जगदीश कश्यप
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यह लेख जगदीश कश्यप (कथाकार) के बारे में भिक्षु जगदीश कश्यप के बारे में अलग से देखिये।
हिंदी के सुविख्यात लघुकथाकार जगदीश कश्यप का जन्म 1 दिसम्बर 1949 ई० को उत्तर प्रदेश के जिला ग़ज़ियाबाद में हुआ। नागरिक, कुहरे से गुज़रते हुए उनकी प्रमुख लघुकथा कृतियाँ है।
अगर सभी कुछ ठीक-ठाक रहता...समय पर होता तो जगदीश कश्यप द्वारा लघुकथाओं पर संपादित पुस्तक बीसवीं सदी और हिंदी लघुकथा इस शताब्दी के पहले ही वर्ष में पाठकों की नजर होती. संभव है तब इसका स्वरूप कुछ अलग और शीर्षक भी कुछ और ही होता। शायद बीसवीं शताब्दी की श्रेष्ठतम लघुकथाएं, अथवा शताब्दी की श्रेष्ठतम लघुकथाओं की बानगी या कुछ और. तब यह कुछ और तीखी, कुछ और धारदार, कुछ और मिर्चीली, कुछ और सजी-संवरी, कुछ और गवेष्णात्मक, कुछ और अधिक जानदार तथा कुछ और अधिक उपयोगी होती. हम इसे हिंदी साहित्य की अनमोल मणि, विश्व लघुकथा साहित्य का बेमिसाल नगीना, हिंदी लघुकथा का मानक ग्रंथ, संपादकीय चेतना की बहुमूल्य निधि कह पाते. संभावनाओं के विराट जंगल में एक दुखदायी संभावना यह भी है कि पुस्तक जैसी है, उस रूप में भी छपे बिना रह जाती. कश्यपजी की अन्य पांडुलिपियों, रचनाओं के साथ इसकी पांडुलिपि भी उनकी किसी अलमारी में पड़ी-पड़ी धूल चाट रही होती. दीमकों की भूख मिटाने, उनका वंश बढ़ाने के नाम पर यह भी कुर्बानी न हो जाती. बहरहाल एक कुटिल प्रकाशक ने इस पुस्तक की पांडुलिपि को पांच वर्ष तक अज्ञातवास में रखा तो दूसरे की तत्परता इसको पाठकों के हाथों तक पहुंचा रही है। अच्छाई और बुराई का संबंध सनातन है, इसका प्रमाण देती हुई।
वैसे जो लोग लघुकथा से परिचित हैं और जो कश्यप जी को जानते या उनका नाम ही सुन चुके हैं, उनके लिए यह कोई नई जानकारी नहीं है कि लघुकथा और जगदीश कश्यप एक-दूसरे के पर्याय रहे हैं। लघुकथाएं लिखने, उसकी विधागत साज-संवार के लिए उन्होंने अपनी अनगिनत रातें काली की थीं। इसी के लिए हजारों बार बच्चों की शिकायतें, पत्नी की झिड़कियां, रिश्तेदारों की खटपट भी उन्हें सहनी पड़ी होगी। लघुकथा के कारण ही उन्हें भरपूर प्रसिद्ध, पाठकों का प्यार-दुलार, सहयोगियों की मैत्री प्राप्त हुई, तो इसी के कारण उन्हें दुश्मनों की अदावत भी झेलनी पड़ी. और हां, लघुकथा के ही माध्यम से उन्हें खलील जिब्रान का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, जिसने उनको स्वभाव से अक्खड़ और फक्कड़ बनाया। उनकी कलम को नए तेवर दिए और स्थितियों को गहराई से परखने का सलीका भी. यह बात अलग है कि अपने गुरु जैसी दार्शनिकता तथा सुतीक्ष्ण भाववोध वे अपनी रचनाओं में कभी नहीं ला सके। इसके कई कारण हो सकते हैं, जिनमें सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ लेखकीय क्षमता भी सम्मिलित है। संभवत: जीवनसंघर्ष ने उन्हें खुद को अधिक तराशने का अवसर ही