गीतगोविन्द
गीतगोविन्द Gopi Geet Lyrics in Hindi (ओड़िया: ଗୀତ ଗୋବିନ୍ଦ) जयदेव की काव्य रचना है[1]। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की श्रीराधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है। जयदेव का जन्म ओडिशा में भुवनेश्वर के पास केन्दुबिल्व नामक ग्राम में हुआ था। वे बंगाल के सेनवंश के अन्तिम नरेश लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। लक्ष्मणसेन के एक शिलालेख पर 1116 ई० की तिथि है अतः जयदेव ने इसी समय में गीतगोविन्द की रचना की होगी। Laddu Gopal Store

‘श्री गीतगोविन्द’ साहित्य जगत में एक अनुपम कृति है। इसकी मनोरम रचना शैली, भावप्रवणता, सुमधुर राग-रागिणी, धार्मिक तात्पर्यता तथा सुमधुर कोमल-कान्त-पदावली साहित्यिक रस पिपासुओं को अपूर्व आनन्द प्रदान करती हैं। अतः डॉ॰ ए॰ बी॰ कीथ ने अपने ‘संस्कृत साहित्य के इतिहास’ में इसे ‘अप्रतिम काव्य’ माना है। सन् 1784 में विलियम जोन्स द्वारा लिखित (1799 में प्रकाशित) ‘ऑन द म्यूजिकल मोड्स ऑफ द हिन्दूज’ (एसियाटिक रिसर्चेज, खण्ड-3) पुस्तक में Laddu Gopal Storeगीतगोविन्द को 'पास्टोरल ड्रामा' अर्थात् ‘गोपनाट्य’ के रूप में माना गया है। उसके बाद सन् 1837 में फ्रेंच विद्वान् एडविन आरनोल्ड तार्सन ने इसे ‘लिरिकल ड्रामा’ या ‘गीतिनाट्य’ कहा है। वान श्रोडर ने ‘यात्रा प्रबन्ध’ तथा पिशाल लेवी ने ‘मेलो ड्रामा’, इन्साइक्लोपिडिया ब्रिटानिका (खण्ड-5) में गीतगोविन्द को ‘धर्मनाटक’ कहा गया है। इसी तरह अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से इसके सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया है। जर्मन कवि गेटे महोदय ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् और मेघदूतम् के समान ही गीतगोविन्द की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
गीतगोविन्द काव्य में जयदेव ने जगदीश का ही जगन्नाथ, दशावतारी, हरि, मुरारी, मधुरिपु, केशव, माधव, कृष्ण इत्यादि नामों से उल्लेख किया है। यह 24 प्रबन्ध (12 सर्ग) तथा 72 श्लोकों (सर्वांगसुन्दरी टीका में 77 श्लोक) युक्त परिपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें राधा-कृष्ण के मिलन-विरह तथा पुनर्मिलन को कोमल तथा लालित्यपूर्ण पदों द्वारा बाँधा गया है। किन्तु नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थ सूची, भाग-इ’ में गीतगोविन्द का 13वाँ सर्ग भी उपलब्ध है। परन्तु यह मातृका अर्वाचीन प्रतीत होती है। Laddu Gopal Store
गीतगोविन्द वैष्णव सम्प्रदाय में अत्यधिक आदृत है। अतः 13वीं शताब्दी के मध्य से ही श्री जगन्नाथ मन्दिर में इसे नित्य सेवा के रूप में अंगीकार किया जाता रहा है। इस गीतिकाव्य के प्रत्येक प्रबन्ध में कवि ने काव्यफल स्वरूप सुखद, यशस्वी, पुण्यरूप, मोक्षद आदि शब्दों का प्रयोग करके इसके धार्मिक तथा दार्शनिक काव्य होने का भी परिचय दिया है। शृंगार रस वर्णन में जयदेव कालिदास की परम्परा में आते हैं। गीतगोविन्द का रास वर्णन श्रीमद्भागवत के वर्णन से साम्य रखता है; तथा श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 10, अध्याय 40 में Laddu Gopal Store (10-40-17/22) अक्रूर स्तुति में जो दशावतार का वर्णन है, गीतगोविन्द के प्रथम सर्ग के स्तुति वर्णन से साम्य रखता है।
