टामस हाब्स

दार्शनिक एवं राजनीतिक विचारक (1588-1679)

टामस हाव्स (Thomas Hobbes ; १५८८ ई० - १६७९ ई०) प्रसिद्ध आंग्ल दार्शनिक एवं राजनीतिक विचारक।

टामस हाब्स
व्यक्तिगत जानकारी
जन्म5 अप्रैल 1588
Westport near Malmesbury, Wiltshire, England
मृत्यु4 दिसम्बर 1679(1679-12-04) (उम्र 91 वर्ष)
Derbyshire, England
वृत्तिक जानकारी
युग17th-century philosophy
(Modern Philosophy)
क्षेत्रWestern Philosophers
विचार सम्प्रदाय (स्कूल)Social contract, classical realism, empiricism, determinism, materialism, ethical egoism
मुख्य विचारPolitical philosophy, history, ethics, geometry
प्रमुख विचारModern founder of the social contract tradition; life in the state of nature is "solitary, poor, nasty, brutish and short"

टामस हाव्स का जन्म माम्सबरी में हुआ था। ९१ वर्ष की इस दीर्घायु में हाब्स ने अनेक सामाजिक राजनीतिक विप्लव और परिवर्तन देखे-मध्यमवर्ग का उत्थान, स्टुअर्ट राजाओं ओर पार्लमेंट का संघर्ष, चार्ल्स प्रथम की फाँसी, क्रामवेल का शासन तथा रेस्टोरेशन, अपनी सहज भीरुता के कारण हाब्स शांति और सुरक्षा को अत्यधिक महत्व देता था। इंग्लैड के गृहयुद्ध ने उसके इस विचार को और भी दृढ़ कर दिया कि पारस्परिक कलह और युद्ध सभ्य जीवन के लिये घातक है। यद्यपि पार्लमेंट और राजा के झगड़े में हाब्स ने राजा का पक्ष लिया, तथापि उसके तर्क ऐसी किसी भी सत्ता का समर्थन करते हैं जो शांति एवं व्यवस्था स्थापित कर सके।

हाब्स का दर्शन गैलीलियो, केप्लर, डेकार्ट तथा गैसेंडी जैसे वैज्ञानिकों की धारणाओं से अनुप्राणित है। कहा जाता है कि संपूर्ण मानवज्ञान को एक सूत्र में बाँधकर वैज्ञानिक आधारशिला पर प्रतिष्ठत करना ही उसका उद्देश्य था। किंतु हाब्स के दर्शन और तत्कालीन विज्ञान में वास्तविक संबंध क्या है, यह विवादास्पद है। लिओ स्ट्राउस का मत है कि यद्यपि हाब्स का चिंतन वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत किया गया है, तथापि उसका स्रोत क्लैसिकल मानववाद है, न कि आधुनिक भौतिकवाद। गैलीलियो और केप्लर की खोज के पूर्व हाब्स पर थ्यूमीडिडीज तथा अरस्तू का अमिट प्रभाव पड़ चुका था। गाइकेल ओक शॉट के अनुसार हाब्स के दर्शन की मूल प्रेरणा वैज्ञानिक भौतिकवाद नहीं, अपितु दार्शनिक बुद्धिवाद-दर्शन के स्वरूप के विषय में एक विशेष धारणा - है। यह धारणा विज्ञान और दर्शन को मित्र मानती है। हाब्स का दर्शन बुद्धि के दर्पण में प्रतिबिंबित जगत् है। इस दर्पण में देखने से विश्व यंत्रवत् दिखाई देता है चाहे, वह वस्तुत: यंत्र न हो। इसीलिए मानव समाज का बौद्धिक विवेचन भी उसे यंत्रवत् मानकर ही किया जा सकता है।

