जंगली भैंसा
एशियाई जंगली भैंसा (Bubalis bubalis arnee or Bubalus arnee) की संख्या आज 4000 से भी कम रह गई है। एक सदी पहले तक पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में बड़ी तादाद में पाये जाने वाला जंगली भैंसा आज केवल भारत, नेपाल, बर्मा और थाईलैंड में ही पाया जाता है। भारत में काजीरंगा और मानस राष्ट्रीय उद्यान में ये पाया जाता है। मध्य भारत में यह छ्त्तीसगढ़ में रायपुर संभाग और बस्तर में पाया जाता है। जंगली भैसे की एक प्रजााति जिसके मस्तक पर सफेद निशान होता है, पहलेे मध्यप्रदेश के वनों में भी पाई जाती थी।
जंगली भैंसा Wild water buffalo | |
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काजिरंगा, असम के जंगलों में जंगली भैंसा | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | जंतु |
संघ: | रज्जुकी (Chordata) |
वर्ग: | स्तनधारी (Mammalia) |
गण: | द्विखुरीयगण (Artiodactyla) |
उपगण: | रोमन्थक (Ruminantia) |
कुल: | बोविडाए (Bovidae) |
उपकुल: | गोवंश (Bovinae) |
वंश: | ब्यूबैलस (Bubalus) |
जाति: | B. arnee |
द्विपद नाम | |
Bubalus arnee (केर, १७९२) | |
उपजातियाँ | |
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जंगली भैंसे का विस्तार |
छ्त्तीसगढ़ में इनकी दर्ज संख्या आठ है जिन्हे अब सुरक्षित घेरे में रख कर उनका प्रजनन कार्यक्रम चलाया जा रहा है। लेकिन उसमें भी समस्या यह है कि मादा केवल एक है और उस मादा पर भी एक ग्रामीण का दावा है, कि वह उसकी पालतू भैंस है। खैर ग्रामीण को तो मुआवजा दे दिया गया पर समस्या फ़िर भी बनी हुई है, मादा केवल नर शावकों को ही जन्म दे रही है, अब तक उसने दो नर बछ्ड़ों को जन्म दिया है। पहले नर शावक के जन्म के बाद ही वन अधिकारिय़ों ने मादा शावक के जन्म के लिये पूजा पाठ और मन्नतों तक का सहारा लिया। और तो और शासन ने तो एक कदम आगे जाकर उद्यान में महिला संचालिका की नियुक्ति भी कर दी, ताकि मादा भैंस को कुछ इशारा तो मिले, पर नतीजा फ़िर वही हुआ मादा ने फ़िर नर शावक को ही जन्म दिया। शायद पालतू भैंसों पर लागू होने वाली कहावत कि भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खड़ी पगुरावै जंगली भैंसों पर भी लागू होती है।
मादा अपने जीवन काल में 5 शावकों को जन्म देती है, इनकी जीवन अवधि ९ वर्ष की होती है। नर शावक दो वर्ष की उम्र में झुंड छोड़ देते हैं। शावकों का जन्म अक्सर बारिश के मौसम के अंत में होता है। आम तौर पर मादा जंगली भैसें और शावक झुंड बना कर रहती है और नर झुंड से अलग रहते हैं पर यदि झुंड की कोई मादा गर्भ धारण के लिये तैयार होती है तो सबसे ताकतवर नर उसके पास किसी और नर को नहीं आने देता। यह नर आम तौर पर झुंड के आसपास ही बना रहता है। यदि किसी शावक की मां मर जाये तो दूसरी मादायें उसे अपना लेती हैं। इनका स्वभाविक शत्रु बाघ है, पर यदि जंगली भैंसा कमजोर बूढ़ा या बीमार हो तो जंगली कुत्तों और तेंदुओं को भी इनका शिकार करते देखा गया है। वैसे इनको सबसे बड़ा खतरा पालतू मवेशियों की संक्रमित बीमारियों से ही है, इनमें प्रमुख बीमारी फ़ुट एंड माउथ है। रिडंर्पेस्ट नाम की बीमारी ने एक समय इनकी संख्या में बहुत कमी ला दी थी।
जब धोखा खा गये कथित एक्स्पर्ट