आगे चलकर गीतगोविन्द के अनेक ‘अनुकृति’ काव्य रचे गये। अतः जयदेव ने स्वयं 12वें सर्ग में लिखा है -
- यद्गान्धर्वकलासु कौशलमनुध्यानं च यद्वैष्णवं
- यच्छृंगारविवेक तत्त्वरचना काव्येषु लीलायितम्।
- तत्सर्वं जयदेव पण्डितकवेः कृष्णैकतानात्मनः
- सानन्दाः परिशोधयन्तु सुधियः श्रीगीतगोविन्दतः॥१०॥
महाराणा कुम्भा
प्रणीत ‘रसिकप्रिया’ टीका आदि में इसकी पुष्टि की गयी है।
टीकाएँसंपादित करें
गीतगोविन्द की अति लोकप्रियता और सौष्ठव के कारण भारत की प्रत्येक भाषा में गद्य और पद्य में तथा अँग्रेजी, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया है। इसके अलावा संस्कृत भाषा में इसके जो अनुवाद, भाष्य, टीका और टिप्पणी लिखे गये हैं, वैसा किसी अन्य भाषा में मिलना असम्भव है। किसी टीकाकार ने इसका शृंगार प्रधान काव्य के रूप में वर्णन किया है तो किसी ने भक्ति सम्प्रदाय को महत्त्व देकर इसे भक्ति काव्य माना; तो किसी ने संगीत को प्रधानता देकर इसे संगीत शास्त्र का रूप दिया है एवं किसी-किसी टीकाकार ने शब्दमाधुर्य और सौष्ठव को लेकर इसकी शब्द व्युत्पत्यात्मक व्याख्या की है। इसलिए निस्संदेह गीतगोविन्द एक सर्वतन्त्र स्वतन्त्र ग्रन्थ है। Laddu Gopal Store
गीतगोविन्द के प्रथम टीकाकार उदयनाचार्य ने ‘भावविभाविनी’ टीका लिखी है। जगन्नाथ पुरी के अत्यन्त निकट प्राची के किनारे रहनेवाले उदयनाचार्य जदयदेव के प्रिय मित्र तथा प्रशंसक थे। सन् 1170 से 1198 के मध्य में ‘भावविभाविनी’ टीका लिखी गयी थी, जिसमें 100 श्लोक हैं। इसकी तीन मातृकाएँ उदयपुर और नागपुर में उपलब्ध हैं।
संरचनासंपादित करें
‘गीतगोविन्द’ काव्य में बारह सर्ग हैं, जिनका चौबीस प्रबन्धों (खण्डों) में विभाजन हुआ है। इन प्रबन्धों का उपविभाजन पदों अथवा गीतों में हुआ है। Laddu Gopal Store प्रत्येक पद अथवा गीत में आठ पद्य हैं। [2] गीतों के वक्ता कृष्ण, राधा अथवा राधा की सखी हैं। अत्यन्त नैराश्य और निरवधि-वियोग को छोड़कर भारतीय प्रेम के शेष सभी रूपों - अभिलाषा, ईर्ष्या, प्रत्याशा, निराशा, कोप, मान, पुनर्मिलन तथा हर्षोल्लास आदि—का बड़ी तन्मयता और कुशलता के साथ वर्णन किया गया है। प्रेम के इन सभी रूपों का वर्णन अत्यन्त रोचक, सरस और सजीव होने के अतिरिक्त इतना सुन्दर है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो कवि शास्त्र, अर्थात् चिन्तन (कामशास्त्र) को भावना का रूप अथवा अमूर्त को मूर्त रूप देकर उसे कविता में परिणीत कर रहा है। Laddu Gopal Store
- द्वादश सर्ग
