त्रोटकाचार्य
त्रोटकाचार्य (8वीं शताब्दी) आदि शंकराचार्य के शिष्य थे जिन्हें शंकराचार्य ने ज्योतिर्मठ पीठ (बद्रीनाथ) का प्रथम जगद्गुरू बनाया था। त्रोटकाचार्य ने केरल के त्रिशूर में 'वदक्के मठम्' स्थापित किया। तोटकाचार्य की कथा
यदि हम यह कहें कि आदि शंकराचार्य जी ने तोटकाचार्य के रूप में एक नररत्न ही खोजा था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | उनके के चार मुख्य शिष्यों मे से एक तोटकाचार्य जी थे | ये वहीं चार शिष्य थे , जिन्हें आगे जाकर आदि शंकराचार्यजी ने चार पीठों की व्यवस्था सौंपी | उनमें से एक थे – तोटकाचार्य | तोटकाचार्य जी ने उत्तर भारत के ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य जब शृंगेरी में थे, तब उनकी भेंट एक बालक से हुई |बालक का नाम गिरी था | शंकराचार्यजी ने उसे अपना शिष्य स्वीकार लिया |
गिरी बडा श्रमी था और अन्य शिष्यों की भाँति अपना पूरा समय ग्रंथपठन में नहीं लगाता था| उसका अधिकांश समय सद्गुरू शंकराचार्य जी की काया, वाचा, मन से सेवा करने में ही व्यतीत होता था |इसी कारण अन्य शिष्य उसे शास्त्राभ्यास में बहुत कच्चा मानते थे | वह उनके लिए एक हँसी का पात्र बना रहता था |
एक दिन जब गिरी, आदि शंकराचार्यजी के वस्त्र नदी में धो रहा था, उसी समय आदि शंकराचार्यजी ने मठ में अद्वैत वेदान्त की कक्षा आरंभ की | परंतु गिरी को वहाँ न देख आदि शंकराचार्य उसकी प्रतिक्षा करने लगे | तब एक शिष्य ने कहाँ, कि आचार्य गिरी को सिखाना तो किसी दिवार को सिखाने जितना निरर्थक है |
शंकराचार्यजी समझ गए की अन्य शिष्यों का अहं व भ्रम दूर करने का यहीं समय है | आचार्य ने मन के द्वारा ही गिरी को शास्त्रों का समस्त ज्ञान दे दिया | वहाँ नदीतट पर गिरी को ज्ञानप्राप्ती से आत्मिक आनंद की अनुभूती हुई | वह उसी भाव में तल्लीनता की अवस्था में अपने श्रीगुरू के समक्ष चले आये | सद्गुरू के प्रत्यक्ष सहज कृतार्थ भाव से उन्होंने तोटकाष्टक इस गुरूस्तुती की मन में रचना कर उसका गायन किया |
पूरे समय गुरुसेवा में रत रहने वाले गिरी के मुख से शास्त्रों का ज्ञान सुन बाकी शिष्य हतप्रद और शर्मसार हुए |तोटक वृत्त में सर्वोत्तम रचना करने के कारण आचार्यजी ने उनका नाम तोटकाचार्य रखा
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