नहीं दिया हो अथवा प्रारंभिक सफलताओं ने उनका दिमाग इतना ऊंचा उठा दिया हो, जहां आलोचनाओं का धैर्यपूर्वक, युक्तियुक्त जवाब देने के बजाय, उग्रता दिखाकर संवाद की सारी संभावनाओं को खारिज कर दिया जाता है। इस कमजोरी का शिकार अकेले जगदीश कश्यप ही नहीं रहे, बल्कि जिन लोगों के कंधों पर सवार होकर लघुकथा आंदोलन अपने शिखर को छूना चाहता था, उन सभी की नियति लगभग ऐसी ही थी। सभी अपने-अपने मंडल के मसीहा, स्वयं को अपनी कक्षा का मार्तंड समझने वाले थे।
जगदीश कश्यप के मामले में यह अलग किस्सा हो सकता है कि उनकी धारदार लेखनी की मार से तिलमिलाए, कागजी लेखकों ने साहित्यिक आलोचना को भी व्यक्तिगत स्तर पर लिया, दोनों ओर से ही फिजूल की लफ्फाजी, अदालतों के चक्कर, रचनात्मकता का दुरुपयोग, संवेदनाओं का मखौल, गुटबंदी और साहित्यिकता के नाम पर निखालिस राजनीति बरसों-बरस चलती रही, जिसको साधारण पाठक किंचित आश्चर्य और गहरे अवसाद के साथ देखता रहा। परिणाम यह हुआ कि जिन लोगों के कंधों पर चढ़कर लघुकथा आंदोलन परवान चढ़ा था, उन्हीं की जिद, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं, कुंठाओं और अदावतों ने इस आंदोलन को दुबारा जमीन पर लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह भी समय से बहुत पहले. सिवाय छिटपुट आलेखों के, लघुकथा समीक्षा के क्षेत्र में, आंदोलन की और कोई उपलब्धि नहीं कही जा सकती. इसका भी अधिकांश एक-दूसरे की आलोचना-प्रत्यालोचना से भरा पड़ा है। हिंदी साहित्य में यह अपनी किस्म का शायद अकेला उदाहरण है। तो भी इस बात पर सभी सहमत होंगे कि जगदीश कश्यप ने अपना संघर्ष और सृजनात्मकता से भरे कई महत्त्वपूर्ण वर्ष लघुकथा को समर्पित कर दिए। उन्होंने लघुकथा के रचनात्मक पक्ष को संवारने के साथ-साथ उसकी अवधारणा को स्पष्ट करने में भी अपना मौलिक योगदान दिया। जगदीश कश्यप ने हिंदी को न केवल कई नायाब लघुकथाकार दिए। साथ ही दूसरी विधाओं में जमे-जमाए लेखकों से भी उन्होंने लघुकथाएं लिखवाईं, उनके काम को रेखांकित करने का कार्य किया, तो उनके पराक्रम के ऐसे भी उदाहरण हैं, जब अपनी आलोचना न झेल पाने के कारण कई साहित्यकार लघुकथा के क्षेत्र से पलायन करते हुए नजर आए। वे तब भी उन्हें कोसते थे और आज भी अपनी नाराजगी के तीर-कमान उनकी ओर ताने रहते हैं या उनके नाम को लेकर घड़ी-घड़ी बुदबुदाने लगते हैं। यह जानते हुए भी कि वे अब इस दुनिया, यहां के राग-विराग से बहुत दूर जा चुके हैं।
इस बात को जगदीश कश्यप के आलोचक भी शायद ही नकार पाएं कि हिंदी लघुकथा काल का स्वर्णकाल कि लघुकथा आंदोलन का सर्वाधिक ऊर्जावान दौर वही था, जब जगदीश कश्यप उसमें सक्रिय थे। जैसे ही वे उदासीन हुए, अपनी कुंठाओं के कारण अथवा किसी और दबाव से उनकी कलम की धार कुंठित हुई, तो लघुकथा आंदोलन की गर्माहट भी जाती रही। उसकी तेजस्विता गायब हो गई। स्वयं जगदीश कश्यप ने इस त्रासदी को दोहरे स्तर