(1) समोददामोदर (2) अक्लेशकेशव (3) मुग्ध मधुसूदन |
(4) स्निग्ध मधुसूदन (5) साकांक्ष पुण्डरीकाक्ष (6) कुण्ठबैकुण्ठ |
(7) नागरनारायण (8) बिलक्ष्यलक्ष्मीपति (9) मन्दमकुन्द |
(10) चतुर चतुर्भुज (11) सानन्द दामोदर (12) सुप्रीतिपीताम्बर |
परिचयसंपादित करें
गीतगोविन्द 12वीं शताब्दी में लिखी गयी एक ऐसी काव्य रचना है जो हमें भगवान कृष्ण और राधारानी के प्रेम के बारे में बताती है। इसमें कुल 12 अध्याय हैं। यह काव्य ओडिशा राज्य के भुवनेश्वर और पुरी शहर के मध्यवर्ती केन्दुबिल्व या केन्दुलि शासन नाम के गांव में वास करने वाले ब्राह्मण जयदेव की कृति है। जयदेव ने उनकि पत्नी पाद्मावति के सहयता से इसका ऐसा रुपान्तर किया कि तत्कालिन उत्कल (ओडिशा का पूर्व नाम) के राजा ईर्ष्या करने लगे। फिर जब गीतगोविन्द की प्राधान्य जगन्नाथ जी ने स्वप्न में राजा को बतायी तब से मन्दिर के देवादासी रात के एकान्त सेवा और सुबह कि सेवा में प्रभु जगन्नाथ के सामने ओडिशी नृत्य-रूप में पेश करने लगें। पहले विद्वानों का मानना था कि जयदेव बंगाल के राजा के सभाकवि थे। पर शिलालेख एवं प्राचीन मन्दिर जो ओडिशा में मौजूद हैं, उनसे प्रमाणित हुआ कि जयदेव जगन्नाथ के भक्त थे और उत्कल राज्य के वासी थे। आज भी ओडिशी नृत्य के माध्यम से गीतगोविन्द सर्वजनीन प्रिय हो रहा है। ओडिशी नृत्य ही जयदेव का ओडिशा प्रान्त का होना सुचित करता है। उनकि गीतगोविन्द काव्य कि प्रचार पडोशी आन्ध्र, तमिलनाडु तथा कर्णाटक में हुआ। फिर उत्तरभारत में खासतौर पर राजस्थान में मीराबाई के द्वारा हुआ। गुरुग्रन्थ साहिब में भी भगत जयदेव का नाम लिख है जो गीतगोविन्द के रचयिता हैं। Laddu Gopal Store
‘गीतगोविन्द’ काव्य का रचना-कौशल इस प्रकार सर्वथा नवीन एवं नितान्त मौलिक है कि उसके काव्य-रूप का निर्णय करना ही दुष्कर बन गया है। कुछ पाश्चात्य विद्वान् इसे ‘ग्राम्य-रूपक’ (Pastoral Drama, Laddu Gopal Store ) कहते हैं, तो अन्य समीक्षक इसे ‘गीतिनाटक’ (Lyric Drama , लिरिक ड्रामा ) कहते हैं, तो कछ अन्यों के मत में यह काव्य ‘परिष्कृत यात्रा’ (Refined yatra , रिफ़ाइण्ड यात्रा ) है। पिशेल (Pichel) इस काव्य को ‘संगीत रूपक’ (Melo Drama , मैलोड्रामा ) स्वीकार करते हैं। लेवि (Levi) इसे गीत और रूपक का मध्यवर्ती अथवा समन्वित रूप (In Between Song and Drama Laddu Gopal Store) मानते हैं, परन्तु जयदेव ने अपनी इस कृति का सर्गों में विभाजन करके इसे नाटक के स्थान पर काव्य मानने की अपनी धारणा की ओर ही संकेत किया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस काव्य में नाटक की भांति अंक, प्रस्तावना आदि कुछ भी नहीं है। कुछ विद्वान् इसे ‘शृंगार महाकाव्य’ की संज्ञा भी देते हैं।
