन् 1781 के दौरान बनारस में राजा चेत सिंह की सेना - प्रजा और अंग्रेजी सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें काशी वासियों ने हर हर महादेव का उद्घोष करते हुए लगभग 205 अंग्रेजी सैनिको को मौत के घाट उतार दिया, अंग्रेजों की गोलियों से हजारों काशीवासी वीरगति को प्राप्त हुए। 50 वर्षीय बाबू बोधि सिंह ने अपने राजा को बचाने के लिए बनारस शहर में अंग्रेजों के खिलाफ लडने वाली नौजवानों की एक टुकड़ी का नेतृत्व किया था और वीरगति को प्राप्त हुए। राजा चेत सिंह के अंगरक्षक बाबू नन्हकू सिंह और बाबू बोधि सिंह हम-उम्र के थे और दोनों आपस में प्रतिद्वंद्वी का भाव रखते थे। अंग्रेजों के साथ युद्ध के दौरान बाबू नन्हकू सिंह शिवालय किले में वीरगति को प्राप्त हुए और बाबू बोधि सिंह बनारस शहर में वीरगति को प्राप्त हुए थे। हेस्टिंग्ज ने प्राणापन्न संकट में धैर्य और साहस से विद्रोह का दमन किया; यद्यपि अंग्रेजी सेना के बनारस का पूरा खजाना लूट लेने के कारण हेस्टिंग्ज के हाथ कुछ न लगा। राजा चेतसिंह अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते विजयगढ़ चलें गए विजयगढ़ से ग्वालियरअंग्रेजों के साथ युद्ध लड़ने के बाद काशी नरेश राजा चेत सिंह कुछ दिनों तक अपनी सेना के साथ अपने विजयगढ़ किले में भी रूके थे लेकिन अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई और उन्हें विजयगढ़ किले से निकलकर ग्वालियर की ओर जाना पड़ा क्योंकि मध्यप्रदेश के क्षेत्र पर उस समय मराठों का शासन था, मराठों से काशी नरेश को मदद की पूरी उम्मीद थी जिसे मराठा साम्राज्य के सिंधिया राजघराने ने पूरी तरह मदद देकर पूरा किया। सीमित शस्त्र-संसाधनों के बचे होने और युद्ध में भारी नुक़सान होने के कारण राजा चेत सिंह को बनारस छोड़कर जाना पड़ा और वें आजीवन कभी बनारस वापस नहीं आ सकें। ग्वालियर के मराठा साम्राज्य के सिंधिया परिवार ने अंग्रेजों के साथ युद्ध लड़ने के बाद काशी से विस्थापित हुए काशी नरेश महाराजा चेत सिंह को ग्वालियर किले के निकट बसने के लिए जमीन दिया और हरसंभव मदद प्रदान किया। ग्वालियर के सिंधिया राजघराने ने काशी नरेश को 50 गांवों से लगान वसूलने का अधिकार दिया, जिससे विस्थापित राजपरिवार के आय का श्रोत बना रहा। निर्वासित जीवन जीते हुए, 29 मार्च सन् 1810 इस्वी में काशी नरेश राजा चेत सिंह का स्वर्गवास हो गया। पुराने ग्वालियर शहर में काशी नरेश राजा चेत सिंह की समाधि स्थित है। ग्वालियर में आज भी काशी नरेश महाराजा चेत सिंह के वंशज परिवार रहते हैं। हेस्टिंग्ज ने बनारस की सत्ता अपहृत कर चेतसिंह के किशोरवयस्क भांजे को, यथेष्ट लगानवृद्धि के साथ सौंप दी। राजा चेतसिंह के प्रति हेस्टिंग्ज के इस लज्जाजनक दुर्व्यवहार के मूल में हेस्टिंग्ज की व्यक्तिगत प्रतिशोध की भावना निहित थी, जिसकी पार्लियामेंट में भर्त्सना हुई। 1757 इस्वी में प्लासी के युद्ध और 1764 इस्वी में बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों की जीत के बाद, उत्तर भारत में पहली बार सन् 1781 इस्वी में अंग्रेजों को किसी भारतीय राजा से इतनी बड़ी चुनौती मिली और राजा के साथ युद्ध में अंग्रेजों को करारी हार का सामना करना पड़ा, अंग्रेजी सेना का घमंड चूर-चूर हो गया था। युद्ध में अंग्रेजी सेना का भीषण संहार हुआ था जैसा कि अंग्रेजी कमांडरो ने कभी सपने में भी नहीं सोचा हो ! अंग्रेजी सेना के सेनापति वारेन हेस्टिंग्स को अपनी जान बचाने के लिए रात के अंधेरे में बनारस में स्त्री भेष धारण कर चुनार की ओर भागना पड़ा था। वामपंथी और आधुनिक इतिहासकारों ने एक महान योद्धा, संस्कृति प्रेमी और सनातन धर्म के रक्षक काशी नरेश चेत सिंह के त्याग को उचित सम्मान नहीं दिया है। ब्रिटिश गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के द्वारा अत्यधिक सैन्य बल के साथ बनारस ( काशी) पर दूसरी बार 28 अगस्त सन् 1781 इस्वी को हमला किया गया, जिसमें राजा चेत सिंह पराजित हो गए और उन्हें हमेशा के लिए बनारस से निर्वासित होना पड़ा। 28 अगस्त के दिन राजा चेत सिंह की सेना की जबाबी कारवाही में लगभग 135 अंग्रेजी सैनिक मारें गए थे। हजारों काशीवासी वीरगति को प्राप्त हुए। राजा चेत सिंह के वंशज परिवार ग्वालियर, मध्यप्रदेश में ग्वालियर किले के पास काशी नरेश की गली में पिछले 243 वर्षों से रहते हुए, काशी से निर्वासित होने के त्याग को भारतीय स्वतंत्रता सेनानी के रुप में संजोए हुए है। राजा चेत सिंह के वंशज परिवारो की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर है। इतिहासकारों ने राजा चेत सिंह के पराक्रम और त्याग को उचित सम्मान नहीं दिया। काशी के समस्त वासियों की मांग है कि बनारस में निर्मित होने वाले क्रिकेट स्टेडियम का नाम "राजा चेत सिंह अंतराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम" रखा जाए! हर हर महादेव, जय काशी।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Yang, A. A. (1989). The Limited Raj: Agrarian Relations in Colonial India, Saran District, 1793-1920.  (English में) (1st संस्करण). United Kingdom: United Kingdom: University of California Press. पपृ॰ 66–69. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780520057111.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)