पर भोगा. एक तो न लिख पाने का मलाल, जिसने उन्हें भीतर ही भीतर तोड़कर रख दिया था और दूसरा लघुकथा आंदोलन के अपने लक्ष्य से भटक जाने की पीड़ा, जिससे लघुकथा के समीक्षाशास्त्र के विकास को लेकर जो तत्परता उन दिनों दिख रही थी, वह अलग-अलग आलेखों में व्यक्त छुट-पुट विचारों से आगे नहीं बढ़ सकी। और तो और इन यत्र-तत्र बिखरे हुए विचारों का सलीके से संयोजन कर किसी तार्किक परिणति पर पहुंचने का काम भी नहीं हो पाया। सच यह भी है कि जगदीश कश्यप के रहते लघुकथा के प्रति जितनी गंभीरता के साथ उनका नाम जुड़ा, उतना शायद ही किसी और लघुकथाकार का जुड़ सका, कम से कम पश्चिमी उत्तरप्रदेश और दिल्ली परिमंडल में तो कोई भी नहीं; यद्यपि संख्या की दृष्टि से उन्होंने ज्यादा लघुकथाएं नहीं लिखीं. ना ही लघुकथा के समीक्षाशास्त्र पर उन्होंने बहुत उल्लेखनीय कार्य किया है, जो इस क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हो सके। तथापि जो किया उससे उनकी लेखकीय ईमानदारी और अभिव्यक्ति की मौलिकता सिद्ध होती है।
लघुकथा के क्षेत्र में जगदीश कश्यप का योगदान लघुकथा की मौलिक अवधारणा को लेकर है। उनसे पहले तक लघुकथा अपनी पहचान के लिए संघर्ष करती आ रही थी। लघुकथा के आकार-प्रकार को लेकर जब बहुत अधिक सवाल उठने लगे तो उन्होंने रचनात्मक लेखन के साथ लघुकथा के समीक्षाशास्त्र पर भी काम करना प्रारंभ कर दिया। उन दिनों लघुकथा और कहानी के वैभिन्न्य को दर्शाने के लिए अधिकांश विद्वान शब्द संख्या को आधार बना रहे थे। जगदीश कश्यप ने लघुकथा की गुणात्मक विशेषताओं पर जोर दिया, जो कहीं अधिक तार्किक था। जिसे कालांतर में सभी ने स्वीकारा भी. जो हो जगदीश कश्यप ने लघुकथा के आकलन के लिए जो कसौटी विकसित की, उसपर सबसे पहले अपनी ही रचनाओं को कसा. और जो रचनाएं उन्हें उस कसौटी पर कमजोर पड़ती दिखाई दीं, उन्हें अपने रचनाक्षेत्र से निर्ममतापूर्वक बेदखल कर दिया। निकाली गई लघुकथाएं आज उनके किसी भी लघुकथा संकलन में नहीं है। जो व्यक्ति अपनी रचनाओं के प्रति इतना निर्मम हो सकता है, वह दूसरों को क्यों बख्शने लगा. सो उन्होंने कठोरतापूर्वक अपनी कसौटी पर दूसरों की लघुकथाओं को कसना प्रारंभ कर दिया। यह काम विवादों को जन्म देने वाला था, इसलिए उन संपादकों ने उस समय जगदीश कश्यप को खूब उकसाया जो अपनी विवादप्रयिता या चौंकाऊं पत्रकारिता के माध्यम से स्वयं को किसी न किसी बहाने चर्चा में बनाए रखना चाहते हैं। ऐसे संपादकों ने उन्हें अपनी पत्रिकाओं और साप्ताहिकों के कालम सौंप दिए। बस यहीं से उनके जीवन में विवादों का प्रवेश होने लगा. हो सकता उस समय उनके मन में स्वयं को मसीहा मानने का गुमान भी पनपा हो। लेकिन इसके लिए जगदीश कश्यप के साथ-साथ वे संपादक-पत्रकार भी दोषी थे, जो उन्हें उकसाकर बड़ी चतुराई से उनका इस्तेमाल कर रहे थे।