कृष्णास्वामी अयंगार ने अपने ग्रन्थ ‘अ हिस्ट्री ऑफ़ इण्डियन ओपेरा' (A History of Indian Opera) में ‘गीतगोविन्द’ काव्य को संगीतनाटक (Opera , ओपेरा ) का एक पूर्वरूप माना है और उसका विकास एवं उत्कृष्ट परिपाक सोलहवीं शताब्दी के श्री तीर्थनारायण स्वामी की रचना ‘कृष्णलीला तरंगिणी’ में स्वीकार किया है। इस सम्बन्ध में आचार्य बलदेव उपाध्याय का अनुमान पर आधृत कथन है कि ‘गीतगोविन्द’ के पदों के साथ (संगीत और नृत्य सम्बन्धी) रागों और तालों के दिये गये नामों से इस तथ्य का अनुमान होता है कि कवि की दृष्टि कदाचित् उन दिनों बंगाल में प्रचलित यात्रा महोत्सवों की ओर रही हो, जिसमें नृत्य और संगीत के साथ गीतों का उपयोग किया जाता था। इस आधार पर इस काव्य को ‘संगीतरूपक’ भी माना जा सकता है। Laddu Gopal Store
मानवीय सौन्दर्य के चित्रण में प्रकृति को बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस सन्दर्भ में ‘गीतगोविन्द’ काव्य में ऋतुराज वसन्त, चन्द्र-ज्योत्स्ना, सुरभित समीर तथा यमुना तट के मोहक कुंजों (कुञ्ज) का बड़ा ही सुन्दर वर्णन देखने को मिलता है। यहाँ तक कि इस काव्य में पक्षी तक प्रेम की शक्ति और महिमा का गान करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।
जयदेव ने इस काव्य में वैदर्भी रीति—माधुर्य व्यंजक (Laddu Gopal Store) वर्णों वाली शैली का प्रयोग किया है। काव्य में कहीं-कहीं दीर्घ समासों का प्रयोग अवश्य हुआ हैं, परन्तु फिर भी दुर्बोधता अथवा क्लिष्टता नहीं आने पायी। वस्तुतः कवि ने विशेष-विशेष उत्सवों पर सर्व-साधारण के गाने के लिए ही तो गीतों की रचना की थी। अतः उन्हें सुबोध रखना आवश्यक ही था। गीतों में न केवल असाधारण स्वाभाविकता (अकृत्रिममता) हैं, अपितु उनमें अनुपम माधुर्य भी हैं। ‘गीतगोविन्द’ की रचना-शैली की प्रशंसा में मैकडॉनल का कथन है—‘‘सौन्दर्य में, संगीतमय वचनोपन्यास में और रचना के सौष्ठव में सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ‘गीतगोविन्द’ काव्य शैली की उपमा नहीं मिलती। काव्य के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि कवि में कहीं लघु पदों की वेगवती धारा द्वारा, तो कहीं चातुर्य के साथ रचित दीर्घ समासों की लयपूर्ण गति द्वारा अपने पाठकों-श्रोताओं पर यथेष्ट प्रभाव डालने की अद्भुत क्षमता है। कवि नाना छन्दों के प्रयोग में ही सिद्धहस्त नहीं, अपितु चरणों के मध्य और अन्त में तुकात्मकता लाने में भी अद्वितीय है।’’ Laddu Gopal Store
‘गीतगोविन्द’ काव्य में जयदेव ने परम्परागत रचना-प्रणाली का अनुसरण न करके सर्वथा नवीन और मौलिक शैली को अपनाया है। श्लोक, गद्य और गीत के मिले-जुले प्रयोग द्वारा काव्य में अनुपम रचना-माधुर्य की सृष्टि हुई है। कवि ने कथा-सूत्र के निर्वाह के लिए अपेक्षित दृश्ययोजना अथवा अवस्था विशेष के चित्रण जैसे वर्णनात्मक प्रसंगों में श्लोकों का प्रयोग किया है। पात्रों की मनोदशा को सूचित करने वाले संवादात्मक प्रसंगों में गद्य का प्रयोग हुआ है तथा भावानुभूति की अभिव्यंजना पद्यों में की गयी है। इस प्रकार ‘गीतगोविन्द’ में अपनायी गयी अभिनव रचना-प्रणाली में वर्ण, संवाद और गीत परस्पर इस प्रकार गुँथ गये हैं कि उनसे एक विलक्षण आनन्द की अनुभूति होती है। इस अनुपम रचना-शैली के आविष्कर्ता जयदेव, अपने उपमान आप ही हैं। Laddu Gopal Store
