जम्बूद्वीप

हिंदु जैन एवं बौद्ध धर्म के खगोल अनुसार विश्व का एक क्षेत्र

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में प्रायः बृहत्तर भारत की धरती को जम्बूद्वीप नाम से अभिहित किया गया है। वस्तुतः जम्बूद्वीप का अधिकांश भाग वर्तमान एशिया माना जाता है। प्राचीन भारतीय ब्रह्माण्डशास्त्र में 'द्वीप' का अर्थ वर्तमान समय के द्वीप या महाद्वीप (continent) जैसा है। इस समय बचे हुए प्रमाणों के आधार पर ऐसा लगता है कि सबसे पहले सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में अपने राज्यक्षेत्र को 'जम्बूद्वीप' कहा है। पश्चातवर्ती ग्रन्थों में यही शब्दावली देखने को मिलती है। उदाहरण के लिये, १०वीं शताब्दी के एक कन्नड शिलालेख में भी भारत को 'जम्बूद्वीप' कहा गया है।

जंबुदीप में सुमेरू पर्वत का चित्रण
जंबुदीप में माउंट सुमेरू का चित्रण
जम्बूद्वीप

सनातनी ऐतिहासिक भूगोल के वर्णन के अनुसार जम्बूद्वीप सप्तमहाद्वीपों में से एक है। यह पृथ्वी के केन्द्र में स्थित माना गया है। इसके नौ खण्ड हैं, जिनके नाम ये हैं- इलावृत्त, भद्रास्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरू और हिरण्यमय । इसका नामकरण जम्बू (जामुन) नामक वृक्ष के आधार पर हुआ है। इस जम्बू वृक्ष के रसीले फल जिस नदी में गिरते हैं वह मधुवाहिनी जम्बूनदी कहलाती है। यहीं से जाम्बूनद नामक स्वर्ण उत्पन्न होता है। इस जल और फल के सेवन से रोग-शोक तथा वृद्धावस्था आदि का प्रभाव नहीं होता।[1]

भारतवर्ष के सनातनी परिवार पूजा तर्पण के समय एक मंत्र में प्रतिदिन स्मरण करते हैं- जम्बूद्वीपे, भरतखण्डे, आर्यावर्ते.... (जम्बूद्वीप के भारतखण्ड के आर्यवर्त में...)। पुराणों में जम्बूद्वीप के छह वर्ष पर्वत बताए गए हैं- हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान । कालान्तर में इस जम्बूद्वीप के आठ द्वीप बन गए- स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक (रमन्त्रा),मन्दर, हरिण, पाञ्चजन्य तथा सिंहल । जम्बूद्वीप की भौगोलिक रचना हस्तिनापुर ( उ०प्र० ) में निर्मित है । 250 फुट के विस्तृत क्षेत्र में इसका निर्माण हुआ है ।

महाराज सगर के पुत्रों के पृथ्वी को खोदने से जम्बूद्वीप में आठ उपद्वीप बन गये थे जिनके नाम हैं:

जम्बूद्वीप के वर्ष

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  • इलावृतवर्ष के मध्य में ही मर्यादापर्वत सुमेरु स्थित है।
  • भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य वर्षों का वर्णन इस प्रकार हैः
  • भद्राश्चवर्ष में धर्मराज के पुत्र भद्रश्रवा का राज्य है। वहाँ पर भगवान हयग्रीव की पूजा होती है।
  • हरिवर्ष में दैत्यकुलभूषण भक्तवर प्रह्लाद जी रहते हैं। वहाँ पर भगवान नृसिंह की पूजा होती है।
  • केतुमालवर्ष वर्ष में लक्ष्मी जी संवत्सर नाम के प्रजापति के पुत्र तथा कन्याओं के साथ भगवान कामदेव की आराधना करती हैं।
  • रम्यकवर्ष के अधिपति मनु जी हैं। वहाँ पर भगवान मत्स्य की पूजा होती है।
  • हिरण्यमयवर्ष के अधिपति अर्यमा हैं। वहाँ पर भगवान कच्छप की पूजा होती है।
  • उत्तरकुरुवर्ष में भगवान वाराह की पूजा होती है।
  • किम्पुरुषवर्ष के स्वामी श्री हनुमान जी हैं। वहाँ पर भगवान श्रीरामचन्द्र जी की पूजा होती है।

इतिहासिक उपयोग

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अशोक महान के सासाराम लघु शिलालेख में "भारत" के लिए प्राकृत नाम जंबूदीपसी (संस्कृत "जंबूद्वीप"), लगभग 250 ईसा पूर्व।[2]सम्राट अशोक ने अपने अभिलेखों को जहां जहां भी अपने राज्य छेत्र की बात की है वहां उन्होंने जंबूद्वीप नाम के छेत्रीय ईकाई की बात की है।[3]

