जीवक
साँचा:इन्फोबॉक्स कार्यालयधारक जीवक कुमारभच्छ' प्राचीन भारत के प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे। अनेक बौद्ध धर्मशास्त्रों में उनके चिकित्सा-ज्ञान की व्यापक प्रशंसा की गई है। वे बालरोगविशेषज्ञ थे। वे महात्मा बुद्ध के निजी वैद्य थे। वे बिंबिसार के राजवंश में मगध की राजधानी, वर्तमान राजगीर) में एक गणिका (वैशाली की आम्रपाली ) के पुत्र के रूप में सरदार थे। जन्म के बाद लोक लाज से उबरने के लिए उन्हें एक कूड़े के ढेर पर फेंक दिया गया था। सौभाग्य से उस पर सम्राट बिम्बिसार के पुत्र कुमार अभय की दृष्टि पढ़ी गई। कुमार ने अपने जीवन की रक्षा की और अपने लुक लाइन में अपने भरण-पोषण का प्रबंधन किया। राजगृह में शिक्षा पूर्ण करने के बाद कुमार ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए तक्षशिला भेज दिया। वहां उन्होंने सात साल तक चिकित्साशास्त्र की सफलता का अध्ययन किया। वे आत्रेय के शिष्य थे।[1]
जीवनी
संपादित करेंसम्राट बिम्बिसार के पुत्र अभय कुमार को वन में एक नवजात शिशु पड़ा मिला। उसे देखकर उसके भीतर करुणा उमड़ आई। वह शिशु को उठाकर घर ले आया। बच्चे का नाम रखा- जीवक। उसे खूब पढ़ाया-लिखाया। जब जीवक बड़ा हुआ तो एक दिन अचानक उसने अभय कुमार से पूछा, 'मेरे माता-पिता कौन हैं?' अभय कुमार को उसके इस प्रश्न पर आश्चर्य हुआ लेकिन उसने सोचा कि जीवक से कुछ भी छिपाना ठीक नहीं होगा। उसने उसे सारी बात बता दी कि किस तरह वह उसे जंगल में पड़ा मिला था। इस पर जीवक ने कहा, 'मैं आत्महीनता का भार लेकर कहां जाऊं?' इस पर अभय कुमार ने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा, 'वत्स, इस बात को लेकर दुखी होने की बजाय तक्षशिला जाओ और वहां एकाग्रचित्त होकर अध्ययन करो और अपने ज्ञान का प्रकाश समाज को दो।' जीवक विद्याध्ययन के लिए तक्षशिला चल पड़ा। प्रवेश के समय आचार्य ने नाम, पिता का नाम कुल और गोत्र पूछा तो उसने साफ-साफ सब कुछ बता दिया। आचार्य ने उसकी स्पष्टवादिता से प्रभावित होकर उसे प्रवेश दे दिया।
जीवक ने वहां कठोर परिश्रम किया और आयुर्वेदाचार्य की उपाधि हासिल की। उसके आचार्य चाहते थे कि वह मगध जाए और वहां रहकर लोगों की सेवा करे। जीवक उसी पुराने प्रश्न से लगातार उद्विग्न था। उसे परेशान देखकर आचार्य ने पूछा, 'वत्स तुम इस तरह उदास क्यों हो?' इस पर जीवक ने उत्तर दिया, 'आचार्य आप जानते हैं कि मेरा कोई कुल और गोत्र नहीं है। मैं जहां भी जाऊंगा, लोग मुझ पर उंगलियां उठाएंगे। क्या आप मुझे यहां अपने पास नहीं रख सकते, ताकि मैं आपकी सेवा करता रहूं।' आचार्य बोले, 'वत्स तुम्हारी योग्यता क्षमता, प्रतिभा और ज्ञान ही तुम्हारा कुल और गोत्र है। तुम जहां भी जाओगे, वहीं तुम्हें सम्मान मिलेगा। अभावग्रस्त प्राणियों की सेवा में अपने को समर्पित करना ही तुम्हारा धर्म है। इसी से तुम्हारी पहचान बनेगी। कर्म से ही मनुष्य की पहचान होती है कुल और गोत्र से नहीं।' इस तरह जीवक को आत्मविश्वास का प्रकाश मिला। वह आयुर्वेदाचार्य के रूप में मगध में प्रसिद्ध हो गया।
चिकित्सा कार्य
संपादित करेंजीवक की योग्यता से पूर्ण संतुष्ट होकर आचार्य ने उसे वैद्य की उपाधि प्रदान कर दी और स्वतन्त्र रूप से चिकित्सा करने की अनुमति दे दी। आचार्य ने उसे कुछ धन भी दे दिया ताकि वह तक्षशिला से राजगृह तक जा सके। तक्षशिला से साकेत पहुँचने तक जीवक का धन खर्च हो गया। उसे अभी बहुत दूर जाना था। अतः धन की आवश्यकता थी। वह वहीं साकेत में रुक गया ताकि कुछ धन अर्जित कर ले। उसे ज्ञात हुआ कि एक सेठ की पत्नी बहुत दिनों से सिर के रोग से अस्वस्थ है और वैद्य उसे ठीक नहीं कर पा रहे हैं। जीवक ने उसका इलाज प्रारम्भ किया। उसने घी में कुछ जड़ी-बूटियाँ उबालीं और उसे महिला को नाक से पिला दिया। उसकी चिकित्सा से सेठ की पत्नी निरोग हो गई। सेठ उससे बहुत प्रसन्न हुआ और उसका बहुत उपकार माना। उसने जीवक को १६००० मुद्राएँ दीं तथा एक रथ, घोड़े और दो सेवक भी दिए। जीवक ने राजगृह लौट कर उसे कुमार अभय को दे दिया क्योंकि उसीने उसका पालन-पोषण किया था और उसकी शिक्षा का प्रबन्ध किया था। उन दिनों सम्राट बिम्बिसार भगंदर रोग से ग्रस्त थे जो आज भी लाइलाज बीमारी मानी जाती है। जीवक ने उनकी चिकित्सा की और स्वस्थ कर दिया। उसने अनेक असाध्य रोगों को ठीक किया जिससे उसकी ख्याति बहुत दूर तक फैल गई। काशी के एक सेठ ने उसे अपने पुत्र की चिकित्सा के लिए बुलाया जिसकी आंतें उलझ गई थीं। जीवक ने शल्य चिकित्सा द्वारा उसका पेट चीर कर आंतें ठीक कीं और पुनः पेट सिल दिया और चिकित्सा के लिए दवाएं दीं जिससे वह ठीक हो गया। इस सेठ ने भी जीवक को १६००० मुद्राएँ दीं। उज्जैन का राजा उद्योत पीलिया ग्रस्त था। उसने सम्राट बिम्बिसार से अनुरोध किया कुछ दिनों के लिए वे जीवक को उज्जैन भेज दें। औषधियुक्त घी से जीवक ने उन्हें भी स्वस्थ कर दिया। राजा ने उसका बहुत सत्कार किया तथा उसे बहुत से उपहार एवं बहुमूल्य वस्तुएं देकर विदा किया। जीवक ने महात्मा बुद्ध को भी कब्ज रोग से मुक्त किया था। भारतीय चिकित्सा शास्त्र में जीवक का नाम आज लगभग २५०० वर्ष बाद भी बहुत श्रद्धा से लिया जाता है।