राधा-कृष्ण की केलि-कथाओं तथा उनकी अभिसार-लीलाओं का रसमय चित्रण ‘गीतगोविन्द’ को आध्यात्मिक शृंगार का मनोरम ग्रन्थ बना देता है। राधा-कृष्ण के प्रणय के चित्रण में प्रेम की विविध दशाओं— आशा, निराशा, उत्कण्ठा, ईर्ष्या, कोप, मान, आक्रोश, मिलनोत्सुकता, सन्देश-प्रेषण तथा मिलन आदि—का जैसा अभिभूत करने वाला हृदयग्राही चित्रण इस काव्य में हुआ है, वैसा अन्यत्र ढूँढ़ने पर भी कहीं नहीं मिलता।
श्रीकृष्ण के गोपियों के साथ रास-विलास को राधा न पसन्द करती है और न ही सहन कर पाती हैं। राधा अपनी सखी के माध्यम से श्रीकृष्ण के प्रति अपना आक्रोशमूलक उपालम्भ भेजती है, परन्तु उस अनन्य प्रणयिनी को इतने से सन्तोष नहीं होता, उसका प्रेम निर्भर-हृदय उसे अपने प्रियतम के प्रति अपने प्रगाढ़ अनुराग को व्यक्तिगत रूप से प्रकट करने को विवश कर देता है। राधा के आने पर श्रीकृष्ण ब्रज-सुन्दरियों का साथ छोड़कर उसकी ओर उन्मुख होते हैं। राधा की सखी श्रीकृष्ण से राधा की और राधा से श्रीकृष्ण की एक-दूसरे में गहन अनुरक्ति का तथा एक-दूसरे से दूर रहने पर अनुभव की जा रही विरहजन्य वेदना का मार्मिक वर्णन करती है। वह अपने कोमल एवं कमनीय वचनों द्वारा दोनों को एक-दूसरे से मिलने के लिए प्रेरित करती है। Laddu Gopal Store
चन्द्रोदय होने पर प्रणय-व्यथा से अधीर बनी राधा अपने उद्दीप्त अनुराग पर नियन्त्रण नहीं रख पाती और उसकी अभिव्यक्ति को विवश हो जाती है। श्रीकृष्ण के आने पर अति मान करती हुई राधा उपालम्भ से भरे वचनों के द्वारा उनके प्रति अपना रोष-आक्रोश प्रकट करती है। इधर राधा की सखी राधा से मान को छोड़ने का अनुरोध करती है उधर स्वयं श्रीकृष्ण राधा के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा के व्याज से उसकी चाटुकारिता करते हुए उसे मनाने एवं अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करते हैं। अन्ततः राधा का मान दूर हो जाता है और वह अपने कान्त से मिलने के लिए कदम्ब-कुंज (कदम्ब-कुञ्ज) में जाती है। वहाँ श्रीकृष्ण राधा से प्रणय-याचना करते हुए उससे लज्जा-संकोच को छोड़ने का अनुरोध तथा रति-भोग में सहयोग देने का मनुहार करते हैं। दोनों प्रसन्न मन से रति क्रीड़ा में प्रवृत्त होते हैं और इसके उपरान्त राधा प्रणयसिक्त वचनों से अपने प्रियतम श्रीकृष्ण से अपना शृंगार (शृङ्गार) करने को कहती है। अपनी प्राणप्रिया के अनुरोध को गौरव देते हुए श्रीकृष्ण सहर्ष अपने हाथों से राधा का शृंगार (शृङ्गार) करते हैं।