संपादित करेंइन पर दूसरा बड़ा खतरा जेनेटिक प्रदूषण है, जंगली भैंसा पालतू भैंसों से संपर्क स्थापित कर लेता है। हालांकि फ़्लैमैंड और टुलॊच जैसे शोधकर्ताओ का मानना है कि आम तौर पर जंगली नर भैंसा पालतू नर भैंसे को मादा के पास नहीं आने देता पर स्वयं पालतू मादा भैंसे से संपर्क कर लेता है पर इस विषय पर अभी गहराई से शोध किया जाना बाकी है। मध्य भारत के जिन इलाकों में यह पाया जाता है, वहाँ की पालतू भैसें भी इनसे मिलती जुलती नजर आती है। इस बात को एक मजेदार घटना से समझा जा सकता है। कुछ वर्षों पहले बीजापुर के वन-मंडलाधिकारी श्री रमन पंड्या के साथ बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी की एक टीम जंगली भैसों का अध्ययन करने और चित्र लेने के लिये इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान पहुँची, उन्हें जंगली भैंसों का एक बड़ा झुंड नजर आया और उनके सैकड़ो चित्र लिये गये और एक श्रीमान जो उस समय देश में जंगली भैंसों के बड़े जानकार माने जाते थे, बाकी लोगो को जंगली भैंसों और पालतू भैंसों के बीच अंतर समझाने में व्यस्त हो गये तभी अचानक एक चरवाहा आया और सारी भैंसों को हांक कर ले गया।
अनुचित वृक्षारोपण
संपादित करेंमध्य भारत में जंगली भैंसों के विलुप्तता की कगार पर पहुँचने का एक प्रमुख कारण उसका व्यहवार है। जहाँ एक ओर गौर बारिश में ऊँचे स्थानों पर चले जाते हैं, वही जंगली भैंसे मैदानों में खेतों के आस पास ही रहते हैं और खेतो को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं। इस कारण गाँव वाले उनका शिकार कर देते हैं। एक कारण यह भी है कि प्राकृतिक जंगलों का विनाश कर दिया गया है और उनके स्थान पर शहरी जरूरतों को पूरा करने वाले सागौन, साल, नीलगिरी जैसे पेड़ो का रोपण कर दिया है। इनमें से कुछ के पत्ते अखाद्य है, इनके नीचे वह घास नहीं उग पाती जिनको ये खाते है, वैसे भी जंगली भैंसे बहुत चुनिंदा भोजन करती है। इस कारण भी इनका गांव वालों से टकराव बहुत बढ़ गया है।
बेरवा पद्धति और जंगल में सन्तुलन
संपादित करेंटकराव बढ़ने का एक कारण यह भी है, कि पहले आदिवासी बेरवा पद्धति से खेती करते थे। इसमे उनको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। जंगल के टुकड़े जला कर उनमे बिना हल चलाये बीज छिड़क दिये जाते थे। राख एक बेहद उत्तम उर्वरक का काम करती थी। पैदावार भी बहुत अच्छी मिल जाती थी। इसके अलावा जंगलो में कंदमूल और फ़ल भी प्रचुरता से मिल जाते थे। यदा कदा किये जाने वाले शिकार से भी उन्हे भोजन की कमी नहीं होती थी। वे खेती पर पूर्ण रूप से निर्भर नहीं थे। इसलिये वन्य प्राणियों द्वारा फ़सल में से कुछ हिस्सा खा लिये जाने पर इनमे बैर भाव नहीं आता था। और हर दो या तीन साल में जगह बदल लिये जाने के कारण पिछ्ली जगह घास के मैदान बन जाते थे। वन्य प्राणियों को चारे की कोई कमी नहीं होती थी। अतः यदा कदा किये जाने वाले शिकार से उनकी संख्या में कोई कमी नहीं आती थी।
आदिवासियों के अधिकारों का हनन वन्य जीवों के लिए बना संकट
संपादित करेंअब चूंकि आदिवासियों के पास स्थाई खेत हैं, जिनकी उर्वरता उत्तरोत्तर कम होती जाती है। और इनमे हल चलाना खरपतवार निकालना और उर्वरक डालने जैसे काम करने पड़ते है, जिनमे काफ़ी श्रम और पैसा लगता है। इसके अलावा खेतों की घेराबंदी के लिये बाँस-बल्ली और अन्य वन उत्पाद लेने की इजाजत भी नहीं है, अतः अब आदिवासी अपनी फ़सलों के नुकसान पर वन्य प्राणियों के जानी दुश्मन हो जाते हैं। इन्ही सब कारणो से जंगली भैंसे आज दुर्लभतम प्राणियों के श्रेणी में आ गये हैं।
