त्रैतवाद वह भारतीय दर्शन है जो ईश्वर, जीवात्माओं और प्रकृति - इन तीनों की पृथक सत्ता मानता है। वेद मानता है इसे ही त्रैतवाद कहते हैं। त्रैतवाद में प्रत्यक्ष-परोक्ष जितना भी संसार है, उसके मूल में तीन तत्व माने गये हैं — ईश्वर, जीव और प्रकृति । ये तीनों तत्व एक-दूसरे से पूर्णरूप से भिन्न हैं। न कोई किसी का परिणाम है और न ही कोई किसी का विवर्त ।

इस संसार में जीवात्माएँ हैं, प्रकृति है अर्थात जड़ जगत तथा एक ईश्वर है। इन तीनों के बिना व्यवहार नहीं चल सकता। जिस प्रकार कोई डॉक्टर हो, दवा हो, लेकिन रोगी ना हो तो कोई मतलब नहीं है। यदि रोगी है, डॉक्टर है और दवा नहीं है तो भी व्यवहार नहीं चलेगा। दवा भी होनी चाहिए, डॉक्टर भी होना चाहिए और रोगी भी चाहिए। इसी तरह जैसे दुकानदार होना चाहिए, ग्राहक भी होना चाहिए और सामान भी होना चाहिए। तीनों के बिना व्यापार नहीं चलता। जैसे अध्यापक, विद्यार्थी और पुस्तक आदि साधन होने चाहिए तब व्यवहार चलते हैं। इस संसार में यह सभी जीवात्माएँ रोगी की तरह है और ईश्वर रोग निवारक वैद्य की तरह तथा प्रकृति लक्ष्य तक पहुँचने के लिए औषध की तरह है। इन तीनों के पृथक अस्तित्व को माने, जाने बिना मोक्ष संभव नहीं है।

आधुनिक युग में महर्षि दयानन्द सरस्वती त्रैतवाद के उद्गाता माने जा सकते हैं। उन्होंने ने जब उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वैदिक धर्म का प्रचार आरम्भ किया तो उस समय त्रैतवाद की कहीं चर्चा नहीं होती थी। विद्वत जगत में आचार्य शंकर प्रोक्त अद्वैतवाद प्रतिष्ठित था जो केवल एक ईश्वर की ही सत्ता को मानता है, जीव व प्रकृति की पृथक व अनादि स्वतन्त्र सत्ता को नहीं। उन दिनों भक्तिवाद का भी जोर था जिसके अनुसार पुराणों के आधार पर प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप मन्दिरों में जाकर भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों के आगे वन्दन, सिर नवाना, पूजोपचार व व्रतोपवास आदि करने को ही जीवन का उद्देश्य और मनुष्य जन्म की सफलता माना जाता था। महर्षि दयानन्द ने वेद, वेदांग, उपांग, उपनिषद सहित समस्त उपलब्ध प्राचीन साहित्य का अध्ययन किया था जिससे वह जान सके कि ईश्वर का जीवात्मा और प्रकृति से पृथक स्वतन्त्र अस्तित्व हैं। ईश्वर से अतिरिक्त जीव व प्रकृति पृथक हैं, यह ईश्वर के बनाये व उसके अंश आदि नहीं हैं। जीव अनादि व चेतन तत्व है जबकि प्रकृति अनादि व जड़ तत्व है और यह दोनों ही अनेक बातों में ईश्वर के वश व नियन्त्रण में हैं। ईश्वर-जीव-प्रकृति की एक दूसरे से भिन्न पृथक व स्वतन्त्र सत्ताओं को ही त्रैतवाद के नाम से जाना जाता है।

इन्हें भी देखें

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