जम्बूद्वीप एक ऐसा नाम है जिसका उपयोग अक्सर प्राचीन भारतीय स्रोतों में वृहत भारत के क्षेत्र का वर्णन करने के लिए किया जाता है।

जम्बुद्वीप का वर्णन

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सभी द्वीपों के मध्य में जम्बुद्वीप स्थित है। वर्तमान ऐशिया

सुमेरु पर्वत

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इस द्वीप के मध्य में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत स्थित है। इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है< और नीचे काई ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर घुसा हुआ है। इसका विस्तार, ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है, तथा नीचे तलहटी में केवल सोलह हजार योजन है। इस प्रकार यह पर्वत कमल रूपी पृथ्वी की कर्णिका के समान है।

सुमेरु के दक्षिण में

हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक वर्षपर्वत हैं, जो भिन्न भिन्न वर्षों का भाग करते हैं।

सुमेरु के उत्तर में

नील, श्वेत और शृंगी वर्षपर्वत हैं।

  • इनमें निषध और नील एक एक लाख योजन तक फ़ैले हुए हैं।
  • हेमकूट और श्वेत पर्वत नब्बे नब्बे हजार योजन फ़ैले हुए हैं।
  • हिमवान और शृंगी अस्सी अस्सी हजार योजन फ़ैले हुए हैं।

वर्षों की स्थिति एवं वर्णन

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मेरु पर्वत के दक्षिण में

पहला भारतवर्ष, दूसरा किम्पुरुषवर्ष तथा तीसरा हरिवर्ष है। इसके दक्षिण में रम्यकवर्ष, हिरण्यमयवर्ष और तीसरा उत्तरकुरुवर्ष है। उत्तरकुरुवर्ष द्वीपमण्डल की सीमा पार होने के कारण भारतवर्ष के समान धनुषाकार है। इन सबों का विस्तार नौ हजार योजन प्रतिवर्ष है। इन सब के मध्य में इलावृतवर्ष है, जो कि सुमेरु पर्वत के चारों ओर नौ हजार योजन फ़ैला हुआ है। एवं इसके चारों ओर चार पर्वत हैं, जो कि ईश्वरीकृत कीलियां हैं, जो कि सुमेरु को धारण करती हैं, वर्ना ऊपर से विस्तृत और नीचे से अपेक्षाकृत संकुचित होने के कार्ण यह गिर पड़ेगा। ये पर्वत इस प्रकार से हैं:-

पूर्व में मंदराचल
दक्षिण में गंधमादन
पश्चिम में विपुल
उत्तर में सुपार्श्व

ये सभी दस दस हजार योजन ऊंचे हैं। इन पर्वतों पर ध्वजाओं समान ग्यारह ग्यारह हजार योजन ऊंचे क्रमशह कदम्ब, जम्बु, पीपल और वट वृक्ष हैं। इनमें जम्बु वृक्ष सबसे बड़ा होने के कारण इस द्वीप का नाम जम्बुद्वीप पड़ा है। इसके जम्बु फ़ल हाथियों के समान बड़े होते हैं, जो कि नीचे गिरने पर जब फ़टते हैं, तब उनके रस की धारासे जम्बु नद नामक नदी वहां बहती है। उसका पान करने से पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता। उसके मिनारे की मृत्तिका (मिट्टी) रस से मिल जाने के कारण सूखने पर जम्बुनद नामक सुवर्ण बनकर सिद्धपुरुषों का आभूषण बनती है।

वर्षों की स्थिति

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मेरु पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है और पश्चिम में केतुमालवर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गन्धमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नन्दन नामक वन हैं। तथा सदा देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस – ये चार सरोवर हैं।

मेरु के पूर्व में

शीताम्भ, कुमुद, कुररी, माल्यवान, वैवंक आदि पर्वत हैं।

मेरु के दक्षिण में

त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद आदि पर्वत हैं।

मेरु के उत्तर में

शंखकूट, ऋषभ, हंस, नाग और कालंज आदि पर्वत हैं।

मेरु पर्वत का वर्णन

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मेरु पर्वत के ऊपर अंतरिक्ष में चौदह सहस्र योजन के विस्तार वाली ब्रह्माजी की महापुरी या ब्रह्मपुरी है। इसके सब ओर दिशाओं तथा विदिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों के आठ रमणीक तथा विख्यात नगर हैं।

विष्णु पादोद्भवा गंगाजी

गंगा जी चंद्रमंडल को चारों ओर से आप्लावित करके स्वर्गलोक से ब्रह्मलोक मं गिरतीं हैं, व सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नाम से चार भागों में विभाजित हो जातीं हैं। सीता पूर्व की ओर आकाशमार्ग से एक पर्वत से दूसरे पर्वत होती हुई, अंत में पूर्वस्थित भद्राश्ववर्ष को पार करके समुद्र में मिल जाती है। अलकनंदा दक्षिण दिशा से भारतवर्ष में आती है और सात भागों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती है। चक्षु पश्चिम दिशा के समस्त पर्वतों को पार करती हुई केतुमाल नामक वर्ष में बहते हुए सागर में मिल जाती है। भद्रा उत्तर के पर्वतों को पार करते हुए उतरकुरुवर्ष होते हुए उत्तरी सागर में जा मिलती है।

