बद्रीनाथ मन्दिर

भगवान विष्णु के पवित्र मंदिर

बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित एक हिन्दू मन्दिर है। यह हिंदू देवता विष्णु को समर्पित मंदिर है और यह स्थान इस धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों, चार धामों, में से एक यह एक प्राचीन मंदिर है जिसका निर्माण ७वीं-९वीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं। मन्दिर के नाम पर ही इसके इर्द-गिर्द बसे नगर को भी बद्रीनाथ ही कहा जाता है। भौगोलिक दृष्टि से यह स्थान हिमालय पर्वतमाला के ऊँचे शिखरों के मध्य, गढ़वाल क्षेत्र में, समुद्र तल से ३,१३३ मीटर (१०,२७९ फ़ीट) की ऊँचाई पर स्थित है। जाड़ों की ऋतु में हिमालयी क्षेत्र की रूक्ष मौसमी दशाओं के कारण मन्दिर वर्ष के छह महीनों (अप्रैल के अंत से लेकर नवम्बर की शुरुआत तक) की सीमित अवधि के लिए ही खुला रहता है। यह भारत के कुछ सबसे व्यस्त तीर्थस्थानों में से एक है; २०१२ में यहाँ लगभग १०.६ लाख तीर्थयात्रियों का आगमन दर्ज किया गया था।

यह लेख निर्वाचित लेख बनने के लिए परखने हेतु रखा गया है। अधिक जानकारी के लिए निर्वाचित लेख आवश्यकताएँ देखें।
बद्रीनाथ मन्दिर
बद्रीनाथ
बद्रीनाथ मन्दिर का प्रवेश द्वार
बद्रीनाथ मन्दिर का प्रवेश द्वार
धर्म संबंधी जानकारी
सम्बद्धताहिन्दू धर्म
देवताबद्रीनाथ (विष्णु)
अवस्थिति जानकारी
अवस्थितिबद्रीनाथ
ज़िलाचमोली
राज्यउत्तराखण्ड
देशभारत
भारत का उत्तराखण्ड राज्य हलके पीले रंग में
भारत का उत्तराखण्ड राज्य हलके पीले रंग में
उत्तराखण्ड में अवस्थिति
भौगोलिक निर्देशांक30°44′41″N 79°29′28″E / 30.744695°N 79.491175°E / 30.744695; 79.491175निर्देशांक: 30°44′41″N 79°29′28″E / 30.744695°N 79.491175°E / 30.744695; 79.491175
वास्तु विवरण
निर्माताआदि शंकराचार्य
निर्माण पूर्ण७वीं–९वीं शताब्दी

बद्रीनाथ मन्दिर में हिंदू धर्म के देवता विष्णु के एक रूप "बद्रीनारायण" की पूजा होती है। यहाँ उनकी १ मीटर (३.३ फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने ८वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था। इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है। यद्यपि, यह मन्दिर उत्तर भारत में स्थित है, "रावल" कहे जाने वाले यहाँ के मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य के नम्बूदरी सम्प्रदाय के ब्राह्मण होते हैं। बद्रीनाथ मन्दिर को उत्तर प्रदेश राज्य सरकार अधिनियम – ३०/१९४८ में मन्दिर अधिनियम – १६/१९३९ के तहत शामिल किया गया था, जिसे बाद में "श्री बद्रीनाथ तथा श्री केदारनाथ मन्दिर अधिनियम" के नाम से जाना जाने लगा। वर्तमान में उत्तराखण्ड सरकार द्वारा नामित एक सत्रह सदस्यीय समिति दोनों, बद्रीनाथ एवं केदारनाथ मन्दिरों, को प्रशासित करती है।

विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण जैसे कई प्राचीन ग्रन्थों में इस मन्दिर का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी से पहले आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध में भी इसकी महिमा का वर्णन है। बद्रीनाथ नगर, जहाँ ये मन्दिर स्थित है, हिन्दुओं के पवित्र चार धामों के अतिरिक्त छोटे चार धामों में भी गिना जाता है और यह विष्णु को समर्पित १०८ दिव्य देशों में से भी एक है। एक अन्य संकल्पना अनुसार इस मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से पुकारते हैं और विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मन्दिरों – योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री के साथ जोड़कर पूरे समूह को "पंच-बद्री" के रूप में जाना जाता है।

ऋषिकेश से यह २९४ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। मन्दिर तक आवागमन सुलभ करने के लिए वर्तमान में चार धाम महामार्ग तथा चार धाम रेलवे जैसी कई योजनाओं पर कार्य चल रहा है।

नामकरण संपादित करें

इस संदूक को: देखें  संवाद  संपादन

हिन्दू धर्म
श्रेणी

 
इतिहास · देवता
सम्प्रदाय · पूजा ·
आस्थादर्शन
पुनर्जन्म · मोक्ष
कर्म · माया
दर्शन · धर्म
वेदान्त ·योग
शाकाहार शाकम्भरी  · आयुर्वेद
युग · संस्कार
भक्ति {{हिन्दू दर्शन}}
ग्रन्थशास्त्र
वेदसंहिता · वेदांग
ब्राह्मणग्रन्थ · आरण्यक
उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता
रामायण · महाभारत
सूत्र · पुराण
विश्व में हिन्दू धर्म
गुरु · मन्दिर देवस्थान
यज्ञ · मन्त्र
हिन्दू पौराणिक कथाएँ  · हिन्दू पर्व
विग्रह
प्रवेशद्वार: हिन्दू धर्म

 

हिन्दू मापन प्रणाली

हिमालय में स्थित बद्रीनाथ क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में अलग नामों से प्रचलित रहा है। स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को "मुक्तिप्रदा" के नाम से उल्लेखित किया गया है,[1] जिससे स्पष्ट हो जाता है कि सत युग में यही इस क्षेत्र का नाम था। त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को "योग सिद्ध", और फिर द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे "मणिभद्र आश्रम" या "विशाला तीर्थ" कहा गया है।[1] कलियुग में इस धाम को "बद्रिकाश्रम" अथवा "बद्रीनाथ" के नाम से जाना जाता है। स्थान का यह नाम यहाँ बहुतायत में पाए जाने वाले बद्री (बेर) के वृक्षों के कारण पड़ा था।[1] एडविन टी॰ एटकिंसन ने अपनी पुस्तक, "द हिमालयन गजेटियर" में इस बात का उल्लेख किया है कि इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालाँकि अब उनका कोई निशान तक नहीं बचा है।[2]

बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है - मुनि नारद एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवान विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए।[3][4] जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं।[5] माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि "हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।"[6]

पौराणिक कथाएँ संपादित करें

पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार, बद्रीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) के रूप में अवस्थित था। जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बँट गई,[7] तथा इस स्थान पर से होकर बहने वाली धारा अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई। मान्यतानुसार भगवान विष्णु जब अपने ध्यानयोग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के समीप यह स्थान बहुत भा गया। नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया, और क्रंदन करने लगे। उनका रूदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा, और उन्होंने बालक के समीप उपस्थित होकर उसे मनाने का प्रयास किया, और बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। यही पवित्र स्थान वर्तमान में बद्रीविशाल के नाम से सर्वविदित है।[8]

