जटावर्मन् कुलशेखर पाण्टियऩ्
जटावर्मन् कुलशेखर पाण्ड्य प्रथम (तमिल : முதலாம் சடையவர்மன் குலசேகரன் / मुतलाम् चटैयवर्मऩ् कुलचेकरऩ्) पाण्ड्य राजवंश का शासक था जिसने दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों पर ११९० से १२१६ ई तक शासन किया। वह संभवत: विक्रम पांड्य का पुत्र था और उसके पश्चात् सिंहासन पर बैठा। यह 'राजगंभीर' के नाम से भी विख्यात था।
परिचय
संपादित करेंजटावर्मन् कुलशेखर पांड्य प्रथम के अभिलेख, मदुरा, रामनाड और तिरुनेल्वॆलि से प्राप्त हुए हैं। जेतुंगनाडु का तिरुवंडि नरेश उसका सामंत था। इसने कोदै रविवर्मन् से, जो चेरवंशीय नरेश था, वैवाहिक संबंध किए थे। उसने चोलों की प्रभुता का अंत कर पांड्यों की स्वतंत्रता स्थापित करने का प्रयत्न किया। इस कारण यह चोल नरेश कुलोत्तुगं तृतीय का कोपभाजन हुआ जिसने १२०५ ई. में तीसरी बार पांड्य देश पर आक्रमण किया। यद्यपि कुलोत्तुंग ने राजधानी को लूटा और पांड्यों के अभिषेकभवन को नष्ट-भ्रष्ट किया, फिर भी उसकी सफलता आंशिक रहीं। उसके आक्रमण के बाद कुलशेखर को फिर से राज्य का अधिकार प्राप्त हुआ।
कुलशेखर यशस्वी शासक था। उसके अभिलेखों से उसकी शासनव्यवस्था का कुछ आभास मिलता है। राजभवन की सेविकाओं का भी उल्लेख आता है। एक अभिलेख में उसके द्वारा एक जलाशय का गहरा करने के लिए १०० द्रंमों के नाम का उल्लेख है। एक अन्य अभिलेख में कई गाँवों को मिलाकर एक नए गाँव की स्थापना का विवरण है।
जटावर्मन् कुलशेखर पांड्य द्वितीय को मारवर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम ने १२३८ ई. में युवराज के रूप में शासन से संबंधित किया था किंतु यह अधिक दिन तक जीवित नहीं रहा। उसकी मृत्यु के बाद १२३८ ई. में ही मारवर्मन् सुंदर पांड्य द्वितीय युवराज के रूप में शासन से संबंधित हो गया था।
जटावर्मन् कुलशेखर पांड्य तृतीय के शासन का प्रारंभ १३९५-९६ ई. में हुआ। उसके अभिलेख तिन्नेवेल्लि के बाहर नहीं मिलते। शासन के १४वें वर्ष में उसने एक मंदिर बनवाया और १६वें वर्ष में एक नए गाँव की स्थापना की।