माल्यवान तथा गन्धमादन पर्वत

ये पर्वत क्रमशः उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलांचल तथा निषध पर्वत तक फ़ैले हुए हैं। उन दोनों के बीच कर्णिकाकार मेरु पर्वत स्थित है। मर्यादा पर्वतों के बहिर्भाग में भारत, केतुमाल, भद्राअश्व और कुरुवर्ष इस लोकपद्म के पत्तों के समान हैं। जठर और देवकूट दोनों मर्यादा पर्वत हैं, जो उत्तर और दक्षिण की ओर नील तथा निषध पर्वत तक फ़ैले हुए हैं। पूर्व तथा पश्चिम की ओर गन्धमादन तथा कैलाश पर्वत अस्सी अस्सी योजन विस्तृत हैं। इसी समान मेरु के पश्चिम में भी निषध और पारियात्र – दो मर्यादा पर्वत स्थित हैं। उत्तर की ओर निशृंग और जारुधि नामक वर्ष पर्वत हैं। ये दोनों पश्चिम तथा पूर्व की ओर समुद्र के गर्भ में स्थित हैं। मेरु के चारों ओर स्थित इन शीतान्त आदि केसर पर्वतों के बीच में सिद्ध-चारणों से सेवित अति सुंदर कन्दराएं हैं, देवताओं के मंदिर हैं, सुरम्य नगर तथा उपवन हैं। यहां किन्नर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य और दानव आदि क्रीड़ा करते हैं। ये स्थान सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वर्ग कहलाते हैं। ये धार्मिक पुरुषों के निवासस्थान हैं, पापकर्मा लोग सौवर्षों में भी यहां नहीं जा सकते हैं। विष्णु भगवान, भद्राश्ववर्ष में हयग्रीव रूप से, केतुमालवर्ष में वराहरूप से, भारतवर्षवर्ष में कूर्मरूप से रहते हैं। कुरुवर्ष में मत्स्य रूप से रहते हैं।

हिन्दू ग्रन्थों में वर्णन

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श्री दुर्गा पूजन में जम्बूद्वीप का उल्लेख इस प्रकार आता है:

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे------- जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे ---------(अपने नगर/गांव का नाम लें) पुण्य क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : 2068, तमेऽब्दे क्रोधी नाम संवत्सरे उत्तरायणे बसंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे चैत्र मासे शुक्ल पक्षे प्रतिपदायां तिथौ सोम वासरे (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया- श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं श्री दुर्गा पूजनं च अहं करिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन निर्विघ्नतापूर्वक कार्य सिद्धयर्थं यथामिलितोपचारे गणपति पूजनं करिष्ये।

ब्रह्म पुराण, अध्याय 18, श्लोक 21, 22, 23 में यज्ञों द्वारा जम्बूद्वीप के महान होने का प्रतिपादन है-

तपस्तप्यन्ति यताये जुह्वते चात्र याज्विन।।
दानाभि चात्र दीयन्ते परलोकार्थ मादरात्॥ 21॥
पुरुषैयज्ञ पुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते।।
यज्ञोर्यज्ञमयोविष्णु रम्य द्वीपेसु चान्यथा॥ 22॥
अत्रापि भारतश्रेष्ठ जम्बूद्वीपे महामुने।।
यतो कर्म भूरेषा यधाऽन्या भोग भूमयः॥23॥

अर्थ- भारत भूमि में लोग तपश्चर्या करते हैं, यज्ञ करने वाले हवन करते हैं तथा परलोक के लिए आदरपूर्वक दान भी देते हैं। जम्बूद्वीप में सत्पुरुषों के द्वारा यज्ञ भगवान् का यजन हुआ करता है। यज्ञों के कारण यज्ञ पुरुष भगवान् जम्बूद्वीप में ही निवास करते हैं। इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष श्रेष्ठ है। यज्ञों की प्रधानता के कारण इसे (भारत को) को कर्मभूमि तथा और अन्य द्वीपों को भोग- भूमि कहते हैं।

  1. मेरी कैलाश मानसरोवर यात्र (डॉ जयनारायण कौशिक)
  2. Inscriptions of Asoka. New Edition by E. Hultzsch (संस्कृत में). 1925. पपृ॰ 169–171.
  3. Lahiri, Nayanjot (2015). Ashoka in Ancient India (अंग्रेज़ी में). Harvard University Press. पृ॰ 37. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780674057777.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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