विष्णु पुराण में इस क्षेत्र से संबंधित एक अन्य कथा है, जिसके अनुसार धर्म के दो पुत्र हुए- नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे। अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का चश्मा मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया।[4] यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी,[9] और नर-नारायण ने ही क्रमशः अगले जन्म में क्रमशः अर्जुन तथा कृष्ण के रूप में जन्म लिया था।[10] महाभारतकालीन एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों का आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करते हैं।[11]

ग्रन्थों में वर्णन संपादित करें

बद्रीनाथ मन्दिर का उल्लेख विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण समेत कई प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है।[12] कई वैदिक ग्रंथों में (लगभग १७५०-५०० ईपू) भी मन्दिर के प्रधान देवता, बद्रीनाथ का उल्लेख मिलता है।[13] स्कन्द पुराण में इस मन्दिर का वर्णन करते हुए लिखा गया है: "बहुनि सन्ति तीर्थानी दिव्य भूमि रसातले। बद्री सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः॥", अर्थात स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह अनेकों तीर्थ स्थान हैं, परन्तु फिर भी बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी होगा। मन्दिर के आसपास के क्षेत्र को पद्म पुराण में आध्यात्मिक निधियों से परिपूर्ण कहा गया है।[14] भागवत पुराण के अनुसार बद्रिकाश्रम में भगवान विष्णु सभी जीवित इकाइयों के उद्धार हेतु नर तथा नारायण के रूप में अनंत काल से तपस्या में लीन हैं।

महाभारत में बद्रीनाथ का उल्लेख करते हुए लिखा गया है - "अन्यत्र मरणामुक्ति: स्वधर्म विधिपूर्वकात। बदरीदर्शनादेव मुक्ति: पुंसाम करे स्थिता॥" अर्थात अन्य तीर्थों में तो स्वधर्म का विधिपूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने से ही मनुष्य की मुक्ति होती है, किन्तु बद्री विशाल के दर्शन मात्र से ही मुक्ति उसके हाथ में आ जाती है।[12] इसी तरह वराहपुराण के अनुसार मनुष्य कहीं से भी बद्री आश्रम का स्मरण करता रहे तो वह पुनरावृत्तिवर्जित वैष्णव धाम को प्राप्त होता है, यथा: "श्री बदर्याश्रमं पुण्यं यत्र यत्र स्थित: स्मरेत। स याति वैष्णवम स्थानं पुनरावृत्ति वर्जित:॥" सातवीं से नौवीं शताब्दी के मध्य आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध ग्रन्थ में भी इस मन्दिर की महिमा का वर्णन है; सन्त पेरियालवार द्वारा लिखे ७ स्तोत्र, तथा तिरुमंगई आलवार द्वारा लिखे १३ स्तोत्र इसी मन्दिर को समर्पित हैं। यह मन्दिर भगवन विष्णु को समर्पित १०८ दिव्यदेशम् में से भी एक है।[15]

इतिहास संपादित करें

 
नर तथा नारायण
माना जाता है कि इन दोनों ने बद्रीनाथ मन्दिर में कई वर्षों तक तपस्या की थी।

बद्रीनाथ मन्दिर की उत्पत्ति के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ स्रोतों के अनुसार, यह मन्दिर आठवीं शताब्दी तक एक बौद्ध मठ था, जिसे आदि शंकराचार्य ने एक हिन्दू मन्दिर में परिवर्तित कर दिया।[16][17] इस तर्क के पीछे मन्दिर की वास्तुकला एक प्रमुख कारण है, जो किसी बौद्ध विहार (मन्दिर) के सामान है; इसका चमकीला तथा चित्रित मुख-भाग भी किसी बौद्ध मन्दिर के समान ही प्रतीत होता है।[3] अन्य स्रोत बताते हैं कि इस मन्दिर को नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा एक तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित किया गया था। एक अन्य मान्यता यह भी है कि शंकराचार्य छः वर्षों तक (८१४ से ८२० तक) इसी स्थान पर रहे थे। इस स्थान में अपने निवास के दौरान वह छह महीने के लिए बद्रीनाथ में, और फिर शेष वर्ष केदारनाथ में रहते थे। हिंदू अनुयायियों का कहना है कि बद्रीनाथ की मूर्ति देवताओं ने स्थापित की थी। जब बौद्धों का पराभव हुआ, तो उन्होंने इसे अलकनन्दा में फेंक दिया। शंकराचार्य ने ही अलकनंदा नदी में से बद्रीनाथ की इस मूर्ति की खोज की, और इसे तप्त कुंड नामक गर्म चश्मे के पास स्थित एक गुफा में स्थापित किया।[14][18] तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।[19]

 
१८८२ के गढ़वाल क्षेत्र के मानचित्र पर बद्रीनाथ की स्थिति।

एक पारंपरिक कहानी के अनुसार शंकराचार्य ने परमार शासक राजा कनक पाल की सहायता से इस क्षेत्र से सभी बौद्धों को निष्कासित कर दिया था।[20] इसके बाद कनकपाल, और उनके उत्तराधिकारियों ने ही इस मन्दिर की प्रबन्ध व्यवस्था संभाली। गढ़वाल के राजाओं ने मन्दिर प्रबन्धन के खर्चों को पूरा करने के लिए ग्रामों के एक समूह (गूंठ) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त मन्दिर की ओर आने वाले रास्ते पर भी कई ग्राम बसाये गए, जिनसे हुई आय का उपयोग तीर्थयात्रियों के खाने और ठहरने की व्यवस्था करने के लिए किया जाता था।[20] समय के साथ-साथ, परमार शासकों ने "बोलांद बद्रीनाथ" नाम अपना लिया, जिसका अर्थ बोलते हुए बद्रीनाथ है। उनका एक अन्य नाम "श्री १०८ बद्रीश्चारायपरायण गढ़राज महिमहेन्द्र, धर्मवैभव, धर्मरक्षक शिरोमणि" भी था।[20] इस समय तक गढ़वाल राज्य के सिंहासन को "बद्रीनाथ की गद्दी" कहा जाने लगा था, और मन्दिर में जाने से पहले भक्त राजा को श्रद्धा अर्पित करते थे। यह प्रथा उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध तक जारी रही।[20] सोलहवीं शताब्दी में गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने बद्रीनाथ मूर्ति को गुफा से लाकर वर्तमान मन्दिर में स्थापित किया।[14] मन्दिर के बन जाने के बाद इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई ने यहां स्वर्ण कलश छत्री चढ़ाई थी।[21] बीसवीं शताब्दी में जब गढ़वाल राज्य को दो भागों में बांटा गया, तो बद्रीनाथ मन्दिर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया; हालाँकि मन्दिर की प्रबंधन समिति का अध्यक्ष तब भी गढ़वाल का राजा ही होता था।[20]