आज के कुछ आलोचक जयदेव पर भक्ति के आलम्बन राधा-कृष्ण को शृंगार (शृङ्गार) का आलम्बन बनाने का दोषारोपण करते हैं, परन्तु माधुर्य भाव के उपासक कवि पर यह लांछन (लाञ्छन) अन्यायपूर्ण ही नहीं, अपितु स्वयं उनके अपने अविवेक का द्योतक है। वस्तुतः दाम्पत्य प्रणय में उपलब्ध तन्मयता अथवा तल्लीनता के चरम उत्कर्ष की तथा भेद में अभेद की कल्पना के चूड़ान्त निदर्शन की अभिव्यक्ति ही भक्ति के क्षेत्र में माधुर्य भाव की सृष्टि करती है। मधुर भाव से भजन करने वाले भक्तों के लिए भगवान की शृंगारिक (शृङ्गारिक) चेष्टाएँ, विलास-लीलाएँ तथा प्रेम-गाथाएँ ही गेय एवं कीर्तनीय हैं।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विद्वानों ने इस सारे काव्य को 'अप्रस्तुत प्रशंसा' मानकर वाच्यार्थ में छिपे व्यंग्यार्थ को व्यक्त करने का प्रयास स्वीकार किया है। (प्रस्तुत के माध्यम से अप्रस्तुत का अथवा अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार (अलङ्कार) कहलाता है।) उनके मत के अनुसार श्रीकृष्ण ‘जीवों की आत्मा’ के प्रतीक हैं। गोपियों की क्रीड़ा अनेक प्रकार का वह प्रपंच (प्रपञ्च) है, जिसमें अज्ञान-अवस्था में फँसी मनुष्यों की आत्मा भटकती रहती है। राधा ब्रह्मानन्द का प्रतीक है, जिसे प्राप्त करने पर ही जीवात्मा को चरम सुख की प्राप्ति होती है। Laddu Gopal Store
कतिपय विद्वानों के अनुसार जयदेव राधा का उपासक न होकर श्रीकृष्ण के ही उपासक थे। अतः श्रीकृष्ण मनुष्यों की आत्मा के प्रतीक न होकर परमात्मा के प्रतीक हैं। इस तथ्य को वाणी देते हुए आचार्य बलदेव उपाध्याय लिखते हैं—‘‘शृंगार-शिरोमणि श्रीकृष्ण भगवत्-तत्त्व के प्रतिनिधि हैं और उनकी प्रेमी गोपिकाएं जीव की प्रतीक हैं। राधा-कृष्ण का मिलन जीव-ब्रह्म का मिलन है। इस प्रकार साधना मार्ग के अनेक तथ्यों के रहस्य को यहाँ सुलझाया गया है।’’
महत्त्वसंपादित करें
‘गीतगोविन्द’ वस्तुतः एक अनुपम एवं अद्भुत ग्रन्थ है, जिसके उद्दाम-शृंगार के अन्तस्तल में रहस्यमयी माधुर्य भावना की निगूढ़ धारा बह रही है। समग्र संस्कृत साहित्य में इस कोटि की मधुर रचना दूसरी कोई नही। संस्कृत भारती के सौन्दर्य और माधुर्य की पराकाष्ठा का अवलोकन करना हो, तो ‘गीतगोविन्द’ का अनुशीलन करना चाहिए। इसके शब्दचित्रों से सौन्दर्य मानो छलकता है। इसके गीतों के पद-लालित्य अलौकिक माधुर्य का संचार करता है। इसके छन्दों का नाद-सौन्दर्य अपूर्व आनन्द प्रदान करता है। शब्द और अर्थ का सामंजस्य (सामञ्जस्य) ऐसा मनोमुग्धकारी है कि संस्कृत से अपरिचित व्यक्ति भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इसकी-सी कोमलकान्त पदावली संसार की किसी भी भाषा के काव्य में दुर्लभ है। इस काव्य में प्रयुक्त दीर्घ समासों में भी विलक्षण प्रसादिकता एवं स्वर-माधुर्य है। अनुप्रास के प्रयोग में तो कवि अद्वितीय है। उनके गीतों में अनुप्रास का प्रयोग पदों के अन्त में ही नहीं, मध्य में भी अपनी छटा बिखेरता हुआ चलता है। ललित छन्दों और कोमलकान्त पदावली का ऐसा मणि-कांचन संयोग हुआ है कि गीतों के उच्चारण मात्र से सहृदयों के हृदय में तदनुरूप रस का आविर्भाव एवं संचार होने लगता है। शृंगार की व्यंजना के लिए यह अनूठी शैली बड़ी ही सार्थक सिद्ध हुई है। Laddu Gopal Store
