जाबालि, वाल्मीकि रामायण के एक पात्र हैं जो विद्वान ब्राह्मण तथा राजा दशरथ के मन्त्री थे। उन्होंने श्रीराम को वन न जाने के लिये बहुत समझाया। रामायण के अयोध्याकाण्ड में वर्णन आया है कि भरत के साथ जाबालि भी वन गये थे और वहाँ उन्होंने राम को वन से वापस आने के लिये मनाने का प्रयत्न किया।

जब श्रीराम इस बात पर बल देते हैं कि वे अपने पिता को दिये गये वचन को तोड़कर उनकी आत्मा को कष्ट नहीं दे सकते तब ऋषि जाबालि श्रीराम को समझाते हैं कि उन वचनों की अब कोई सार्थकता नहीं रह गयी और उन्हें व्यावहारिक उपयोगिता तथा जनसमुदाय की भावना को महत्त्व देना चाहिए। दोनों के बीच चल रहे तर्क-वितर्कों के दौरान एक समय ऋषि जाबालि कहते हैं कि मनुष्य दिवंगत आत्माओं के प्रति भ्रमित रहता है । वह भूल जाता है कि मृत्यु पर जीवधारी अपने समस्त बंधनों को तोड़ देता है। उसकी मृत्यु के साथ ही सबके संबंध समाप्त हो जाते हैं । न कोई किसी का पिता रह जाता है और न ही कोई किसी का पुत्र । संसार में छूट चुके व्यक्ति के कर्म दिवंगत आत्मा के लिए अर्थ हीन हो जाते हैं । उन कर्मों से न उसे सुख हो सकता है और न ही दुःख। पर आम मानुष्य फिर भी भ्रम में जीता है । संवाद के दौरान वे कहते हैं, देखो क्या विडंबना है कि:-

अष्टकापितृदेवत्यमित्ययं प्रसृतो जनः।
अन्नस्योपद्रवं पश्य मृतो हि किमशिष्यति ॥ (बाल्मीकिविरचित रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०८)
(अर्थ - अष्टकादि श्राद्ध पितर-देवों के प्रति समर्पित हैं यह धारणा व्यक्ति के मन में व्याप्त रहती है, इस विचार के साथ कि यहां समर्पित भोग उन्हें उस लोक में मिलेंगे । यह तो सरासर अन्न की बरबादी है । भला देखो यहां किसी का भोगा अन्नादि उनको कैसे मिल सकता है?)

जाबालि आगे तर्क देते हैं:-

यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति ।
दद्यात् प्रवसतां श्राद्धं तत्पथ्यमशनं भवेत् ॥ (बाल्मीकिविरचित रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०८)
(अर्थ - वास्तव में यदि यहां भक्षित अन्न अन्यत्र किसी दूसरे के देह को मिल सकता तो अवश्य ही परदेस में प्रवास में गये व्यक्ति की वहां भोजन की व्यवस्था आसान हो जाती। यहां उसका श्राद्ध कर दो और वहां उसकी भूख शांत हो जाये।

जाबालि का यह वचन सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी ने अपनी संशयरहित बुद्धि के द्वारा श्रुतिसम्मत सदुक्ति का आश्रय लेकर कहा- "विप्रवर! आपने मेरा प्रिय करने की इच्छा से यहाँ जो बात कही है, वह कर्तव्य-सी दिखायी देती है; किंतु वास्तव में करने योग्य नहीं है। वह पथ्य-सी दीखने पर भी वास्तव में अपथ्य है। जो पुरुष धर्म अथवा वेद की मर्यादा को त्याग देता है, वह पापकर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उसके आचार और विचार दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं; इसलिये वह सत्पुरुषों में कभी सम्मान नहीं पाता है। आचार ही यह बताता है कि कौन पुरुष उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ है और कौन अधम कुल में, कौन वीर है और कौन व्यर्थ ही अपने को पुरुष मानता है तथा कौन पवित्र है और कौन अपवित्र? आपने जो आचार बताया है, उसे अपनाने वाला पुरुष श्रेष्ठ-सा दिखायी देने पर भी वास्तव में अनार्य होगा। बाहर से पवित्र दीखने पर भी भीतर से अपवित्र होगा। उत्तम लक्षणों से युक्त-सा प्रतीत होने पर भी वास्तव में उसके विपरीत होगा तथा शीलवान्-सा दीखने पर भी वस्तुतः वह दुःशील ही होगा।.... पहले सत्यपालन की प्रतिज्ञा करके अब लोभ, मोह अथवा अज्ञान से विवेकशून्य होकर मैं पिता के सत्य की मर्यादा भङ्ग नहीं करूँगा। ...मैं वन में ही रहकर बाहर-भीतर से पवित्र हो नियमित भोजन करूँगा और पवित्र फल, मूल एवं पुष्पों द्वारा देवताओं और पितरों को तृप्त करता हुआ प्रतिज्ञा का पालन करूँगा। ... आपकी बुद्धि विषम-मार्ग में स्थित है—आपने वेद-विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म के रास्ते से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वारा अनुचित विचार का प्रचार करने वाले आपको मेरे पिताजी ने जो अपना याजक बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निन्दा करता हूँ।"

श्रीराम के वचन सुनकर जबालि ने कहा- "‘रघुनन्दन! न तो मैं नास्तिक हूँ और न नास्तिकों की बात ही करता हूँ। परलोक आदि कुछ भी नहीं है, ऐसा मेरा मत नहीं है। मैं अवसर देखकर फिर आस्तिक हो गया और लौकिक व्यवहार के समय आवश्यकता होने पर पुनः नास्तिक हो सकता हूँ-नास्तिकों की-सी बातें कर सकता हूँ। इस समय ऐसा अवसर आ गया था, जिससे मैंने धीरे-धीरे नास्तिकों की-सी बातें कह डालीं। श्रीराम ! मैंने जो यह बात कही, इसमें मेरा उद्देश्य यही था कि किसी तरह आपको राजी करके अयोध्या लौटने के लिये तैयार कर लूँ’।"



श्रीराम ने उनको समुचित उत्तर देकर शान्त किया। जाबालि अयोध्या वापस नहीं लौटे, वन में ही रह गये।