खैर यह सब हो चुका है और इस नुकसान की भरपाई करना हमारे बस में नहीं है। लेकिन एक जगह ऐसी है जो आज तक विकास के विनाश से अछूती है। वह जगह आज भी ठीक वैसी है जैसा प्रकृति ने उसे करोड़ो सालों के विकास क्रम से बनाया है, जहाँ आज भी बेरवा पद्धति से खेती होती है और जहाँ आज भी वन भैंसा बड़े झुंडो में शान से विचरता देखा जा सकता है, जहां बड़ी संख्या में बाघ, भालू, ढोल, पहाड़ी मैना और अनेक अन्य जानवर शांति से अपना अपना जीवन यापन कर रहे हैं। जहां प्रकृति प्रदत्त हजारों किस्म की वनस्पतियाँ, पेड़ पौधे जिनमे से अनेक आज शेष भारत से विलुप्त हो चुके हैं, फ़ल फ़ूल रहे हैं।
एक प्राकृतिक स्वर्ग को नष्ट करने की साजिश
संपादित करेंकरीब 5000 वर्ग किलोमीटर के इस स्वर्ग का नाम है अबूझमाड़। ना यहाँ धुंआ उड़ाते कारखाने हैं और ना ही धूल उड़ाती खदानें और ना ही वे सड़के हैं जिनसे होकर विनाश यहाँ तक पहुँच सके। पर यह सब कुछ बदलने वाला है और कुछ तो बदल भी चुका है। यहाँ पर रहने वाले आदिवासिय़ॊं को तथाकथित कामरेड बंदूके थमा रहें हैं। हजारो सालों तक स्वर्ग रही इस धरती पर इन स्वयंभू कामरेडों ने बारूदों के ढेर लगा दिये हैं। इस सुरम्य धरती पर इन लोगो ने ऐसी बारूदी सुरंगे बिछा दी हैं, जो सुरक्षा बलों आदिवासियों और वन्य प्राणियों में फ़र्क नहीं कर सकतीं। और सबसे बड़े खेद की बात तो यह है, कि जिन योजनाओं का डर दिखा कर इन्होंने आदिवासियों को भड़्काया था, हमारी सरकार आज उन्हीं को लागू करने जा रही है। अबूझमाड़ में बिना पहुँचे और बिना कोई अध्ययन कराये यहां खदानों का आवंटन किया जा रहा है। और हमारे वंशजों की इस धरोहर को इसलिये नहीं बरबाद किया जायेगा, कि देश में लौह अयस्क की कोई कमी है, बल्कि इस अयस्क को निर्यात करके पहले ही धन कुबेर बन चुके खदानपतियों का लालच अब सारी सीमाएं तोड़ चुका है और वे इतने ताकतवर हो चुके हैं, कि अब वे नेताओं के नहीं बल्कि नेता उनके इशारों पर नाचते है। उनकी नजरों में वन्यप्राणी और आदिवासियों की कोई कीमत नहीं। प्राकृतिक असंतुलन, ग्लोबल वार्मिंग, नदियों का पानी विहीन होना और अकाल जैसे शब्दों का इनसे कोई वास्ता नहीं। जब तक दुनिया में एक भी जगह रहने लायक रहेगी तब तक इनके पास मजे से जीने का पैसा तो भरपूर होगा ही। इन्ही करतूतों से हमारे इन जंगलों में बची हुई जंगली भैंसों की आबादी भी नष्ट हो जायेगी।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करेंबाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- Wild water buffalo from https://web.archive.org/web/20101025103243/http://animalinfo.org/
- Wild water buffalo from https://web.archive.org/web/20190206225339/http://www.wildcattleconservation.org/
- Buffalo improve wildlife habitat - The Wildlife Trust of South and West Wales use the formidable beasts to help in conservation work at the 264-acre Teifi Marshes reserve; BBC, 15 फ़रवरी 2004
- "Buffaloes and wetlands" -- grazing in wetland management: A discussion from the Ramsar Forum over late March 1998