मन्दिर की आयु, और क्षेत्र में निरन्तर आने वाले हिमस्खलनों के कारण होने वाली क्षति के फलस्वरूप मन्दिर का कई बार नवीनीकरण हुआ है। सत्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल के राजाओं द्वारा मन्दिर का विस्तार करवाया गया था। १८०३ में इस हिमालयी क्षेत्र में आये एक भूकम्प ने मन्दिर को भारी क्षति पहुंचाई थी, जिसके बाद यह मन्दिर जयपुर के राजा द्वारा पुनर्निर्मित करवाया गया था।[3] निर्माण कार्य १८७० के दशक के अंत तक चल ही रहे थे,[22] हालाँकि यह मन्दिर प्रथम विश्व युद्ध के समय तक बनकर पूरी तरह से तैयार हो गया था।[23] इस समय तक मन्दिर के आस पास एक छोटा सा नगर भी बसने लगा था, जिसमें मन्दिर के कर्मचारियों के आवास के रूप में २० झोपड़ियां थी।[23] तब तीर्थयात्रियों की संख्या आमतौर पर सात से दस हजार के बीच रहती थी, हालाँकि प्रत्येक बारह वर्षों में आने वाले कुम्भ मेल्डे त्यौहार के समय इन आगंतुकों की संख्या ५०,००० तक बढ़ जाती थी।[22] मन्दिर को विभिन्न राजाओं द्वारा दान दिए गए कई ग्रामों से भी राजस्व प्राप्ति होती थी। २००६ में राज्य सरकार ने अवैध अतिक्रमण पर रोक लगाने के लिए बद्रीनाथ के आसपास के क्षेत्र को नो-कंस्ट्रक्शन जोन घोषित कर दिया।[24]

अवस्थिति संपादित करें

 
बद्रीनाथ मन्दिर गढ़वाल क्षेत्र में अलकनन्दा नदी के किनारे स्थित है।

बद्रीनाथ मन्दिर की भौगोलिक अवस्थिति ३०.७४° उत्तरी अक्षांश तथा ७९.४४° पूर्वी देशांतर पर है। यह स्थान, उत्तरी भारत में हिमालय की ऊँची पर्वत श्रेणियों के क्षेत्र में बसे भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में है और इस मन्दिर के नाम पर ही आसपास बसे नगर को भी बद्रीनाथ ही कहा जाता है। नगर का आधिकारिक नाम बद्रीनाथपुरी है और प्रशासनिक तौर पर यह चमोली जिले की जोशीमठ तहसील में एक नगर पंचायत है।[25] लगभग २ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस नगर की वर्ष २०११ में कुल जनसंख्या २,४3८ थी।[26]

भौगोलिक दृष्टि से यह क्षेत्र गढ़वाल हिमालय के रूप में जाना जाता है और इसी क्षेत्र की एक सुरम्य घाटी में स्थित इस स्थान की समुद्र तल से औसत ऊंचाई ३,१३३ मीटर (१०,२७९ फीट) है।[27][28] पर्वत श्रेणियों के अनुक्रम के अनुसार, यह स्थान हिमालय की उस श्रेणी पर अवस्थित है जिसे "महान हिमालय" अथवा "मध्य हिमालय" के नाम से जाना जाता है।[29][30] यह क्षेत्र उन कई पर्वतीय जलधाराओं का उद्गम स्थल है जो एक दूसरे में मिलकर अंततः भारत की प्रमुख नदी गंगा का रूप लेती हैं। इन्हीं पर्वतीय सरिताओं में से एक प्रमुख धारा अलकनन्दा इस घाटी से होकर बहती है जिसमें यह मन्दिर स्थित है। मन्दिर और शहर अलकनन्दा और इसकी सहायिका ऋषिगंगा नदी के पवित्र संगम पर स्थित हैं।[31] मन्दिर अलकनन्दा नदी के दाहिने तट पर, इसके पश्चिम में, स्थित है और मंदिर से कुछ ही दूर आगे दक्षिण में ऋषिगंगा नदी पश्चिम दिशा से आकर अलकनन्दा में मिलती है। जिस घाटी में यह संगम होता है, मन्दिर के ठीक सामने नर पर्वत, जबकि पीठ की ओर नीलाकण्ठ शिखर के पीछे नारायण पर्वत स्थित है।[13] इसके पश्चिम में २७ किलोमीटर की दूरी पर स्थित ७,१३८ मीटर ऊँचा बद्रीनाथ शिखर स्थित है।

मन्दिर के ठीक नीचे तप्त कुण्ड नामक गर्म चश्मा है। सल्फर युक्त पानी के इस चश्मे को औषधीय माना जाता है; कई तीर्थयात्री मन्दिर में जाने से पहले इस चश्मे में स्नान करना आवश्यक मानते हैं। इन चश्मों में सालाना तापमान ५५ डिग्री सेल्सियस (११३ डिग्री फ़ारेनहाइट) होता है, जबकि बाहरी तापमान आमतौर पर पूरे वर्ष १७ डिग्री सेल्सियस (६३ डिग्री फ़ारेनहाइट) से भी नीचे रहता है।[27] तप्त कुण्ड का तापमान १३० डिग्री सेल्सियस तक भी दर्ज किया जा चुका है।[32] मन्दिर में पानी के दो तालाब भी हैं, जिन्हें क्रमशः नारद कुण्ड और सूर्य कुण्ड कहा जाता है।[33]

स्थापत्य शैली संपादित करें

 
मन्दिर का प्रवेश द्वार

बद्रीनाथ मन्दिर अलकनन्दा नदी से लगभग ५० मीटर ऊंचे धरातल पर निर्मित है, और इसका प्रवेश द्वार नदी की ओर देखता हुआ है। मन्दिर में तीन संरचनाएं हैं: गर्भगृह, दर्शन मंडप, और सभा मंडप।[27][13][16] मन्दिर का मुख पत्थर से बना है, और इसमें धनुषाकार खिड़कियाँ हैं। चौड़ी सीढ़ियों के माध्यम से मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंचा जा सकता है, जिसे सिंह द्वार कहा जाता है। यह एक लंबा धनुषाकार द्वार है। इस द्वार के शीर्ष पर तीन स्वर्ण कलश लगे हुए हैं, और छत के मध्य में एक विशाल घंटी लटकी हुई है। अंदर प्रवेश करते ही मंडप है: एक बड़ा, स्तम्भों से भरा हॉल जो गर्भगृह या मुख्य मन्दिर क्षेत्र की ओर जाता है। हॉल की दीवारों और स्तंभों को जटिल नक्काशी के साथ सजाया गया है।[3] इस मंडप में बैठ कर श्रद्धालु विशेष पूजाएँ तथा आरती आदि करते हैं। सभा मंडप में ही मन्दिर के धर्माधिकारी, नायब रावल एवं वेदपाठी विद्वानों के बैठने का स्थान है। गर्भगृह की छत शंकुधारी आकार की है, और लगभग १५ मीटर (४९ फीट) लंबी है। छत के शीर्ष पर एक छोटा कपोला भी है, जिस पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है।[13][14]