जगदीश कश्यप जैसे ईमानदार और सपाटबयानी करने वाले के लिए समीक्षा का क्षेत्र ज्यादा मुफीद नहीं कहा जा सकता. खासकर ऐसे माहौल में जहां लेखक ही समीक्षक और समीक्षक रचनात्मक लेखक होने का भ्रम पाले हुए हों. जहां वस्तुनिष्ठता का अभाव हो तथा लघुपत्रकिाओं से आगे समीक्षा की स्थिति बहुत संतोषजनक न हो। जहां समीक्षाकर्म का आशय एक-दूसरे की कमर खुजाने तक सीमित हो, जहां संवेदनाएं राजनीति की तराजू पर तौली जाती हों. कश्यप जी जैसे मुंहफट लेखक के लिए तो हरगिज नहीं. यहां वही नामवरी गांठ सकता है जिसकी प्रतिबद्धता हर रोज रंग बदलती हो। जो जिस मंच पर भी जाए, जिसका खाए, उसी का गुणगान करे, उसी की आरती उतारे. लघुकथा के क्षेत्र में कश्यप जी की ख्याति इसलिए भी है कि उन्होंने उस समय लघुकथाएं लिखनी शुरू कीं जब उसे विधा के रूप में मान्यता नहीं थी, उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ इस विधा को अपनाया. हालांकि इस बीच भ्रम के शिकार वे स्वयं भी रहे। इनमें सबसे अधिक संशय इस नई विधा के नाम को लेकर भी था। लघुकथा आंदोलन के प्रारंभिक चरण में इस नई, तीखी और तेजतर्रार विधा को नए-नए नामों से नवाजा जा रहा था। कोई इसे लघुकहानी नाम देना चाहता था तो कुछ कथिका, लघुव्यंग्य, कहानी से अलग विधा, मिनीकथा, व्यंग्यकथा आदि नामों से नवाज रहे थे। स्वयं कश्यप जी इस बारे उतने निश्चित नहीं थे। उन्होंने अंग्रेजी शार्ट स्टोरी की तर्ज पर ‘मिनीकथा’ नाम भी मंजूर किया था। अपनी पत्रिका को ‘मिनीयुग’ नाम भी उन्होंने इसी अवधारणा के साथ दिया था। किंतु वक्त के साथ-साथ बाकी नाम पीछे छूटते चले गए और लघुकथा नाम को सबकी मान्यता मिल गई। लघुकथा आंदोलन की सफलता यह रही कि धीरे-धीरे लघुकथा नाम सबकी जुबान पर चढ़ता गया और बाकी नाम काफी पीछे छूटते चले गए। इसके फलस्वरूप वे लोग जो इस विधा को नया नाम देने का श्रेय लेना चाहते थे, ठंडे पड़ते चले गए। इसका किंचित श्रेय हम कमलेश्वर और रमेश बत्तरा को भी दे सकते हैं, सारिका का लघुकथा विशेषांक निकालकर उन्होंने अनजाने ही नाम को लेकर होने वाली राजनीति तथा निरर्थक बहसों की हवा निकाल दी थी।
साहित्य में जगदीश कश्यप का पदार्पण भी उस समय के दूसरे साहित्यकारों की तरह कविता के माध्यम से ही हुआ था। जिन दिनों वह साहित्य के क्षेत्र में आए, निश्चित रूप से वह समय लघुकथा का नहीं था। वह हिंदी की सम्मानित विधा तो हरगिज नहीं थी, बल्कि उसे विधा मानने वालों का सिरे से अभाव था। अधिकांश तो उसको विधा मानने से भी इंकार करते थे। फिर कौन सी ऐसी बात रही होगी जो उन्हें लघुकथा के क्षेत्र में लाई. जिसके कारण वह इतनी गंभीरता के साथ लघुकथा से जुड़ सके। इस बारे में उन्होंने स्वयं तो कुछ भी नहीं लिखा. मगर अपने समर्पण और संघर्ष से वे लघुकथा को साहित्य का वैकल्पिक प्रवेशद्वार बनाने में कामयाब रहे थे। अनेक साहित्यकारों ने साहित्य में पहली दस्तक लघुकथा के माध्यम से दी। निश्चित रूप से उस आंदोलन में जगदीश कश्यप अकेले नहीं थे। कोई