‘गीतगोविन्द’ को बड़ी ही प्रसिद्धि और लोकप्रियता मिली। जयदेव ने जिस ग्राम में रहते हुए ‘गीतगोविन्द’ की रचना की, उस गाँव का नाम ही जयदेवपुर पड़ गया। कवि के समकालीन उड़ीसा के शासक राजा प्रताप रुद्रदेव ने अपने राज्य के गायकों, संगीतज्ञों (सङ्गीतज्ञों)? और नर्तकों के लिए ‘गीतगोविन्द’ के पदों को गाने का आदेश जारी कर दिया। महाराज ने जयदेव को इस काव्य रचना के लिए ‘कविराजराज’ की उपाधि से विभूषित किया।
‘गीतगोविन्द’ जयदेव के जीवन काल में ही पर्याप्त रूप से प्रचलित एवं लोकप्रिय हो गया था—इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। दक्षिण में तो वह इतना अधिक प्रचलित हो गया कि इसके पद्यों को तिरुपति बालाजी के मन्दिर की सीढ़ियों पर द्रविण लिपि में खुदवाया गया। श्रीवल्लभ सम्प्रदाय में तो श्रीमद्भागवत् पुराण के समान इसकी प्रतिष्ठा है। वैष्णवों में यह विश्वास है कि ‘गीतगोविन्द’ जहाँ गाया जाता है, वहाँ भगवान का अवश्य ही प्रादुर्भाव होता है। इसी से इस सम्प्रदाय में इसे अयोग्य स्थान पर न गाये जाने का विधान किया गया है, जिसका कठोरता से पालन किया जाता है। Laddu Gopal Store
वैष्णव सम्प्रदाय में जयदेव कवि को इस सम्प्रदाय की मध्यावस्था का मुख्य महानुभाव माना गया है। सम्प्रदाय में प्रचलित निम्नोक्त पद्य के अनुसार जिस वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तन विष्णु स्वामी ने किया और जिसका संवर्द्धन महाप्रभु वल्लभाचार्य ने किया, उस सम्प्रदाय को इन दोनों महानुभवों के मध्य में भक्त कवि जयदेव ने संरक्षण दिया। इस प्रकार वैष्णव सम्प्रदाय में जयदेव भी गुरु के रूप में वन्दनीय हैं—
- विष्णु स्वामी समारम्भां जयदेवादि-मध्यगाम्।
- श्रीमद्वल्लभ-पर्यन्तां स्तुमो गुरु-परम्पराम्।।
जयदेव ने ‘गीतगोविन्द’ की रचना करके संस्कृत में एक नवीन रचना-प्रणाली का आविष्कार किया। ‘गीतगोविन्द’ के अनुकरण पर संस्कृत में ‘अभिनव गीतगोविन्द’, ‘गीतराघव’, ‘गीतगंगाधर’ तथा ‘कृष्णगीत’ जैसे अनेक गीत काव्यों की रचना हुई, परन्तु कोई भी कवि अपने काव्य में ‘गीतगोविन्द’ जैसी उत्कृष्टता लाने में सफल नहीं हुआ। इधर हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ब्रजभाषा में इसके अनुवाद का प्रयास किया, परन्तु ‘सच्ची कविता’ का अनुवाद तो हो ही नहीं सकता—यह उक्ति ‘गीतगोविन्द’ के सम्बन्ध में अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई है। अनुवाद में मूल रचना के रस-भाव की अवतारणा असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। सर विलियम जोन्स द्वारा आंग्ल भाषा में किये गये ‘गीतगोविन्द’ काव्य के अनुवाद पर जर्मन कवि गेटे की टिप्पणी बड़ी ही सटीक है। ‘A Real Poetry is that, which cannot be translated.’’ अर्थात् उत्कृष्ट कविता की पहचान का आधार (कसौटी) ही यही है कि उसका दूसरी भाषा में अनुवाद नहीं हो सकता। ‘गीतगोविन्द’ के मर्म को समझने तथा सहृदयों तक उसके सौन्दर्य को सम्प्रेष्य बनाने के लिए पैंतीस विद्वानों के प्रयास (टीकाएँ) उपलब्ध हैं, परन्तु यह काव्य तो वह अगाध सागर है कि इसमें जो जितनी गहरी डुबकी लगाता है। उसके हाथ में उतने ही दुर्लभ एवं बहुमूल्य रत्न आ जाते हैं। कतिपय कवियों द्वारा इस काव्य के अनुकरण पर काव्य-रचना करना जयदेव की कीर्ति-कौमुदी की उज्ज्वलता तथा उत्कृष्टता की स्वीकृति का ही परिचायक है। Laddu Gopal Store
भक्ति, शृंगार और कवित्व की त्रिवेणीरूप ‘गीतगोविन्द’ काव्य का कृष्ण-भक्ति साहित्य में एक अन्य दृष्टि से भी उल्लेखनीय महत्त्व है। यह सर्वजन विदित तथ्य है कि इस काव्य से पूर्व श्रीकृष्ण की प्रेयसी अथवा पत्नी के रूप में रुक्मिणी तथा सत्यभामा आदि का नाम ही लिया जाता था। राधा नाम की किसी स्त्री का कोई अस्तित्व नहीं था। श्रीमद्भागवत् पुराण में ‘अनायरधितो नूनम्’ श्रीकृष्ण की आराधना करने वाली किसी एक गोपी का उल्लेख अवश्य हुआ है, परन्तु कृष्ण-काव्य में कृष्ण के साथ जुड़ने वाली कृष्ण के ही समकक्ष (कहीं-कहीं तो उनसे भी अधिक) महत्त्व प्राप्त करने वाली श्रीकृष्ण की प्रेमिका-पत्नी राधा का उल्लेख कहीं नहीं हुआ। राधा को इस उच्च स्थान—श्रीकृष्ण की अनन्य सहचरी एवं उनसे अभिन्न तथा उनकी नित्यशक्तिरूपा—पर प्रतिष्ठित करने के श्रेय ‘गीतगोविन्दकार’ जयदेव को ही प्राप्त है। इस ग्रन्थ में चित्रित राधा-कृष्ण के नित्य-विलास के आधार पर ही ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधा-कृष्ण की शृंगार-चेष्टाओं तथा काम-क्रीड़ाओं का वर्णन हुआ है, परन्तु यह एक कठोर सत्य है कि पुराणकार न तो ‘गीतगोविन्द’ काव्य के वर्णन जैसी मर्यादा और शालीनता का निर्वाह कर सका है और न ही वर्णन को वैसा सरस, रोचक एवं हृदयग्राह्य बना सका है। इस क्षेत्र में भी जयदेव अपने उपमान आप ही हैं। इस आधार पर ही कदाचित् कृष्ण-भक्ति साहित्य में ‘गीतगोविन्द’ काव्य को धर्मग्रन्थ का गौरव प्राप्त है। Laddu Gopal Store
सन्दर्भसंपादित करें
- ↑ Geet Govind: (अंग्रेज़ी में). २०१४. पृ॰ २. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5072-575-7. अभिगमन तिथि २८ जनवरी २०१८.
- ↑ Learn the lingo Archived 2013-07-24 at the Wayback Machine. The Hindu. 14 September 2007
इन्हें भी देखेंसंपादित करें
बाहरी कड़ियाँसंपादित करें
- गीतगोविन्दम् (संस्कृतविश्वम्)
- गीत गोविन्द (विकिस्रोत)
- जयदेव (विकिस्रोत)
- रतिमंजरी
- Oriya version of the Gita Govinda
- The Gita Govinda: a Multimedia Presentation
- word-for-word Sanskrit verses to English, translation in prose thru webpage gIrvANi -gItagovindam
- गीतगोविन्द (गूगल पुस्तक)
- Laddu Gopal Store