हाब्स प्रधानत: राजनीतिक विचारक है। परन्तु उसका राजशास्त्र उसके सामान्य दर्शन का एक अंग है। इस दर्शन की विशेषता है- ज्यामिति की निगमनात्मक प्रणाली। इस प्रणाली की मान्यता बुद्धिवाद है। हाब्स का बुद्धिवाद प्लेटो, सेंट टामस तथा स्पिनोजा के बुद्धिवाद से भिन्न है। यह उत्तरमध्ययुगीन नामवादी (nominalist) परंपरा के अंतर्गत है। हाब्स के दर्शन में बुद्धि का स्थान गौण है, प्रधानता इच्छाशक्ति तथा मनोभावों की है। बुद्धि एक कला अथवा साधन है जिसके द्वारा पूर्वनिश्चित प्रतिज्ञाओं से सही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। ये प्रतिज्ञाएँ सर्वथा स्वकल्पित होती हैं। अत: दार्शनिक ज्ञान की दूसरी विशेषता है उसका कल्पित (hypothetical) स्वरूप। दर्शन को हाब्स कार्य कारण-ज्ञान कहता है और करण को पूर्ववर्ती गति (antecedent motion) मानता है। सभी ज्ञान गति की विभिन्नता से प्राप्त होता है। इस प्रकार सर्वव्यापी गति ही संपूर्ण मानवज्ञान का सार्वभौम निमित्त कारण है। ज्यामिति का संबंध बिंदुओं और रेखाओं की गति से है, भौतिक जगत् परमाणुओं की गति है; मनोविज्ञान मानव शरीर के अंतर्गत स्नायुस्पंदन का विवरण है तथा राज्य व्यक्तियों के पारस्परिक आघात प्रतिघात से उत्पन्न संश्लिष्ट गति का परिणाम है। इस प्रकार उपर्युक्त सभी शास्त्र विभिन्न रूपों में एक ही विषय का अध्ययन करते हैं। हाब्स यह स्पष्ट नहीं करता कि भौतिक तथा मानव जगत् की व्याख्या कल्पित प्रमेयों पर आधारित ज्यामिति की निगमनात्मक प्रणाली पर कैसे हो सकती है। उसके राजशास्त्र का उसके यांत्रिक भौतिकवाद और उसके भौतिकवाद का उसके बुद्धिवाद से कोई तार्किक संबंध नहीं स्थापित हो पाता।

राज्य को उसके मौलिक तत्वों में विघटित करने पर प्राकृतिक अवस्था प्राप्त होती है। यह अवस्था ऐतिहासिक तथ्य नहीं बल्कि अराजकता की तार्किक अवधारणा है। बाह्य जगत् में व्याप्त गति के प्रतिघात से मानव शरीर में दो प्रकार की गतियाँ उत्पन्न होती हैं- आकर्षण और विकर्षण। मनोवैज्ञानिक स्तर पर उन्हें इच्छा और विद्वेष कहते हैं। जो वस्तुएँ जीवनरक्षा में सहायक होती हैं, मनुष्य उनके प्रति आकृष्ट होता है और जिनसे जीवन नष्ट होता है उनसे वह पलायन करता है। वांछित वस्तुएँ शुभ कही जाती हैं और अवांछित अशुभ। चूँकि जीवन की रक्षा तथा संवृद्धि करनेवाली वस्तुएँ सीमित है और सभी व्यक्ति अपनी दैहिक तथा मानसिक शक्तियों को मिलाकर लगभग समान हैं, अत: वांछित वस्तुओं की प्राप्ति तथा उसको संचित रखने के लिए प्रतिद्वंद्वित प्रारंभ होती है जो शीघ्र ही गौरव तथा शक्ति के लिए संघर्ष के रूप में परिणत हो जाती है। इस संघर्ष का पर्यवसान केवल मृत्यु में होता है क्योंकि शक्तिलिप्सा अनंत होती है। उसमें विवेक एवं मर्यादा के लिये कोई स्थान नहीं होता। सदैव अतृप्त वासनाओं की तुष्टि में संलग्न, मदांध तथा एक दूसरे के प्रति सशंक व्यक्तियों के निरंतर युद्ध के परिणामस्वरूप प्राकृतिक अवस्था में मानव जीवन एकाकी, तुच्छ, घृणित, पाशविक और क्षणिक हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में सभ्यता, संस्कृति तथा व्यवसाय का सर्वथा अभाव रहता है। न्याय अन्याय का प्रश्न ही नहीं उठता। व्यक्ति अपनी जीवनरक्षा के लिए जो कुछ कर सकता है वही उसका प्राकृतिक अधिकार है। प्राकृतिक अधिकार केवल प्राकृतिक शक्ति से ही सीमित होते हैं।

