उस्ताद तेगअली भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समकालीन हिन्दी (भोजपुरी) साहित्यकार थे। उनके जन्म-मरण के संबंध में केवल इतना ही ज्ञात है कि वे भारतेंदु जी के समकालीन थे और उनकी मंडली में उठते-बैठते थे। काशी के तेलिया नाले और भदऊँनामक मुहल्ले में उनका निवासस्थान बताया जाता है। वेशभूषा, रहन सहन और बोलचाल में बनारसी थे।

कोई शिक्षा-दीक्षा नहीं हुई थी। रचनाएँ 'काशिकी' में हुई हैं। कहीं-कहीं उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ है और 'अमरदपस्ती' में कुछ मुसलमानी संस्कारों की बू होने के बावजूद निर्गुण और सूफी विचारधारा से ओतप्रोत हैं। रचनाओं की शब्दावली सरल, सुबोध एवं भाषा चलती हुई बनारसी या काशिकी है। इनकी रचनाएँ होली, कजली के दंगलों में चाव से पढ़ी जाती थीं। ये स्वयं भी उनमें भाग लेते थे। रचनाओं में बनारसी संस्कृति और जीवन का चित्रण बनारसी शैली में मिलता है।

तेगअली ने अपनी रचनाओं में अपना उपनाम 'राजा' रखा है। रामकृष्ण वर्मा ने उनकी गजलों का प्रथम प्रकाशन 'बदमाश दर्पण' में किया था। उपलब्ध रचनाओं का संकलन 'रुद्र' काशिकेय ने 'तेगअली और काशिका' नामक संग्रह में प्रकाशित किया है। इसमें बिरहा ९, चैती ५, कजली ३, भजन ५, गज़ल २३ संग्रहीत हैं। उदाहरण--

संझा के आज आवै कऽ करार कईले बाय
राजन कऽ रजा राम धै राजा हमार बाय ॥१॥
नागिन मतिन तऽ गाल पै जुल्फी कऽ बार बाय
भौं औ बरौनी राम धै बिच्छी कऽ आर बाय ॥२॥