जॉर्ज साइमन ओम
( जर्मन भौतिक विज्ञानी और गणितज्ञ थे। एक विद्यालय शिक्षक के रूप में, ओम ने इतालवी वैज्ञानिक आलेस्सान्द्रो वॉल्ता द्वारा आविष्कार किए गए नए विद्युद्रासायनिक सेल के साथ अपना शोध शुरू किया। अपने स्वनिर्मित उपकरण का उपयोग करते हुए, ओम ने पाया कि एक वैद्युतिक परिपथ में धातु के तार के दो सिरों के बीच विभवान्तर उसमें प्रवाहित होने वाली वैद्युतिक धारा के समानुपातिक होता है, परन्तु तार का ताप समान रहना चाहिए। इस संबंध को ओम का नियम कहा जाता है, और वैद्युतिक प्रतिरोध की इकाई ओम का नाम उसके नाम पर रखा गया है।
गेऔर्ग सिमॉन ओम | |
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राष्ट्रीयता | जर्मन |
प्रसिद्धि | ओम का नियम |
जीवनी
संपादित करेंविद्युत चालकों में प्रतिरोध की खोज करने वाले जर्मन वैज्ञानिक जार्ज साइमन ओम का पूरा जीवन संघर्ष भरा रहा। विद्युत धारा परिचालन की खोज करने वाले ओम प्रोफेसर बनना चाहते थे लेकिन तत्कालीन गतिरोधों ने उन्हें यह सम्मान प्राप्त नहीं करने दिया। ओम को प्रोफेसर का ओहदा मौत से कुछ वर्ष पहले मिला। जर्मनी (तत्कालीन बावेरिया) के एरलांजेन में 16 मार्च 1789 को जन्मे ओम के पिता एक अनपढ़ तालासाज थे लेकिन पिता ने ओम और उनके भाई बहन की पढ़ाई में कोई कमी नहीं होने दी। इसे विडंबना ही कहेंगे कि पढ़ने से अधिक प्रयोगों में रुचि रखने वाले ओम ने विद्युत परिपथ से जुड़े एक ऐसे गुण की खोज की जिससे आगे चलकर बिजली की खपत कम करने और उपयोगी चालकों की तलाश का रास्ता तय हुआ। एरलांजेन विश्वविद्यालय में उनकी कालेज शिक्षा हुई। उसी समय इतालवी वैज्ञानिक अलेसांद्रो वोल्टा ने नये इलेक्ट्रो केमिकल सेल की खोज की थी।
ओम ने अपने प्रयोग में पाया कि दिये गये तापमान पर चालक के सिरों पर प्रवाहित किया गया विभवांतर प्राप्त होने वाली धारा के समानुपाती होता है। अपने प्रयोग से उन्होंने पाया कि विभव धारा और प्रतिरोध के बीच मूलभूत संबंध होता है। प्रतिरोध ही वह मूलभूत गुण था जिसकी खोज ओम ने की। ओम ने अच्छे और उपयोगी विद्युत परिपथों के लिए प्रतिरोध जैसा एक मूलभूत गुण खोजा जो चालक में निहित होता है। बेहतर परिणाम के लिए अच्छे चालक की जरूरत प्रतिरोध नामक इसी गुण से तय होती है। ओम ने विद्युत परिपथ विश्लेषण की बुनियाद डाली। वह उनके प्रेरक पिता ही थे जिन्होंने ओम को इस मुकाम पर पहुंचाया जिससे वह दुनिया को कुछ दे सकने के काबिल बने। विश्वविद्यालयी शिक्षा में ध्यान केंद्रित करने में विफल ओम को वह सही रास्ते पर लाए।
पिता ने ओम को सितंबर 1806 में स्विटजरलैंड भेजा। जिस प्रतिरोध के बारे में ओम ने अपना नियम दिया उसके बारे में 1827 में पहली बार 'द गैल्वेनिक सर्किट इनवेस्टिगेटेड मैथमैटिकली' में उनका शोध छपा। इसे काफी देर से वर्ष 1841 में लंदन स्थित रायल सोसाइटी से मान्यता मिली और उन्हें कोपले पदक से सम्मानित किया गया। जार्ज साइमन ओम ने वैद्युतचालक बल के वितरण की खोज की और प्रतिरोध विद्युतवाहक बल और विद्युत धारा के परिमाण में एक निश्चित संबंध स्थापित किया।
प्रयोग की मान्यता को लेकर आशंकित ओम ने इसे सिद्धांत रूप में भी तैयार किया। लेकिन हुआ वही जिसका डर था। उन्होंने धारा के प्रतिकूल बीड़ा उठाया था। उन्होंने भौतिकी का सिद्धांत उस समय पेश किया जब जर्मनी में भौतिक विज्ञान को गणितीय दृष्टिकोण से मान्यता प्राप्त नहीं थी। यही कारण है कि खोज को वह प्रसिद्धि नहीं मिली जिसकी वह हकदार थी। सर्किट डिजाइन करते समय प्रतिरोध की अनदेखी नहीं की जा सकती। बिजली के सुगमता से परिचालन में प्रतिरोध का महत्व काफी है। रायल सोसाइटी की मान्यता ने प्रतिरोध की खोज को पारस पत्थर सा स्पर्श दिया। वर्ष 1854 में ओम का निधन हो गया। इससे ठीक दो साल पहले उन्हें 1852 में प्रोफेसर की मान्यता दी गयी जो उनकी दिली ख्वाहिश थी।