भी आंदोलन किसी अकेले के कंधों पर चलकर कामयाबी नहीं पा सकता. पृथ्वीराज अरोड़ा, सतीशराज पुष्करणा, रमेश बत्तरा, बलराम, सतीश दुबे, सुकेश साहनी जैसे अनेक प्रतिबद्ध लघुकथाकारों के नाम मेरी स्मृति में आ रहे हैं, जो कहीं पर उनके सहयोगी की भूमिका निभा रहे थे तो कहीं पर उनकी भूमिका समानांतर आंदोलन के वाहक की थी। ये सभी लघुकथा में रचनात्मक लेखन के साथ-साथ उसके समीक्षाशास्त्र को विकसित करने का काम भी कर रहे थे। यानी लघुकथा की अवधारणा को तय करने, उसके लिए नए मापदंड बनाने के काम को लेकर एक स्पर्धा का वातावरण उन दिनों बना हुआ था, जो स्वाभाविक ही था। लघुकथा के प्रति समर्पण, ईमानदार तथा अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण उनका इस आंदोलन में दबदबा भी रहा।
रहा अभिव्यक्ति के लिए केवल लघुकथा को माध्यम बनाने का कारण? इसके सूत्र उनके जीवन से तलाशने का प्रयास किया जा सकता है। जगदीश कश्यप के जीवन को देखें तो वहां केवल संघर्ष और अस्थिरता का वातावरण दिखाई पड़ता है। ध्यान रहे कि अस्थिरता किसी भी व्यक्ति को ठहरकर सोचने और फिर उसपर अमल करने का अवसर नहीं देती. परिवार में अशांति, फिर पढ़ाई के लिए संघर्ष ...कुछ मित्र इसका जिक्र छिड़ने पर एक शब्दबिंब का सहारा लेते हैं।... संकरी गली में एक छोटी-सी कोठरी. जिसमें बामुश्किल एक चारपाई की जगह है। किताबों और पत्र-पत्रिकाओं को सहेजने के लिए चारपाई के बराबर में ही एक स्टूल की जगह और निकाली गई है। दिन में काम करना, लिखना-पढ़ना है, मित्रों को बैठने के लिए भी ठिकाना चाहिए, इसीलिए सवेरा होते ही चारपाई कमरे से बाहर ठेल दी जाती है और फर्श पर ही कपड़ा बिछा दिया जाता. जिससे पालथी मारकर बैठने और काम करने लायक जगह निकल आती. यदि किसी मित्र या रिश्तेदार को आना है तो उसे फर्श पर ही बैठना होगा। वैसे भी एक बेरोजगार युवक से जिसने जैसे-तैसे बी. ए. की परीक्षा पास की है और अब अकेले अपने दम पर एम. ए. में बैठने की तैयारी कर रहा है, मिलने कौन आना चाहेगा. सिवाय उसी के जैसे बेरोजगारों, फ़ाकामस्त लोगों के। उनके लिए वह फर्श और फर्श पर बिछा टाट का वह मामूली टुकड़ा भी किसी रेशमी कालीन से कम नहीं था। उसी पर विराजमान एक ठिगना, श्यामले वर्ण का युवक गर्दन झुकाए, पत्र-पत्रिकाओं पर पेन से निशान लगाता, उनकी कटिंग्स, पाठकों-प्रशंसकों के पत्रों को यत्न पूर्वक सहेजता रहता है। उसी कमरे में विवाद पनपते हैं तो उसी के दायरे में उनके समाधान भी खोज लिए जाते हैं। एक टूटी-सी साइकिल भी है, जिसपर चढ़कर वह अकेला या किसी मित्र को लेकर निकल जाता है। लेखकों-पाठकों से मिलने या पत्रिकाओं के लिए चंदा बटोरने. जिस जमाने की यह कहानी है उसमें किशोरावस्था बीतते ही विवाह हो जाना बड़ी बात नहीं. मगर वह इस बात पर शुक्र मनाता है कि अभी तक इस झंझट से दूर है। घर में भी शांति नहीं, इसलिए उसके रात और दिन इसी कोठरी के साथ बंधे हुए