गर्भगृह में भगवान बद्रीनारायण की १ मीटर (३.३ फीट) लम्बी शालीग्राम से निर्मित मूर्ति है,[34] जिसे बद्री वृक्ष के नीचे सोने की चंदवा में रखा गया है। बद्रीनारायण की इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है।[3] मूर्ति में भगवान के चार हाथ हैं - दो हाथ ऊपर उठे हुए हैं: एक में शंख, और दूसरे में चक्र है, जबकि अन्य दो हाथ योगमुद्रा (पद्मासन की मुद्रा) में भगवान की गोद में उपस्थित हैं।[27][16][35] मूर्ति के ललाट पर हीरा भी जड़ा हुआ है।[36] गर्भगृह में धन के देवता कुबेर, देवर्षि नारद, उद्धव, नर और नारायण की मूर्तियां भी हैं।[37] मन्दिर के चारों ओर पंद्रह और मूर्तियों की भी पूजा की जाती हैं। इनमें लक्ष्मी (विष्णु की पत्नी), गरुड़ (नारायण का वाहन), और नवदुर्गा (नौ अलग-अलग रूपों में दुर्गा) की मूर्तियां शामिल हैं। इनके अतिरिक्त मन्दिर परिसर में गर्भगृह के बाहर लक्ष्मी-नृसिंह और संत आदि शंकराचार्य (७८८–८२० ईसा पश्चात), नर और नारायण, वेदान्त देशिक, रामानुजाचार्य और माना गाँव के एक स्थानीय लोकदेवता घण्टाकर्ण की मूर्तियां भी हैं। बद्रीनाथ मन्दिर में स्थित सभी मूर्तियां शालीग्राम से बनी हैं।[3][27][13]

तीर्थाटन संपादित करें

चार धामबद्रीनाथरामेश्वरम
द्वारकापुरी
छोटा चार धामकेदारनाथ बद्रीनाथ
गंगोत्रीयमुनोत्री

हिंदू धर्म के सभी मतों और सम्प्रदायों के अनुयायी बद्रीनाथ मन्दिर के दर्शन हेतु आते हैं।[39][40] यहाँ काशी मठ,[41] जीयर मठ (आंध्र मठ),[42] उडुपी श्री कृष्ण मठ[43] और मंथ्रालयम श्री राघवेंद्र स्वामी मठ[44] जैसे लगभग सभी प्रमुख मठवासी संस्थानों की शाखाएं और अतिथि विश्राम गृह हैं।

बद्रीनाथ मन्दिर भगवान विष्णु को समर्पित पांच संबंधित मन्दिरों में से एक है, जिन्हें पंच बद्री के रूप में एक साथ पूजा जाता है।[45] ये पांच मन्दिर हैं - बद्रीनाथ में स्थित बद्री-विशाल (बद्रीनाथ मन्दिर), पांडुकेश्वर में स्थित योगध्यान-बद्री, ज्योतिर्मठ से १७ किमी (१०.६ मील) दूर सुबेन में स्थित भविष्य-बद्री, ज्योतिर्मठ से ७ किमी (४.३ मील) दूर अणिमठ में स्थित वृद्ध-बद्री और कर्णप्रयाग से १७ किमी (१०.६ मील) दूर रानीखेत रोड पर स्थित आदि बद्री। इन पांच मन्दिरों के साथ जब दो अन्य मन्दिरों को भी जोड़ा जाता है, तो इन सात मन्दिरों को संयुक्त रूप से सप्त-बद्री कहा जाता है। सप्त बद्री में इन पांच मन्दिरों के अतिरिक्त कल्पेश्वर के निकट स्थित ध्यान-बद्री तथा ज्योतिर्मठ-तपोवन के समीप स्थित अर्ध-बद्री भी शामिल हैं। ज्योतिर्मठ के नृसिंह बद्री को भी कभी कभी पंच-बद्री (योगध्यान बद्री के स्थान पर) या सप्त-बद्री (अर्ध बद्री के स्थान पर) में स्थान दिया जाता है। उत्तराखण्ड में पंच बद्री, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माने जाते हैं।[46]

बद्रीनाथ भारत के सबसे लोकप्रिय तथा पवित्र मन्दिर माने जाने वाले चार धामों में से एक है; अन्य धाम रामेश्वरम, पुरी और द्वारका हैं।[47] यद्यपि इन धामों की उत्पत्ति स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है, परन्तु आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित हिंदू धर्म के अद्वैत सम्प्रदाय ने इनकी उत्पत्ति का श्रेय शंकराचार्य को ही दिया है। भारत के चार कोनों में स्थित इन धामों की यात्रा हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाती है, और हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कम से कम एक बार तो इन धामों का दौरा करने की इच्छा रखता है।[48] परंपरागत रूप से, यह तीर्थयात्रा पूर्वी छोर पर स्थित पुरी से शुरू होती है, और फिर दक्षिणावर्त (घडी की दिशा में) आगे बढ़ती है।[48] इन धामों के अतिरिक्त भारत के चार कोनों में चार मठ भी स्थित हैं और उनके समीप ही उनके परिचारक मन्दिर भी हैं। ये मन्दिर हैं: उत्तर में बद्रीनाथ में स्थित बद्रीनाथ मन्दिर, पूर्व में उड़ीसा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मन्दिर, पश्चिम में गुजरात के द्वारका में स्थित द्वारकाधीश मन्दिर, और दक्षिण में कर्नाटक के शृंगेरी में स्थित श्री शारदा पीठम शृंगेरी[47][49]

यद्यपि विचारधारा के आधार पर हिंदू धर्म मुख्यतः दो संप्रदायों, अर्थात् शैव (भगवान शिव के उपासक) और वैष्णवों (भगवान विष्णु के उपासक), में विभाजित हैं, परन्तु फिर भी चार धाम तीर्थयात्रा में दोनों ही सम्प्रदायों के लोग खुलकर भाग लेते हैं।[50] चार धाम की तर्ज पर ही उत्तराखण्ड में भी चार प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं, जिन्हें संयुक्त रूप से छोटा चार धाम कहा जाता है: बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री- ये सभी हिमालय की तलहटी में स्थित हैं।[49] इनके नाम के आगे "छोटा" शब्द बीसवीं शताब्दी के मध्य में जोड़ा गया था, ताकि इन्हें मूल चार धामों से अलग किया जा सके। चूंकि आधुनिक समय में इन स्थलों के तीर्थयात्रियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है, इसलिए अब इन्हें "हिमालय के चार धाम" भी कहा जाने लगा है।[51]

