तक़िय्या
अल तक़िय्या: अरबी शब्द है।अर्थ है धर्मनिष्ठा नष्ट होने के भय से मान्यताओं को छिपाकर रखना। शिया और आगा खानी संप्रदाय इसे वैध मानते हैं। शिया विद्वानों का कहना है कि तकियाह विश्वासियों के लिए एक पर्दा है। वो काम जिस के करने को दिल ना चाहता हो मगर किसी के ख़ौफ़ से किया जाये। दिल में अदावत हो लेकिन बज़ाहिर दोस्ती ज़ाहिर की जाये।[1]
इस संबंध में अम्मार बिन यासिर का उदाहरण दिया जाता है कि जब अविश्वासी कुरैश ने उन पर बहुत दबाव डाला तो उन्होंने कहा कि वह मुसलमान नहीं हैं और फिर पैगम्बर साहब को अपनी मजबूरी समझाकर इस्लाम कबूल कर लिया। इसी तरह, जब मुसैलमा कज्ज़ाब 12 हिजरी " ने एक मुसलमान को अपनी पैग़म्बरी कबूल करने के लिए मजबूर किया, तो उसने भी कबूल किया कि उसने इसे अपने दिल से नकार दिया था। ऐतिहासिक संदर्भ में तकियाह की आवश्यकता इसलिए उत्पन्न हुई क्योंकि कुछ सुल्तानों ने शियाओं पर विभिन्न कठिनाइयाँ थोपीं, इसलिए उन्होंने मृत्यु से बचने के लिए यह तरीका अपनाया। शिया पवित्र कुरआन की इस आयत (कुरआन) से तकियाह के बारे में तर्क देते हैं। तर्जुमा: अगर तुम अपने दिलों में जो कुछ है उसे ज़ाहिर करो या छिपाओ तो अल्लाह तुम्हें इसका जवाबदेह ठहराएगा। (सूरह बक़राह का आखिरी धनुष, पारा 3) इस प्रकार की अन्य आयतें हैं जिन्हें अल्लाह जानता है कि तुम प्रकट करो या छिपाओ।
तकियाह और अहल अस-सुन्नत
संपादित करेंग़ुलाम रसूल सईदी लिखते हैंतकियाह की परिभाषा, उसके प्रकार और उसके शरिया नियम
- आले इमरान की आयत 28 में तकियाह की वैधता पर एक तर्क है। यह तकियाह की परिभाषा है: शत्रुओं की बुराई से जान, सम्मान और धन की रक्षा करना शत्रु दो प्रकार के होते हैं, एक जिनकी शत्रुता धर्म में भिन्नता के कारण होती है, जैसे काफिर और मुसलमान, दूसरे वे जिनकी शत्रुता सांसारिक उद्देश्यों, जैसे धन के कारण होती है तक़िया दो तरह की होती है।
तकियाह के प्रकार
संपादित करें- तक़ियाह का पहला प्रकार, जो धर्म में मतभेदों के कारण शत्रुता पर आधारित है, शरीयत का शासन है
- जब कोई मुसलमान काफिरों के इलाके में हो और उसके धर्म की अभिव्यक्ति के कारण उसकी जान, माल और सम्मान खतरे में हो, तो उसके लिए उस इलाके से पलायन करना अनिवार्य है और तकियाह करना और उसके अनुरूप होना जायज़ नहीं है काफिरों यही कुरआन 4:97-99 में है:जो लोग अपने-आप पर अत्याचार करते है, जब फ़रिश्ते उस दशा में उनके प्राण ग्रस्त कर लेते है, तो कहते है, "तुम किस दशा में पड़े रहे?" वे कहते है, "हम धरती में निर्बल और बेबस थे।" फ़रिश्ते कहते है, "क्या अल्लाह की धरती विस्तृत न थी कि तुम उसमें घर-बार छोड़कर कहीं ओर चले जाते?" तो ये वही लोग है जिनका ठिकाना जहन्नम है। - और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है सिवाय उन बेबस पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के जिनके बस में कोई उपाय नहीं और न कोई राह पा रहे है; तो सम्भव है कि अल्लाह ऐसे लोगों को छोड़ दे; क्योंकि अल्लाह छोड़ देनेवाला और बड़ा क्षमाशील है [2]
जबर और इकराह की सूरत में जान बचाने के लिए तक़िया पर करना रुख़स्त और तक़िया को तर्क करना अज़ीमत है इस पर दलील ये हदीस है हसन अल बसरी रिवायत करते हैं कि मुसैलमा कज़्ज़ाब ने रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दो अस्हाब को गिरफ़्तार कर लिया उनमें से एक से पूछा क्या तुम गवाही देते हो कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं उसने कहा हाँ फिर पूछा क्या तुम ये गवाही देते हो कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ? उसने कहा हाँ तो इस को रिहा कर दिया फिर दूसरे को बुला कर पूछा क्या तुम ये गवाही देते हो कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं? उसने कहा हाँ फिर पूछा क्या तुम ये गवाही देते हो कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ? उसने कहा मैं बहरा हूँ और तीन बार सवाल के जवाब में यही कहा मुसैलमा ने इस का सर तन से जुदा कर दिया जब रसूल अल्लाह तक ये ख़बर पहुंची तो फ़रमाया जो शख़्स क़तल हुआ और अपने सिदक़ और यक़ीन पर गामज़न रहा उसने फ़ज़ीलत को हासिल किया उस को मुबारक हो दूसरे ने रुख़स्त पर अमल क्या इस पर उसे कोई मलामत नहीं है। (अहकाम उल-क़ुरआन ज2स10) तक़िया की दूसरी किस्म यानी जब माल और इमारत की वजह से लोगों से अदावत हो तो इस में उलमा का इख़तिलाफ़ है कि इस सूरत में आया हिज्रत वाजिब है या नहीं? बाअज़ उलमा ने कहा इस सूरत में भी हिज्रत वाजिब है क्योंकि अल्लाह ताला ने फ़रमाया है
और अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करो और अपने ही हाथों से अपने-आपकोतबाही में न डालो, और अच्छे से अच्छा तरीक़ा अपनाओ। निस्संदेह अल्लाह अच्छे से अच्छा काम करनेवालों को पसन्द करता है (क़ुरआन 2:195)
दूसरी दलील ये है कि माल को ज़ाए करने की भी शरीयत में मुमानअत है। और बाअज़ उलमा ने ये कहा कि किसी दुनियावी मस्लिहत की वजह से हिज्रत वाजिब नहीं होती और बाअज़ उलमा ने ये कहा कि हिज्रत वाजिब होती है लेकिन ये इबादत और क़ुरब इलाही नहीं है जिसकी वजह से सवाब हासिल हो नहज अलबलाग़ जो अहल-ए-तशीअ के नज़दीक किताब-उल-ल्लाह के बाद रोय ज़मीन पर सही तरीन किताब है इस में लिखा है अली अलमर्तज़ी ने फ़रमाया ईमान की अलामत ये है कि जहां तुमको सिदक़ से नुक़्सान और किज़्ब से नफ़ा हो वहां तुम किज़्ब पर सिदक़ को तर्जीह दो। (नहज अलबलाग़ा स296‘ मतबूआ इंतिशाररात नासिर ख़ुसरो ईरान कहाँ अली का इरशाद और कहाँ की ये तफ़सीर करना' अल्लाह के नज़दीक मुकर्रम वो है जो ज़्यादा तक़िया करे' और इसी नहज अलबलाग़ में है कि अली ने फ़रमाया ख़ुदा की क़सम अगर मेरा दुश्मनों से मुक़ाबला हो दरां हालेका मैं अकेला हूँ और उनकी तादाद से ज़मीन भरी हो तो मुझे कोई पर्वा नहीं होगी ना घबराहट होगी क्योंकि जिस गुमराही में वो मुबतला हैं और इस के मुक़ाबला में जिस हिदायत पर हूँ इस पर मुझे बसीरत है और मुझे अपने रब पर यक़ीन है और मुझे अल्लाह ताला से मुलाक़ात और हुस्न सवाब की उम्मीद है। नीज़ अगर तक़िया वाजिब होता तो अली इबतिदा तक़िया करलेते और अबूबकर से बैअत करने में छः माह तक तवक़्क़ुफ़ ना करते। और हुसैन तकी यज़ीद की बैअत करलेते और अपने रफ़क़ा समेत कर्बला में शहीद ना होते क्या अली और हुसैन को ये इलम नहीं था कि जान की हिफ़ाज़त के लिए तक़िया करना वाजिब है और क्या ये तसव्वुर किया जा सकता है कि इमाम-ऊल-अईमा तारिक वाजिब थे। अंबिया अलैहिम अस्सलाम की तरफ़ जो तक़िया की निसबत की गई है इस के बुतलान के लिए क़ुरआन-ए-मजीद की ये आयात काफ़ी हैं
जो अल्लाह के सन्देश पहुँचाते थे और उसी से डरते थे और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते थे। और हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है। - (क़ुरआन 33:39)
ऐ रसूल! तुम्हारे रब की ओर से तुम पर जो कुछ उतारा गया है, उसे पहुँचा दो। यदि ऐसा न किया तो तुमने उसका सन्देश नहीं पहुँचाया। अल्लाह तुम्हें लोगों (की बुराइयों) से बचाएगा। निश्चय ही अल्लाह इनकार करनेवाले लोगों को मार्ग नहीं दिखाता (क़ुरआन 5:67)
अल्लामा कुर्तुबी
संपादित करेंअल्लामा अबू अब्दुल्ला मुहम्मद बिन कुर्तुबी मलिकी लिखते हैं जिनकी मृत्यु 668 हिजरी में हुई थी : जब कोई मुसलमान अविश्वासियों के बीच घर जाता है, तो उसके लिए अपनी जान बचाने के लिए धीरे से जवाब देना जायज़ है, जबकि उसका दिल पुष्टि से संतुष्ट है, और जब तक कि हत्या, अंग-भंग या गंभीर उत्पीड़न का कोई खतरा न हो करना जायज़ नहीं है' और जिस व्यक्ति को कुफ़्र करने के लिए मजबूर किया गया है, तो उसका सही धर्म यह है कि वह दृढ़तापूर्वक धर्म पर कायम रहे और निन्दा का एक शब्द भी न कहे, भले ही वह स्वतंत्र हो। (अल-जामी अल-अहकाम अल-कुरआन, खंड 5, पृष्ठ 57, अंतरहाट नासिर खोस्रो, ईरान, 1387 एएच में प्रकाशित)
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "तक़िय्या - का अर्थ".
- ↑ "Tanzil - Quran Navigator | القرآن الكريم". tanzil.net. अभिगमन तिथि 2024-06-25.