मुसैलमा कज्ज़ाब
मुसैलमा (असली नाम मुसैलमाह इब्न हबीब) मुहम्मद के जीवनकाल के दौरान अरब में पैगम्बरत्व के दावेदार के रूप में उभरे। [1] जब यह मामला के जीवन में चला, तो मुसैलमा ने भी उन्हें एक पत्र लिखा और उनसे उनकी पैग़म्बरी में भाग लेने के लिए कहा, जिसे उन्होंने पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया और उनके ज्ञान को अस्वीकार कर दिया और उन्हें झूठा साबित कर दिया। उनके जाने के बाद, पहले खलीफा अबू बक्र सिद्दीक के शासनकाल के दौरान, जब मुसलमान अन्य धर्मत्यागियों को खत्म करने में व्यस्त थे, मुसैलमा पैगम्बरी के अपने दावे ٰ फैलाने में व्यस्त थे और इतनी ताकत हासिल कर ली कि उनकी चालीस हजार लोगों की सेना ने यमामा पर हमला कर दिया घाटियाँ उसने औपचारिक खिलाफत की वैधता को चुनौती दी और विद्रोह कर दिया और उन लोगों को मारना शुरू कर दिया जो उसकी भविष्यवाणी में विश्वास नहीं करते थे। इसलिए इसका दमन अपरिहार्य था.
अबूबकर ने मुसैलमा के मुकाबले लिए इक्रिमा बिन अबू जहल को यमामा की ओर रवाना किया और इक्रिमा की मदद के लिए शरजैल को भी रवाना किया। शरजैल के पहुँचने से पूर्व ही इक्रिमा ने लड़ाई का आरंभ कर दिया लेकिन इन्हें शिकस्त हुई। इस समय में इक्रिमा भी मदद को आ पहुँचे लेकिन दुश्मन की शक्ति बहुत बढ़ चुकी थी। मुसैलमा की पैगम्बरत्व की समर्थन
बनू हनीफा ने भी की इस समय इनका बहुत ज़ोर था। शरजैल ने भी पहुँचते ही दुश्मन से मुकाबला शुरू कर दिया लेकिन कामयाबी न हुई। इस समय में हज़रत खालिद बन वलीद अन्य धर्म त्यागियों से निमट चुके थे। हज़रत बकर ने इन्हें इक्रिमा और शरजैल की मदद के लिए यमामा की ओर रुख करने का आदेश दिया।[2] खालिद बन वलीद अपना पलटन ले कर यमामा की ओर रवाना हुए। मुसैलमा भी खालिद की रवानगी की खबर सुन कर मुकाबले की तैयारियों में व्यस्त हुआ और यमामा से बाहर जग की तैयारी की। मुसलमानों की पलटन की तादाद तेरह हज़ार थी। ।[3] बहुत सख्त मुकाबला हुआ। पहला मुकाबला बनू हनीफा से हुआ। इस्लामी पलटन ने इस दिलेरी से मुकाबला किया बनू हनीफा बदहवास हो कर भाग निकले और मुसैलमा के बाकी आदमी एक एक कर के खालिद की सेनाओं का निशाना बनते रहे। जब मुसैलमा ने लड़ाई की ये सूरत हाल देखी तो वो अपने फ़ौजी के साथ जान बचा कर भाग निकला और मैदान युद्ध से कुछ दूर एक बाग में शरण ली लेकिन मुसलमानों को तो इस फितने को जुड़ से उखाड़ना था इस लिए खालिद बन वलीद ने बाग की घेराबंदी कर लिया। बाग की दीवार इतनी ऊँची थी के उसे कोई भी पार नहीं कर सकता था। उस समय एक सहाबी हज़रत ज़ैद बिन कैस ने हज़रत खालिद बन वलीद को कहा मैं ये दीवार पार कर के तुम्हारे लिए दरवाजे को खोल दूँ गा फिर तुम मेरे लिए एक ऊँची सीढ़ी बना दो हज़रत खालिद बन वलीद राज़ी हो गए। उगले दिन हज़रत ज़ैद बन कैस सीढ़ी के साथ बाग में उतर गए। तब मुसैलमा कज्ज़ाब ने अपने फ़ौजी को आदेश दिया कह इसे हत्या कर दो। तब इसके फ़ौजी ने हज़रत ज़ैद बन कैस के साथ लड़ाई शुरू कर दी। लड़ाई में हज़रत ज़ैद बन कैस का कन्धा कट गया। फिर भी इन्होंने दरवाजे को खोल दिया। इधर मुस्लिम सफ बंदी कर चुके थे। मुस्लिम अंदर दाखिल होना शुरू हो गए और एक दफ़ा फिर घमासान की युद्ध शुरू हो गई। अचानक हज़रत खालिद बन वलीद भाला ले कर मुसैलमा को पुकारने लगे،या अदू अल्लाह! और मुसैलमा पर फेंक दिया, मगर इसके मुहाफ़जों ने ढाल बन कर इसे बचा लिया। उस समय उसके मुहाफ़िज़ गैर परिमित तौर पर उसे छोड़ के चले गए। फिर उसे हज़रत हमजा के वहसी कातिल बिन हर्ब (जो मुस्लिम हो चुके थे) ने ऐसा भाला मारा कह मुसैलमा वहीं ढेर हो गया। इस तरह उसने हज़रत हमज़ा को शहीद करने का कफ्फारा अदा किया।[2] उसके पलटन के आधे आदमी मारे गए। लगभ यमामा के हर घर में सफ मातम बिछ गई। युद्ध के ख़ात्मा के बाद खालिद बन वलीद ने यमामा के ज़िम्मेदारों से सुलह कर ली। ये युद्ध 'युद्ध यमामा' के नाम से जाना जाता है।
मुसैलमा और पैगम्बरी के अन्य दावेदारों के ख़ात्मे से इस्लामी साम्राज्य के लिए एक बड़ा ख़तरा ख़त्म हो गया, जिसमें हज़रत अबू बक्र की धार्मिक और राजनीतिक अंतर्दृष्टि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस्लाम को अराजकता से बचाने के लिए यह आपकी बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस्लामी इतिहास की ये जिहादी घटनाएँ यह सबक सिखाती हैं कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने जो धर्म और सन्देश दिया था, उसकी रक्षा उनके साथियों यानी सहाबा ने की और अगली पीढ़ियों तक पहुँचाकर अपने लिए पूँजी बनाई। इस दुनिया में और उसके बाद.
इन्हें भी देखिये
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ https://www.nawaiwaqt.com.pk/12-Apr-2015/376030
- ↑ अ आ https://dailypakistan.com.pk/09-Apr-2018/761800
- ↑ ابن خلدون جلد اول صفحہ 245