बद्रीनाथ में तथा इसके समीप अन्य भी कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें "ब्रह्म कपाल" (धार्मिक अनुष्ठानों के लिए प्रयोग होने वाला एक समतल चबूतरा), "शेषनेत्र" (शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड), "चरणपादुका": (भगवान विष्णु के पैरों के निशान), "माता मूर्ति मन्दिर" (बद्रीनाथ भगवान की माता को समर्पित एक मन्दिर), "वेद व्यास गुफा" या "गणेश गुफा" (जहाँ वेदों और उपनिषदों का लेखन कार्य हुआ था) तथा पौराणिक कथाओं में उल्लिखित एक "साँपों का जोड़ा" शामिल है।[52] बद्रीनाथ से ९ किलोमीटर की दूरी पर वसु धारा नामक झरना पड़ता है, जहाँ अष्ट-वसुओं ने तपस्या की थी। मान्यता है कि इस झरने की बूंदे पापी व्यक्तियों के ऊपर नहीं गिरती हैं।[53] इसके अतितिक्त निकट ही स्थित सतोपंथ (स्वर्गारोहिणी) नमक स्थान के बारे में कहा जाता है कि यहीं से राजा युधिष्ठिर ने सदेह स्वर्ग को प्रस्थान किया था।[54]

पर्व तथा धार्मिक परम्पराएं संपादित करें

बद्रीनाथ मन्दिर में आयोजित सबसे प्रमुख पर्व माता मूर्ति का मेला है, जो मां पृथ्वी पर गंगा नदी के आगमन की ख़ुशी में मनाया जाता है। इस त्यौहार के दौरान बद्रीनाथ की माता की पूजा की जाती है, जिन्होंने, माना जाता है कि, पृथ्वी के प्राणियों के कल्याण के लिए नदी को बारह धाराओं में विभाजित कर दिया था। जिस स्थान पर यह नदी तब बही थी, वही आज बद्रीनाथ की पवित्र भूमि बन गई है। बद्री केदार यहाँ का एक अन्य प्रसिद्ध त्यौहार है, जो जून के महीने में बद्रीनाथ और केदारनाथ, दोनों मन्दिरों में मनाया जाता है। यह त्यौहार आठ दिनों तक चलता है, और इसमें आयोजित समारोह के दौरान देश-भर से आये कलाकार यहाँ प्रदर्शन करते हैं।[55]

 
रात्रिकाल में बद्रीनाथ मन्दिर

मन्दिर में प्रातःकाल होने वाली प्रमुख धार्मिक गतिविधियों में महाअभिषेक, अभिषेक, गीतापाठ और भागवत पूजा शामिल हैं, जबकि शाम को पूजा में गीत गोविन्द और आरती होती है। सभी अनुष्ठानों के दौरान अष्टोत्रम और सहस्रनाम जैसे वैदिक ग्रन्थों का उच्चारण किया जाता है। आरती के बाद, बद्रीनाथ की मूर्ति से सजावट हटा दी जाती है, और पूरी मूर्ति पर चन्दन का लेप लगाया जाता है। मूर्ति पर लगा ये चन्दन अगले दिन भक्तों को निर्मल्य दर्शन के दौरान प्रसाद के रूप में दिया जाता है। मन्दिर के लगभग सभी धार्मिक अनुष्ठान भक्तों के सामने ही किए जाते हैं, कुछ अन्य हिन्दू मन्दिरों के विपरीत, जहां ऐसे कुछ अभ्यास गुप्त रखे जाते हैं।[13] भक्त मन्दिर में बद्रीनाथ की मूर्ति के सामने पूजा करने के साथ-साथ अलकनंदा नदी के एक कुण्ड में भी डुबकी लगाते हैं। प्रचलित धारणा यह है कि इस कुण्ड में डुबकी लगाने से व्यक्ति की आत्मा शुद्ध होती है।[56] यहाँ वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। भक्तों को आम तौर पर प्रसाद में चीनी की गेंदें तथा शुष्क पत्तियां प्रदान की जाती हैं। मई २००६ से पंचमृत भी प्रसाद के रूप में दिया जाने लगा है। यह पंचामृत स्थानीय रूप से तैयार किया जाता है, और बांस की टोकरी में रखकर दिया जाता है।[24]

मन्दिर के कपाट भ्रातृ द्वितीया के दिन (या उसके बाद) अक्टूबर-नवंबर के आसपास सर्दियों के दौरान बन्द रहते हैं। जिस दिन मन्दिर के कपाट बन्द होते हैं, उस दिन एक दीपक में छह महीने के लिए पर्याप्त घी भरकर अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित की जाती है।[57] तीर्थयात्रियों और मन्दिर के अधिकारियों की उपस्थिति में मुख्य पुजारी द्वारा उस दिन विशेष पूजा भी की जाती है।[58] इसके बाद बद्रीनाथ की मूर्ति को मन्दिर से ४० मील (६४ किमी) दूर स्थित ज्योतिर्मठ के नरसिंह मंदिर में स्थानांतरित कर दिया जाता है। लगभग छह महीनों तक बन्द रहने के बाद मन्दिर के कपाट अक्षय तृतीया के अवसर पर अप्रैल-मई के आसपास फिर से खोल दिये जाते हैं।[59] कपाट खुलने के दिन बड़ी संख्या में तीर्थयात्री अखण्ड ज्योति को देखने के लिए इकट्ठा होते हैं।[57][60] बद्रीनाथ मन्दिर भारत के उन कुछ पवित्र स्थलों में से एक है, जहां हिंदू लोग पुजारियों की सहायता से अपने पूर्वजों के लिए बलि चढ़ाते हैं।[61]

प्रबन्धन संपादित करें

 
बद्रीनाथ में अलकनन्दा नदी

बद्रीनाथ मन्दिर को उत्तर प्रदेश राज्य सरकार अधिनियम संख्या ३०/१९४८ में मन्दिर अधिनियम संख्या १६/१९३९[62] के तहत शामिल किया गया था, जिसे बाद में "श्री बद्रीनाथ तथा श्री केदारनाथ मन्दिर अधिनियम" के नाम से जाना जाने लगा। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार राज्य सरकार द्वारा नामित एक समिति दोनों मन्दिरों का प्रबन्धन करती है। समिति के सदस्यों में बढ़ोतरी करने हेतु इस अधिनियम को २००२ में संशोधित किया गया, जिसके बाद कई सरकारी अधिकारियों और एक उपाध्यक्ष की नियुक्ति की जाने लगी। वर्तमान में परिषद् में सत्रह सदस्य होते हैं, जिनमें से तीन उत्तराखण्ड विधानसभा द्वारा चुने जाते हैं, दस सदस्य राज्य सरकार द्वारा नामित होते हैं, और चार सदस्य गढ़वाल, टिहरी, चमोली और उत्तरकाशी की जिला परिषदों द्वारा (सब में से एक-एक) नामित होते हैं।[63]