हैं। जब और कहीं कुछ करने को न हो तो लेखकीय जुनून वक्त बिताने का अच्छा माध्यम तो बन ही जाता है, जिसके माध्यम से अपने आक्रोश को ढकने का काम किया जा सकता है। जगदीश कश्यप की युवावस्था का यह बिंब मुझे इतने लोगों ने कई-कई बार दिखाया है कि अब तो अपनी ही आंखों में बसी किसी तस्वीर जैसा महसूस होता है। जाहिर है कि उस युवक को अपने वर्तमान में कुछ नजर नहीं आता. परिस्थितियां उसके मन में आक्रोश को भड़काती हैं। ऐसे में खलील जिब्रान उसको दिशा देते हैं।..कि उसके गुस्से को सहलाते...हौसले को बढ़ाते हैं। वह स्थितियों के प्रामाणिक भावचित्र खींचता है, उसमें अपने जीवन की तल्खी को उंडेल देता है। कलम को हथियार बनाकर लड़ना उसने खलील जिब्रान से ही सीखा है। वह इस बात से इंकार भी नहीं करता. खलील जिब्रान ही हैं जिनकी प्रेरणा उससे सरस्वतीपुत्र, ब्लैकहार्स, वर्षादान, दर्पकाल, आखिरी खंबा जैसी लघुकथाएं लिखवा ले जाती है। लेकिन जगदीश कश्यप, सिर्फ जगदीश कश्यप हैं, खलील जिब्रान नहीं. न उनकी परिस्थितियां और पारिवारिक जिम्मेदारियां उन्हें इसका अवसर देते हैं। हां, उसे जीने का प्रयास वे आजीवन करते रहे। इसी कोशिश में उन्होंने न जाने कितनों की दुश्मनी मोल ली। वैर-भाव साधा. यहां तक कि मुकदमे भी लडे़.
जीवन के लंबे संघर्ष, पराजयों, अभावों तथा लंबी निराशा ने ही संभवत: उन्हें साहित्य की शरण में जाने को मजबूर किया होगा। उसी दौर में उनका साक्षात किसी मोड़ पर खलील जिब्रान से हुआ होगा। वही उनके जीवन का परिवर्तनकारी दौर सिद्ध हुआ, खलील जिब्रान एक बार जो उनके दिलो-दिमाग पर सवार हुए, फिर जिंदगी-भर नहीं उतरे. किंतु उनके जैसी जीवन की तल्खी, भावप्रवणता और गहन दार्शनिकता को किसी बड़ी रचना में संभाल पाना आसान नहीं था। और अगर संभाला भी जाए तो उसके लिए पाठकों की समस्या होती. शायद इसीलिए स्वयं खलील ने भी छोटी रचनाएं लिखी थीं, जो एक तरह से गद्यगीत हैं। यह एक सूत्र था जिसने जगदीश कश्यप के लेखन को दिशा दी। और जिसे आगे चलकर उन्होंने एक आंदोलन के रूप में अपनाया.
एक बात जो जगदीश कश्यप को अपने समकालीन लघुकथाकारों से अलग सिद्ध करती है, वह यह है कि उन्होंने जैसा सोचा उसे उसी ईमानदारी और बेबाकी के साथ शब्दों में भी व्यक्त किया। कभी परिणाम की परवाह नहीं की। सरकारी नौकरी में रहते हुए सरकार की नीतियों के विरोध में आग उगली. छद्म नाम से स्थानीय अखबारों में लिखा. उनकी टिप्पणियों से बावेला मचा। अखबार के संपादक जो उन टिप्पणियों को मजे ले-लेकर छापते और उनके माध्यम से दबाव बनाने की राजनीति करते थे, खुद पर दबाव आया तो पसीना-पसीना हो गए। गाज कश्यप जी पर गिरी. नतीजा सस्पैंड हुए...