टॉमस आर्थर डी लैली (Thomas Arthur, comte de Lally ; १७०२ ई. - १७६६ ई.) निर्भीक फ्रांसीसी सेनापति था। सप्तवर्षीय युद्ध में उसने फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व किया जिसमें उसके अपने लाल कोटधारी रेजिमेन्ट के दो बटालियन भी शामिल थे।

१७२१ में वह सैनिक अफसर नियुक्त हुआ। आस्ट्रिया के उत्तराधिकारयुद्ध तथा जैकाबाइट विद्रोह में विशेष पराक्रम के पुरस्कारस्वरूप लुई पंद्रहवें ने उसे ब्रिगेडियर का पद दिया।

सप्तवर्षीय युद्ध आरंभ होते ही अंग्रेज़ों को भारत से निकाल बाहर करने के लिए लैली को सर्वोच्च अधिकारी बनाकर पांडिचेरी भेजा गया। इस उद्देश्य की पूर्ति में पदाधिकारियों के ईर्ष्या-द्वेष तथा अपने अहंकार के कारण उसे किसी का हार्दिक सहयोग न मिला। जल सेनानायक ने उसे देर से पॉडिचेरी पहुँचाया और किसी अभियान में उसकी सहायता नहीं की। पाँडिचेरी के गवर्नर ने युद्ध के साधन नहीं जुटाए। अन्य पदाधिकारियों ने भी कोई उत्साह नहीं दिखाया। इसपर भी लैली ने गूडलूर, फोर्ट सेंट डेविड तथा देविकोट को अंग्रेजों से छीनकर अद्भुत कर्मण्यता दिखाई। धनाभाव के कारण मद्रास पर आक्रमण स्थापित करके उसे तंजोर पर आक्रमण करना पड़ा। किंतु पांडिचेरी पर संकट आने के भय से उसे छोड़ना पड़ा।

दिसंबर, १७५८ में बुसी के सहयोग से कांचीपुरम् जीतकर लैली ने मद्रास का घेरा डाला, पर सफल न हुआ। बुसी को हैदराबाद से बुलाकर उसने बड़ी भूल की। इससे सलाबतर्जग ने अंग्रेजों के संरक्षण में आकर उत्तरी सरकार उन्हें सौंप दिया। १७६१ में पाँडिचेरी में उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा। साधनों तथा सहयोग के अभाव से उसकी योजना विफल रही। पेरिस की संधि होने पर उसे फ्रांस भेज दिया गया। वहाँ राजद्रोह का झूठा अभियोग लगाकर १७१६ में उसे फाँसी दे दी गई।


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