जैसा कि मन्दिर के अभिलेखों में दर्ज है, मन्दिर के पारम्परिक पुजारी शिव की तपस्या करने वाले होते थे, जिन्हें दण्डी सन्यासी कहा जाता था। ये आधुनिक केरल में एक धार्मिक समूह नंबुदिरी समुदाय से संबंधित थे। जब १७७६ ईस्वी में इस समुदाय के आखिरी सदस्य की बिना किसी के उत्तराधिकारी के ही मृत्यु हो गई, तो गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने केरल से नंबूदिरि समाज के ही गैर-सन्यासी ब्राह्मणों को पूजा करने के लिए आमंत्रित किया- एक अभ्यास जो आधुनिक समय में भी जारी है। १९३९ तक, भक्तों द्वारा मन्दिर में चढ़ाए गए सभी चढ़ावे रावल (मुख्य पुजारी) को ही दिए जाते थे, परन्तु १९३९ के बाद उनका अधिकार क्षेत्र केवल धार्मिक मामलों तक ही सीमित कर दिया गया। मन्दिर की प्रशासनिक संरचना में शीर्ष पर एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है, जो राज्य सरकार आदेश निष्पादित करता है। उसके अतिरिक्त मन्दिर में एक उप मुख्य कार्यकारी अधिकारी, दो ओएसडी, एक कार्यकारी अधिकारी, खाता अधिकारी, एक मन्दिर अधिकारी और मुख्य कार्यकारी अधिकारी की सहायता के लिए एक प्रचार अधिकारी भी होता है।

 
गर्मियों में मन्दिर का दृश्य

हालांकि बद्रीनाथ उत्तर भारत में स्थित है, परन्तु फिर भी मन्दिर के रावल या मुख्य पुजारी परंपरागत रूप से दक्षिण भारतीय राज्य केरल से चुने गए नंबुदिरी ब्राह्मण ही होते हैं।[64] माना जाता है कि यह परंपरा आदि शंकराचार्य द्वारा शुरू की गई थी, जो दक्षिण भारतीय दार्शनिक थे। उत्तराखण्ड सरकार (राज्य के गठन से पहले उत्तर प्रदेश सरकार) द्वारा केरल सरकार के पास रावल (मुख्य पुजारी) के लिए अनुरोध किया जाता है। उम्मीदवार के लिए कई आवश्यक अहर्ताएं होती हैं: वह ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला होना चाहिए, उसके पास संस्कृत में आचार्य की डिग्री होनी चाहिए, वह मंत्रोच्चारण और पवित्र ग्रंथों को पढ़ने आदि में प्रवीण होना चाहिए, और साथ ही, वह हिंदू धर्म के वैष्णव पंथ से भी होना चाहिए। इसके बाद बद्रीनाथ के रक्षक के तौर पर गढ़वाल नरेश केरल सरकार द्वारा भेजे गए उम्मीदवार को मंजूरी देते हैं। उम्मीदवार को रावल की पदवी देने के लिए एक तिलक समारोह आयोजित किया जाता है, और अप्रैल से नवंबर तक जब मन्दिर खुला रहता है तो उसे वहां नियुक्त किया जाता है।

रावल को गढ़वाल राइफल्स और उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों द्वारा हाई होलीनेस (सबसे पवित्र) की उपाधि प्रदान की जाती है। उन्हें नेपाल के राजघराने में भी काफी उच्च सम्मान प्राप्त होता है। अप्रैल से नवंबर तक रावल मन्दिर के पुजारी के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करता है, और इसके बाद वह या तो ज्योतिर्मठ में रहता है, या वापस केरल में अपने मूल गांव को लौट जाता है। रावल की दिनचर्या अभिषेक के साथ ही प्रत्येक दिन प्रातःकाल ४ बजे से शुरू हो जाती है। वे वामन द्वादशी तक अलकनन्दा नदी पार नहीं कर सकते, और उन्हें पूरे समय ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। रावल की सहायता के लिए ग्राम दीमर से संबंधित गढ़वाली दीमरी पंडित, नायब रावल, धर्मदीकरी, वेदपति, पुजारियों का समूह, पंडा समाधनी, भंडारी, रसोइये, भजन गायक, देवाश्रम का एक लिपिक, जल भरिया (जलापूर्ति सुनिश्चित करने वाला) और मन्दिर के चौकीदारों की तैनाती की जाती है। बद्रीनाथ उत्तर भारत के उन कुछ मन्दिरों में से एक है, जो मुख्यतः दक्षिण में प्रचलित श्रौतसूत्र परंपरा की प्राचीन तंत्र-विधि का पालन करता है।[61] [65][66]

आवागमन संपादित करें

बद्रीनाथ जाने के लिए तीन ओर से रास्ता है। रानीखेत से, कोटद्वार होकर पौड़ी (गढ़वाल) से ओर हरिद्वार होकर देवप्रयाग से। ये तीनों रास्ते कर्णप्रयाग में मिल जाते है। राष्ट्रीय राजमार्ग ७ बद्रीनाथ से होकर गुजरता है। यह राजमार्ग पंजाब के फाजिल्का नगर से शुरू होकर भटिण्डा और पटियाला से होता हुआ हरियाणा के पंचकुला, हिमाचल प्रदेश के पाओंटा साहिब और उत्तराखण्ड के देहरादून, ऋषिकेश, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, चमोली तथा जोशीमठ इत्यादि नगरों से होते हुए बद्रीनाथ पहुँचता है, और यहां से आगे बढ़ते हुए भारत-चीन सीमा पर स्थित ग्राम माणा में पहुंचकर समाप्त हो जाता है।[67] केदारनाथ की ओर से भी गौरीकुंड से गुप्तकाशी, चोक्ता (चोटवा), गोपेश्वर और जोशीमठ होते हुए सड़क मार्ग को लगभग २२१ किमी की दूरी तय कर बद्रीनाथ मन्दिर तक पहुंचा जा सकता है।[13][68]

कभी हरिद्वार से इस यात्रा में महीनों लग जाते थे, परन्तु अब बेहतर सड़क मार्ग बन जाने के कारण हफ्ते-भर से भी कम समय में ही यह यात्रा हो जाती है। जोशीमठ से बद्रीनाथ की दूरी लगभग ५० किलोमीटर है। यहाँ से १२ किलोमीटर की दूरी पर विष्णुप्रयाग है, जहाँ अलकनंदा और धौलीगंगा नदियों का संगम होता है। विष्णुप्रयाग से लगभग १० किमी दूर गोविन्दघाट है, जहाँ से एक रास्ता सीधा बद्रीनाथ को जाता है, और दूसरा घांघरिया होते हुए फूलों की घाटी एवं हेमकुंट साहिब को जाता है। गोविन्दघाट से मात्र ३ किमी की दूरी पर पांडुकेश्वर है। पांडुकेश्वर से १० किमी आगे हनुमानचट्टी, और वहां से ११ किमी की दूरी पर स्थित है बद्रीनाथ।