जिस महकमे में नौकरी में थे, वहां पर रहना भाग्यशाली होने का प्रमाण होता। नया आया रंगरूट भी साल-भर में अपना स्कूटर तथा पांच-छह साल में अपना मकान खरीद लेता. कश्यप जी जिंदगी-भर एक टूटी-पुरानी साइकिल पर चलते रहे। घर वे सांस रहने तक नहीं खरीद पाए. और जब गए तो सिर पर कर्ज की गठरी लादे हुए. शराब का शौक जरूर था पर कर्ज का कारण मित्रों-सहयोगियों को दिया गया कर्ज था। मदद करना उनके स्वभाव का हिस्सा बन चुका था। एक और उदाहरण इसी पुस्तक के संपादन के साथ जुड़ा हुआ है। जिस समय इस पुस्तक के लिए रचना संचयन का कार्य चल रहा था, तब बीच में एक लघुकथा एक ऐसे साहित्यकार की आ गई, जिसके साथ कश्यप जी का झगड़ा चलता आ रहा था। दोनों के बीच लंबी मुकदमेबाजी भी हो चुकी थी। उस समय हम दोनों के अतिरिक्त वहां पर सुभाष चंदर भी थे। हम सोचते थे कि कश्यपजी उस लेखक की रचना को तो लेने वाले हरगिज नहीं हैं। किंतु हैरानी तक हुई जब कश्यपजी ने उस लेखक की लघुकथा न केवल अपने संकलन में सम्मिलित की साथ में यह टिप्पणी भी कि वह आदमी हालांकि आदमी गंदा है, लेकिन उसका काम उसे इस पुस्तक में शामिल करने का हकदार बनाता है। एक और लघुकथाकार की रचना की भी उन्होंने मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी, संयोगवश वह भी उनके विरोधी खेमे का था। विसंगति देखिए कि जब उस लघुकथाकार ने लघुकथाओं का एक संकलन तैयार किया तो जगदीश कश्यप का उसमें नाम तक नहीं था। कहने का मतलब यह है कि उनके योगदान को खारिज करने की राजनीति बहुत पहले ही प्रारंभ हो चुकी थी। ध्यान रहे कि इन रूठे हुए लेखकों में से अधिकांश वही थे जिनकी रचनात्मकता पर सवाल खड़े करने का दुस्साहस जगदीश कश्यप ने किया था। पृथ्वीराज अरोड़ा को संबोधित एक पत्र उनके पूरे व्यक्तित्व का आईना हो सकता है। यह पत्र: कथासंसार के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है। पत्र में व्यक्तित्व की तरलता और उसका खुरदरापन साफ नजर आता है। पत्र में कश्यप जी लिखते हैं-
प्रिय अरोड़ा,
नववर्ष की वधाई, तुम्हें नहीं भाभी और बच्चों को। कारण तुम स्वयं में ही स्पष्ट नहीं हो।
तुम्हारा तीन न तेरह संग्रह मेरे सामने है। (तुमने नहीं भेजा- मैंने खरीदा है)। फिलहाल मिनीयुग के आखिरी दशक विशेषांक में जुटा हूं. इस संग्रह में तुमने कई भयंकर गलतियां की हैं। आत्रेय से साक्षात्कार (पूर्व प्रकाशित का पुन: प्रकाशन)। फोटो तूने अच्छी नहीं छपवाई.
आखिर तू चाहता क्या है? रमेश बत्तरा मर गया, मेरा भाई- मैं उसपर किताब निकाल रहा हूं. यह पहला पत्र पिछले छह साल में मैं तुझे लिख रहा हूं. आत्रेय की ‘21 जूते’ कौन से सन में निकली? कितनी रचनाएं हैं और कौन प्रकाशक, कितने पृष्ठ एवं कितनी रचनाएं हैं लिखना.
पृष्ठ 17 पर तूने अपने संग्रह में अशोक भाटिया, डॉ॰ शमीम शर्मा को गंभीरतापूर्वक काम करते हुए लघुकथा में लिखा है। शमीम शर्मा का नाम तू कोट करे, यही बात तेरे से घृणा करने के लिए बहुत है।
फिलहाल वेदकाल से लेकर 1989 का इतिहास लिख चुका हूं. पर तुझसे बहुत नाराज हूं. यद्यपि 1997 में तेरे प्रकाशित लघुकथा को इतिहास में शामिल करना मेरी मजबूरी है।...जगदीश कश्यप.
