तेरे बिना ज़िन्दगी से (गीत)
तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं ... " कितना आश्चर्य कि, एक संगीतकार जिसे उर्दू क्या, हिंदी के भी सारे शब्दों का पूर्ण ज्ञान नहीं वहीं, दूसरी ओर एक गीतकार जो लिखता उर्दू में हो और जिसकी सोच इतनी गहरी कि, भावों में डूबने पर ही समझ आए। फिर भी हिंदी फिल्म संगीत में जब भी ये जोड़ी साथ आई बस कमाल ही कर गई। इसका सीधा-सीधा मतलब ये कि, भाषा, तहज़ीब और रहन-सहन से भी ऊपर कोई चीज़ है, जो दो लोगों को आपस में जोड़ देती है। हाँ, 'पंचम दा' और 'गुलज़ार' के बीच भी ऐसा ही कुछ था।
की आख़िर क्या ख़ास था इस गीत में? गुलज़ार साहब के जादुई शब्द, पंचम दा की धुन, लता-किशोर की गायिकी या फिर पर्दे पर संजीव कुमार व सुचित्रा सेन की जीवंत अदाकारी ...? दरअसल इस में सब का सम्मिलित योगदान था और यही वज़ह है कि, आज इस गीत की गिनती सबसे ज्यादा सुने जाने वाले गीतों में होती है। आपको ये जानकर भी हैरानी होगी की, इस गीत के सृजन के वक़्त दुर्गा पूजा का समय था और उस ज़माने में सभी बंगाली संगीतकार दुर्गापूजा के सांस्कृतिक उत्सव के लिए धुनें तैयार करते थे। इस काम में व्यस्तता होने पर वे फ़िल्मों के भी अनुबंध ठुकरा देते थे। पंचम दा ने भी इस गीत की धुन को सबसे पहले दुर्गापूजा के महोत्सव के लिए तैयार किया था। गीत के बोल थे "जेते जेते पाथे होलो देरी ..." और गुलज़ार साहब के आग्रह पर यही धुन उन्हें थमा दी। गुलज़ार साहब ने इसी धुन को पकड़ कर बोल रचे। पर एक मुश्किल और थी कि गुलज़ार साहब गीत के बोलों के बीच नायक व नायिका के कुछ संवाद भी रखना चाहते थे। पंचम दा गीत की लय में इस तरह के अवरोध के इच्छुक नहीं थे, पर अंततः उन्हें झुकना पड़ा। आज भी ये संवाद इस गीत के साथ उतने ही खूबसूरत लगते हैं, जितने की इसके अंतरे....
गीत का फ़िल्मांकन अनंतनाग में आठवीं सदी के गौरवशाली अतीत वाले 'मार्तण्ड सन टेंपल' में हुआ है। पार्श्व से गीत बजता है, और 'जयराम आचार्या' जी की सितार की मधुर धुन आपको गीत के मुखड़े पर लाती है और फ़िर बरसों के लंबे अंतराल के बाद मिले नायक व नायिका का सुख-दुख गुलज़ार के शब्दों में बयाँ होता है। दरअसल गुलज़ार साहब ने मुखड़े में भावनाओं का जो विरोधाभास रचा वो ही इस गीत का सार है। ये है वह गीत। गीत के मध्य संवादों को ज्यों का त्यों रखा गया है।[1]
- ↑ Surjit Singh Parmar