बद्रीनाथ जाने के लिये परमिट की जरुरत पडती है, जो कि जोशीमठ के एसडीएम द्वारा बनाया जाता है। इसे जोशीमठ से बद्रीनाथ के बीच में ट्रैफिक कंट्रोल के लिए लागू किया जाता है। रास्ते में ट्रैफिक बहुत होने के कारण से बेरियर लगाए जाते है और इस परमिट के माध्यम से ही पुलिस ट्रैफिक कंट्रोल करती है। २०१२ में, मन्दिर प्रशासन ने मन्दिर के आगंतुकों के लिए एक टोकन प्रणाली की शुरुआत की। टोकन स्टैंड में लगे तीन स्टालों से यात्रा के समय को इंगित करने वाले टोकन प्रदान किए जाते हैं। प्रत्येक भक्त को गर्भगृह का दौरा करने के लिए १०-२० सेकंड आवंटित किया जाता है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिए पहचान का प्रमाण साथ होना अनिवार्य है।[69]

सन्दर्भ संपादित करें

उद्धरण संपादित करें

  1. घोष १९३४, पृ॰ ७२.
  2. एटकिन्सन, एडविन टी॰ (१९७३). The Himalayan gazetteer, Volume 3, Part 2 [हिमालयी गजेटियर, खण्ड ३, भाग २] (अंग्रेज़ी में). दिल्ली: काॅस्मो प्रकाशन. मूल से 12 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अगस्त 2018.
  3. सेनगुप्ता २००२, पृ॰ ३२.
  4. स्वामी २००२, पृ॰ १००-१०१.
  5. योगेन्द्र नाथ, शर्मा (२८ अप्रैल २०१८). "तप-त्याग और भक्ति के चारधाम". दैनिक ट्रिब्यून. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.[मृत कड़ियाँ]
  6. मौली, सेठ (२५ जनवरी २०१८). "जानें कैसे पड़ा विष्‍णु जी के इस मन्दिर का नाम बद्रीनाथ". दैनिक जागरण. मूल से 9 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  7. "यहीं लिखी थी गई थी महाभारत, जानें बद्रीनाथ से जुड़ीं ७ बातें". दैनिक भास्कर. ९ फ़रवरी २०१६. मूल से 9 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  8. "विष्णु की निवास भूमि – बद्रीनाथ". दैनिक जागरण. ६ सितम्बर २०१४. मूल से 9 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  9. प्रभापुंज, मिश्रा (२ नवम्बर २०१७). "यहां लिखा गया था ५वां वेद, हमेशा गर्म रहता है इस कुंड का पानी". दैनिक जागरण. मूल से 9 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  10. "जानें, पूर्वजन्म में क्या थे महाभारत के महायोद्धा". नवभारत टाइम्स. १२ मई २०१७. मूल से 12 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ७ दिसम्बर २०१८.
  11. "भगवान राम, इंद्र और पांडवों ने किया था इन स्थानों पर पिंडदान". नई दिल्ली: दैनिक भास्कर. १६ सितम्बर २०१७. मूल से 7 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  12. भल्ला २००६, पृ॰ १९०.
  13. नायर २००७, पृ॰ ६७–६८.
  14. नौटियाल १९६२, पृ॰ ११०.
  15. "Sri Badrinath Perumal temple" [श्री बद्रीनाथ पेरुमल मन्दिर]. दिनामलार. मूल से 4 नवंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १ जनवरी २०१४.
  16. त्यागी १९९१, पृ॰ ७०.
  17. सदासिवन् २०००, पृ॰ २११.
  18. स्वामी २००४, पृ॰ १००–१०१.
  19. "बद्रीनाथ धाम में पूजा के समय रावल को बनना पड़ता है स्त्री, जानिए इसके पीछे की रोचक कहानी". देहरादून: अमर उजाला. १७ नवम्बर २०१७. मूल से 9 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  20. गुहा २०००, पृ॰ ६४.
  21. ललित, भट्‌ट (९ अगस्त २०१८). "देवभूमि उत्तराखंड स्थित पंचबद्री, पंचकेदार, पंचप्रयागों का जानें महात्म्य". वेबदुनिया. मूल से 9 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  22. बेन्स १८७८.
  23. चिशोल्म १९११.
  24. "Uttaranchal declares Badrinath as no construction zone" [उत्तरांचल ने बद्रीनाथ को नो कंस्ट्रक्शन जोन घोषित किया]. हिन्दुस्तान टाइम्स (अंग्रेज़ी में). बद्रीनाथ. ९ मई २००६. मूल से 11 जून 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १ जनवरी २०१४.(सब्सक्रिप्शन आवश्यक)
  25. "Badrinathpuri (NP) Nagar Panchayat" [बद्रीनाथपुरी नगर पंचायत]. इंडिकोष. मूल से 4 नवंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ४ नवम्बर २०१८.
  26. "Badrinathpuri Population Census 2011 - 2018" [बद्रीनाथपुरी जनसंख्या जनगणना २०११ - २०१८]. सेंसस २०११. अभिगमन तिथि ४ नवम्बर २०१८.
  27. "About the temple" [मन्दिर के बारे में]. श्री बद्रीनाथ - श्री केदारनाथ मन्दिर समिति. २००६. मूल से 14 दिसंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १ जनवरी २०१४.
  28. गोपाल, मदन (१९९०). केएस गौतम (संपा॰). India through the ages [विभिन्न कालों में भारत]. प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार. पृ॰ १७४.
  29. के॰ एस॰ गुलिया (२००७). Discovering Himalaya : Tourism Of Himalayan Region (2 Vols.) [हिमालय की खोज: हिमालयी क्षेत्र का पर्यटन (२ खण्ड)]. ज्ञान पब्लिशिंग हाउस. पपृ॰ ६५-६६. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-8205-410-3.
  30. मलखान झा (१९९६). The Himalayas: An Anthropological Perspective [हिमालय: एक नृवैज्ञानिक दृष्टिकोण]. एम डी पब्लिकेशन्स प्रा॰ लि॰. पपृ॰ १०४–१०५. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7533-020-7.
  31. बी के चतुर्वेदी. Tourist Centers Of India [भारत के पर्यटक केंद्र]. डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा॰) लि॰. पपृ॰ १००–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7182-137-2.
  32. "संग्रहीत प्रति". मूल से 12 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अगस्त 2018.
  33. भल्ला २००६, पृ॰ ११०.
  34. "क्यों बनाए गए चार धाम?". हिन्दुस्तान. २७ फ़रवरी २०१७. मूल से 8 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  35. शशिभूषण, मैठानी (१५ मई २०१३). "बद्रीनाथ धाम में पद्मासन मुद्रा में हैं भगवान विष्णु". बद्रीनाथ: आज तक. मूल से 9 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  36. सुनील, शर्मा (१ जून २०१६). "बद्रीनाथ के दर्शन से मिलता है दिव्यलोक". www.patrika.com. पत्रिका. मूल से 1 सितंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ३१ अगस्त २०१८.