प्राकृतिक अवस्था मनुष्य के असीम अभिमान, स्वार्थ तथा अनियंत्रित भावावेश का परिणाम है। किंतु इस भयावह परिस्थिति से मुक्ति दिलानेवाली बुद्धि भी उसमें विद्धमान रहती है। बुद्धि के द्वारा मनुष्य प्राकृतिक नियमों की खोज करता है जिनसे शांति की व्यवस्था होती है और जीवनरेखा की संभावना बढ़ जाती है। प्राकृतिक विधान यह शिक्षा देता है कि प्रतिद्वंद्विता और हिंसा आत्मरक्षा के शत्रु हैं, सहयोग तथा शांति ही उसके वास्तविक साधन हैं। अत: प्रत्येक व्यक्ति को शांति ढूँढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि अन्य व्यक्ति भी इस बात के लिए तैयार हों तो उसे अपने असीम प्राकृतिक अधिकारों को छोड़ने तथा दूसरों के विरुद्ध उतनी ही स्वतंत्रता से संतुष्ट रहने के लिए तत्पर होना चाहिए जितनी वह अपने विरुद्ध दूसरों को देने के लिए उद्यत हो। मनुष्य को अपने किए हुए वादों के अनुकूल आचरण करना चाहिए क्योंकि पारस्परिक विश्वास और संविदा (contract) से ही समाज की स्थापना की जा सकती है।

प्राकृतिक विधान राज्य के लिए आवश्यक हैं किंतु हाब्स अपने अहंवादी मनोविज्ञान से उनका सांमाजस्य स्थापित नहीं कर पाता। यदि मनुष्य बुद्धियुक्त प्राणी है तो प्राकृतिक अवस्था का यह भयानक चित्र असत्य है और यदि यह चित्र वास्तविक है तो ऐसे प्राणियों से समाज में रहने की आशा करना व्यर्थ है। फिर प्राकृतिक विधान नैतिक विधान है अथवा केवल उपयोगिता के नियम, यह स्पष्ट नहीं है। निस्संदेह ईश्वर अथवा संप्रभु के ओदश का रूप धारण कर लेने पर वे नैतिक रूप से बाध्य करते हैं। किंतु संप्रभु से आदिष्ट होते के पूर्व उनकी बाध्यता नैतिक है अथवा केवल बौद्धिक इस विषय में विद्वनों में मतभेद है। हाब्स यह भी कहता है कि शक्ति के बिना संविदा बेकार है। अत: नैतिक तथा बौद्धिक रूप से बाध्य होने पर भी व्यक्ति को राज्य का आज्ञापालन करने के लिए भौतिक बंधन की आवश्यकता है।

संविदा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने असीम प्राकृतिक अधिकारों को एक अन्य व्यक्ति, या व्यक्तिसमूह, को स्थानांतरित कर देता है जो सबकी शांति और सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होता है। संबिदा का अंग ने होने के कारण यह व्यक्ति, या व्यक्तिसमूह, किसी भी मानवीय कानून से बाध्य नहीं है। वह सभी व्यक्तियों का प्रतिनिधि है। अत: उसका विरोध आत्मविरोध है। उसमें संनिहित संप्रभुता अविभाज्य, असीम अदेय तथा स्थायी है। चर्च तथा अन्य समुदायों का वह एकमात्र स्वामी है। उसके आदेश ही कानून हैं और जहाँ कानून मौन है, वहीं जनता स्वतंत्र है। संप्रभु की आज्ञा की अवहेलना व्यक्ति आत्मरक्षा हेतु ही कर सकता है। संविदा के अतिरिक्त राज्य की स्थापना विजय के द्वारा भी हो सकती है किंतु दोनों में कोई तात्विक अंतर नहीं है।

हाब्स आधुनिक राजदर्शन का जन्मदाता कहा जाता है। बेंथम के उपयोगितावाद तथा आस्टिन के संप्रभुता सिद्धांत (Theory of Sovereignty) पर उसका प्रभाव स्पष्ट है। यद्यपि उसने निरंकुश संप्रभुता का समर्थन किया, तथापि व्यक्तिवाद उसके दर्शन की आधारशिला है। संप्रभु की असीम अधिकार देते हुए भी व्यक्ति के जीवन में राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप को वह अवांछनीय मानता है। फिर, व्यक्ति की राजभक्ति की आधार है संप्रभु की सुरक्षा तथा शांति प्रदान करने की क्षमता। यदि यह ऐसा नहीं कर सकता, तो जनता दूसरा शासक चुनने के लिए स्वतंत्र है। संप्रभु को राज्य करने का दैवी अधिकार नहीं है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

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  • जान बाउले - हॉब्स ऐंड हिज क्रिटिक्स : ए स्टडी इन सेवेंटींथ सेंचुरी कांस्टिच्यूशनलिज्म, न्यूयार्क, १९५२, * टामस हॉब्स' मेकेनिकल कंपप्शन ऑव नेचर, लंदन, १९२८;
  • स्टुअर्ट एम० ब्राउन : हॉब्स, द टेलर थीसिस' फिलासोफिकल रिव्यू, खंड ६८, १९५९;
  • जॉन लेर्ड : हॉब्स, लंदन, १९३४
  • स्टर्लिग पी. लैप्रेट: हाब्स ऐंड हॉबिज्म; रिचर्ड पीटर्स, हाब्स बाल्टीमोर, १९५६;
  • एम० ओकशॉट: लेवियाथन (इंट्रोडक्शन) आक्सफोर्ड;
  • एम ओकशाटॅ: मॉरल लाईफ इन दि राईटिग्ज ऑव टॉमस हाब्स इन रेशनेलिज्म इन पॉलिटिक्स, लंदन, १९६२
  • लियोस्ट्रॉस : दि पोलिटिकल फिलासाफी ऑव हॉब्स, इट्स वेसिस ऐंड इट्स जेनेसिस, आक्सफोर्ड १९३६
  • जी. एच. सैबाइर; ए हिस्ट्री ऑव पोलिटिकल थ्यूरी, तृतीय संस्करण, लंदन, १९६३;
  • होवर्ड वारंडर; दि पोलिटिकल फिलासफी ऑव हॉब्ज; हिज थ्यूरी ऑव ऑब्लिगेशन, ऑक्सफोर्ड, १९५७।

बाहरी कड़ियाँ

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हॉब्स की टिप्पणियाँ (आनलाइन)

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सामान्य कृतियाँ (आनलाइन)

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  • प्रोजेक्ट गुटेनबर्ग पर Thomas Hobbes की रचनाएँ
  • The English Works of Thomas Hobbes of Malmesbury; Now First Collected and Edited by Sir William Molesworth, Bart., (London: Bohn, 1839–45)। 11 volumes. Can be found on the internet:-
  • TRIPOS ; in Three Discourses :
  • I. Human Nature, or the Fundamental Elements of Policy
  • II. De Corpore Politico, or the Elements of Law
  • III. Of Liberty and Necessity
  • An Answer to Bishop Bramhall's Book, called " The Catching of the Leviathan"
  • An Historical Narration concerning Heresy, and the Punishment thereof Considerations upon the Reputation, Loyalty, Manners, and Religion of Thomas Hobbes
  • Answer to Sir William Davenant's Preface before " Gondibert"
  • Letter to the Right Honourable Edward Howard
  • Volume 5. The Questions concerning Liberty, Necessity and Chance, clearly stated and debated between Dr Bramhall Bishop of Derry and Thomas Hobbes of Malmesbury.
  • Volume 6.
  • A Dialogue Between a Philosopher & a Student of the Common Laws of England
  • A Dialogue of the Common Law
  • Behemoth: the History of the Causes of the Civil Wars of England, and of the Counsels and Artifices By Which They Were Carried On From the Year 1640 to the Year 1660
  • The Art of Rhetoric Plainly Set Forth. With Pertinent Examples For the More Easy Understanding and Practice of the Same
  • The Art of Sophistry
  • Seven Philosophical Problems
  • Decameron Physiologicum
  • Proportion of a straight line to half the arc of a quadrant
  • Six lessons to the Savilian Professors of the Mathematics
  • ΣΤΙΓΜΑΙ, or Marks of the absurd Geometry etc. of Dr Wallis
  • Extract of a letter from Henry Stubbe
  • Three letters presented to the Royal Society against Dr Wallis
  • Considerations on the answer of Dr Wallis
  • Letters and other pieces
  • Volume I. Biographical and Elementorum Philosophiae I: De Corpore
  • Volume II. Elementorum Philosophiae II and III: De Homine and De Cive
  • Volume III. Latin version of Leviathan.
  • Volume IV. Various concerning mathematics, geometry and physics.
  • Volume V. Various short works.