पत्र से हम जान सकते हैं कि ऊपर से मुंहफट और बैलोस दिखने वाला वह इंसान भीतर से गंगाजल जैसा ही पवित्र था। यह पत्र बाद के वर्षों में जगदीश कश्यप की डगमगाती मनोदशा की सही-सही तस्वीर दर्शाने को भी पर्याप्त है। इसमें वे दावे में हैं जो वे न लिख पाने की पीड़ा से गुजरते हुए, कभी मिनीयुग का अगला अंक निकालने तो कभी नए उपन्यास पर काम करने के बहाने करते रहते थे। इसमें उनकी साफगोई भी है जो अपनी तल्खी में शालीनता की हदें पार करती हुई नजर आती थी। किंतु इसमें सबसे ज्यादा और महत्त्वपूर्ण है, उनकी लेखकीय ईमानदारी. सत्य की स्थापना के लिए यही अनिवार्य तत्व है। यही किसी भी सच्चे आलोचक, सच्चे साहित्यकार की पहचान हो सकती है।
जगदीश कश्यप अपने लेखकीय जीवन में प्रारंभ से लेकर अंत तक लघुकथा के प्रति समर्पित रहे। उन्होंने विश्वासपूर्वक कविता मंचों से लघुकथा पाठन की शुरुआत की, जिसे भरपूर सराहना मिली। अपनी विधा के प्रति इतना इतना अनुराग, इतना समर्पण विरले साहित्यकारों में ही देखने को मिलता है। विडंबना यह है कि हमारा साहित्य-समाज लघुकथा के क्षेत्र में जगदीश कश्यप योगदान को समझने में ही असमर्थ रहा। लघुकथा के इधर जो संकलन उन ‘महान’ लघुकथाकारों ने संपादित किए हैं, उनमें जगदीश कश्यप के नाम का उल्लेख तक न होना जहां उन साहित्यकारों की मानसिकता को दर्शाने के साथ-साथ साहित्य के नाम पर चलने वाली गंदी राजनीति की ओर भी इशारा करता है, जिसका सबसे अधिक नुकसान साहित्य और उसके माध्यम से समाज को ही उठाना पड़ता है। भटका हुआ साहित्य समाज का नेतृत्व करने, किसी भी प्रकार का आदर्श स्थापित करने में असमर्थ रहता है, परिणामत: ऐसे लोगों की बन आती है जो समाज को विवेकशूण्य बनाकर अपना स्वार्थ-साधन करना चाहते हैं।
मेरी निगाह में जगदीश कश्यप उन चंद गिने-चुने साहित्यकारों में थे, जिन्होंने हिंदी लघुकथा को समृद्ध करने, उसे स्वतंत्र विधा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए अथक संघर्ष किया। एक समर्पित सेनानी की तरह वे जुटे रहे-आजीवन, करते रहे लघुकथा आंदोलन का नेतृत्व. अपनी रचनात्मक प्रखरता का परिचय देते हुए उन्होंने अनूठी लघुकथाएं लिखीं, अच्छी लघुकथाओं को चिन्हित किया।..उनके रचनाकारों को जी खोलकर सराहा तो नकलची और गैरजिम्मेदार लघुकथाकारों को बिना लाग-लपेट के फटकारा भी. इसके लिए कोई उन्हें लघुकथा का पहरुआ कहता है तो कोई लघुकथा का लठैत. सच तो यह है कि वे जब तक जिये, लघुकथा का पर्याय बनकर रहे। ‘आलोचकों के मजार नहीं बनते’µउनका यह सूत्र वाक्य उन्हें निस्पृह संघर्ष की प्रेरणा देता रहा। खलील जिब्रान को अपना साहित्यिक गुरु मानने वाले जगदीश कश्यप को अपनी साफगोई और बेबाक टिप्पणियों के लिए चौतरफा आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा. बावजूद इसके लघुकथा लेखन-समीक्षा के लिए उन्होंने जो कसौटी विकसित की उसे उनके विरोधियों ने भी किसी न किसी रूप में स्वीकारा. जिन्होंने नहीं स्वीकारा, वे कोई मौलिक विकल्प देने में असमर्थ रहे। जगदीश कश्यप की रचनात्मक प्रखरता का अनुमान केवल इसी से लगाया जा सकता है कि यदि हिंदी की पचास श्रेष्ठतम लघुकथाओं का संकलन तैयार किया जाए तो उसमें चार-पांच लघुकथाएं उन्हीं कश्यप की होंगी और यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।
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