  37. वन्दना, शर्मा; संध्या, टण्डन (६ जून २०१८). "बद्रीनाथ कैसे बना लक्ष्मी-नारायण का धाम जानें यह रोचक घटनाक्रम". दैनिक जागरण. बद्रीनाथ: आईनेक्सटलाइव. मूल से 9 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  38. "Number of pilgrims the temple" [मन्दिर में तीर्थयात्रियों की संख्या]. श्री बद्रीनाथ - श्री केदारनाथ मन्दिर समिति. २००६. मूल से २९ अक्टूबर २०१३ को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १ जनवरी २०१४.
  39. राव २००८, पृ॰ ४७४.
  40. ऐक २०१२, पृ॰ ३४३–३४४.
  41. "Kashi Math at Badrinath" [बद्रीनाथ में कशी मठ]. श्री कशी मठ संस्थानम. मूल से 8 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १० सितम्बर २०१४.
  42. "Badari Ashtakshari Kshethriya Annadana Sakha Sangham, (BAKASS)" [बद्री अष्टाक्षरी क्षेत्रीय अन्नदान शाखा संघम, (बीएकेएएसएस)]. चिन्ना जीयर मठ. मूल से 10 सितंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १० सितम्बर २०१४.
  43. "Udupi Mutt at Badrinath" [बद्रीनाथ में उडुपी मठ]. पेजवरा अधोकक्ष मठ, उडुपी. मूल से 8 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १० सितम्बर २०१४.
  44. "Raghavendra Mutt Branches" [राघवेंद्र मठ की शाखाएं]. राघवेंद्र मठ. मूल से 22 सितंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १० सितम्बर २०१४.
  45. बंसल २००५, पृ॰ ३५.
  46. "भारी बारिश से बद्रीनाथ यात्रा बाधित, यात्री फंसे". पत्रिका समाचार समूह. ३० जुलाई २०१४. मूल से 3 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ३१ जुलाई २०१४.
  47. चक्रवर्ती १९९४, पृ॰ १४०.
  48. ग्वेन २००९.
  49. मित्तल २००४, पृ॰ ४८२–४८३.
  50. ब्रॉकमैन २०११, पृ॰ ९४–९६.
  51. मेलटन & बाउमान २०१०, पृ॰ ५४०.
  52. सुनील, नेगी (१५ सितम्बर २०१८). "भगवान नारायण सिर्फ बद्रीशपुरी ही नहीं, सात मन्दिरों में हैं विराजमान". दैनिक जागरण. मूल से 9 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ७ दिसम्बर २०१८.
  53. "पापियों के तन पर नहीं पड़ती बद्रीनाथ धाम में मौजूद इस जल की पवित्र धारा". देहरादून: अमर उजाला. १० सितम्बर २०१६. मूल से 9 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ७ दिसम्बर २०१८.
  54. प्रीति, झा (२९ दिसम्बर २०१६). "सशरीर स्वर्ग जाने के लिए यहां गए थे पांडव, यही सीढ़ियां जाती हैं स्वर्ग की ओर". दैनिक जागरण. मूल से 9 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ७ दिसम्बर २०१८.
  55. "Festivals celebrated in the temple" [मन्दिर में मनाए जाने वाले त्यौहार]. श्री बद्रीनाथ - श्री केदारनाथ मन्दिर समिति. २००६. मूल से १७ फ़रवरी २०१२ को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १ जनवरी २०१४.
  56. डैविडसन & गिटलिट्ज़ २००२, पृ॰ ४८.
  57. भल्ला २००६, पृ॰ २५८.
  58. "Badrinath shrine closes marking end of Chardham Yatra" [चार धाम यात्रा के अंत को चिह्नित करते हुए बद्रीनाथ मन्दिर बंद]. देहरादून: ज़ी न्यूज़. १७ नवंबर २०११. मूल से 8 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २८ अप्रैल २०१४.
  59. "Badrinath shrine closed for winter" [बद्रीनाथ मन्दिर सर्दियों के लिए बंद]. टीएनएन. देहरादून: द टाइम्स ऑफ इंडिया. १८ नवम्बर २००८. मूल से 3 सितंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २८ अप्रैल २०१४.
  60. आरती, मिश्रा (६ मई २०१७). "बद्रीनाथ धाम: जल रही है अखंड ज्‍योति, दर्शन दे रहे हैं भगवान बद्री". नई दिल्ली: आज तक. मूल से 20 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २० अगस्त २०१८.
  61. स्वामी २००४, पृ॰ १०२.
  62. "तो रावल के 'कारनामे' के बाद बद्रीनाथ में लागू होगा एक्ट". कर्णप्रयाग: अमर उजाला. ९ फ़रवरी २०१४. मूल से 8 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ८ अगस्त २०१८.
  63. "Committee members of the temple" [मन्दिर के कमेटी सदस्य]. श्री बद्रीनाथ - श्री केदारनाथ मन्दिर समिति. २००६. मूल से २९ अक्टूबर २०१३ को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १ जनवरी २०१४.
  64. शालिनी, जोशी (२४ मई २००५). "बद्रीनाथ मन्दिर में दक्षिण के पुजारी". बीबीसी. मूल से 8 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  65. आउटलुक ट्रैवलर. "Badrinath" [बद्रीनाथ]. Traveller.outlookindia.com. मूल से २९ अक्टूबर २०१३ को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १ जनवरी २०१४.
  66. "Badrinath Temple" [बद्रीनाथ मन्दिर]. द हिन्दू. १८ जुलाई २००५. मूल से 11 नवंबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १ जनवरी २०१४.
  67. "Rationalisation of Numbering Systems of National Highways" [राष्ट्रीय राजमार्गों की संख्या प्रणाली का युक्तिकरण] (PDF). नई दिल्ली: सड़क परिवहन और राजमार्ग मन्त्रालय, भारत सरकार. मूल (PDF) से 1 फ़रवरी 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ३ अप्रैल २०१२.
  68. नियति, भण्डारी (२७ अप्रैल २०१८). "चारधाम यात्रा पर जाने वालों के लिए खास जानकारी". पंजाब केसरी. मूल से 9 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ९ अगस्त २०१८.
  69. "News about the temple" [मन्दिर के बारे में समाचार]. श्री बद्रीनाथ - श्री केदारनाथ मन्दिर समिति. २००६. मूल से २९ अक्टूबर २०१३ को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १ जनवरी २०१४.

आधार ग्रन्थ संपादित करें

विस्तृत पठन संपादित करें

  • डैरियन, स्टीवन जी॰ (२००१). The Ganges in Myth and History - History and Culture Series [मिथकों तथा इतिहास में गंगा - इतिहास और संस्कृति श्रृंखला] (अंग्रेज़ी में). मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशक. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-208-1757-5. मूल से 30 जून 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 9 अगस्त 2018.
  • सेन गुप्ता, सुभद्रा (२००२). Badrinath and Kedarnath - The Dhaams in the Himalayas [बद्रीनाथ और केदारनाथ - हिमालय के धाम] (अंग्रेज़ी में). रूपा & कम्पनी. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7167-617-0.
  • नौटियाल, गोविन्द प्रसाद (१९६२). Call of Badrinath [बद्रीनाथ का आह्वान] (अंग्रेज़ी में). श्री बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिर समिति.

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें