महाराणा कुम्भा

मेवाड़ के सिसोदिया वंश के प्रतापी शासक

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कुंभा
राणा
महाराणा कुम्भा
शासनावधि1433 - 1468
राज्याभिषेक1433
पूर्ववर्ती[मोकल]]
उत्तरवर्तीऊदा सिंह (उदयसिंह प्रथम)
निधनमामा कुंड, कुम्भलगढ दुर्ग
संतानऊदा सिंह, राणा रायमल, रमाबाई (वागीश्वरी)
पूरा नाम
कुम्भकर्ण सिंह
राजवंशसिसोदिया राजवंश
पिताराणा मोकल
मातासौभाग्यवती परमार
मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के शासक
(1326–1948 ईस्वी)
राणा हम्मीर सिंह (1326–1364)
राणा क्षेत्र सिंह (1364–1382)
राणा लखा (1382–1421)
राणा मोकल (1421–1433)
राणा कुम्भ (1433–1468)
उदयसिंह प्रथम (1468–1473)
राणा रायमल (1473–1508)
राणा सांगा (1508–1527)
रतन सिंह द्वितीय (1528–1531)
राणा विक्रमादित्य सिंह (1531–1536)
बनवीर सिंह (1536–1540)
उदयसिंह द्वितीय (1540–1572)
महाराणा प्रताप (1572–1597)
अमर सिंह प्रथम (1597–1620)
करण सिंह द्वितीय (1620–1628)
जगत सिंह प्रथम (1628–1652)
राज सिंह प्रथम (1652–1680)
जय सिंह (1680–1698)
अमर सिंह द्वितीय (1698–1710)
संग्राम सिंह द्वितीय (1710–1734)
जगत सिंह द्वितीय (1734–1751)
प्रताप सिंह द्वितीय (1751–1754)
राज सिंह द्वितीय (1754–1762)
अरी सिंह द्वितीय (1762–1772)
हम्मीर सिंह द्वितीय (1772–1778)
भीम सिंह (1778–1828)
जवान सिंह (1828–1838)
सरदार सिंह (1838–1842)
स्वरूप सिंह (1842–1861)
शम्भू सिंह (1861–1874)
उदयपुर के सज्जन सिंह (1874–1884)
फतेह सिंह (1884–1930)
भूपाल सिंह (1930–1948)
नाममात्र के शासक (महाराणा)
भूपाल सिंह (1948–1955)
भागवत सिंह (1955–1984)
महेन्द्र सिंह (1984–वर्तमान)
महाराणा कुम्भा महल

महाराणा कुम्भा या महाराणा कुम्भकर्ण (मृत्यु 1468 ई.) सन 1433 से 1468 तक मेवाड़ के राजा थे। भारत के राजाओं में उनका बहुत ऊँचा स्थान है। उनसे पूर्व राजपूत केवल अपनी स्वतंत्रता की जहाँ-तहाँ रक्षा कर सके थे। कुम्भा ने मुसलमानों को अपने-अपने स्थानों पर हराकर राजपूती राजनीति को एक दोहरा रूप दिया। इतिहास में ये 'राणा कुंभा' के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। महाराणा कुुुम्भा को चित्तौड़ दुर्ग का आधुुुनिक निर्माता भी कहते हैं क्योंकि इन्होंने चित्तौड़ दुर्ग के अधिकांश वर्तमान भाग का निर्माण कराया।

महाराणा कुंभा राजस्थान के शासकों में सर्वश्रेष्ठ थे। मेवाड़ के आसपास जो उद्धत राज्य थे, उन पर उन्होंने अपना आधिपत्य स्थापित किया। 35 वर्ष की अल्पायु में उनके द्वारा बनवाए गए 32 दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं, वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं। उनकी विजयों का गुणगान करता विश्वविख्यात विजय स्तंभ भारत की अमूल्य धरोहर है। कुंभा का इतिहास केवल युद्धों में विजय तक सीमित नहीं थी बल्कि उनकी शक्ति और संगठन क्षमता के साथ-साथ उनकी रचनात्मकता भी आश्चर्यजनक थी। ‘संगीत राज’ उनकी महान रचना है जिसे साहित्य का कीर्ति स्तंभ माना जाता है।

उपाधियाँ :- अभिनव भरताचार्य(नव्य भरत), तोडरमल, नंदिकेश्वरावतार, राणो रासो, हालगुरू, शैलगुरु, दानगुरु, चापगुरु, निरुशंक, सुरग्रामणी,नरपति, गजपति, अश्वपति, हिन्दू सुरताण, परम भागवत, आदि वराह।[उद्धरण चाहिए]

रचित ग्रंथ:-

                 1. संगीत राज 
                 2. संगीत मीमांसा
                 3. सूङ प्रबन्ध
                 4. रसिक प्रिया टीका
                 5. संगीत रत्नाकर टीका 
                 6. चण्डीशतक व्याख्या टीका
                 7. कामराजरतिसार
                 8. सुधा प्रबन्ध
                 9. संगीक्रम दीपिका
                10. नवीन गीत गोविंद
                11. वाद्य प्रबन्ध
                12. संगीत सुधा
                13. हरिवार्तिक

महाराणा का विद्यानुराग :- महाराणा कुम्भा न केवल वीर, युद्धकौशल में निपुण तथा कला प्रेमी था वरन् एक विद्वान तथा विद्यानुरागी भी था। उसके दरबार में कई विद्वान आश्रय पाते थे। एकलिंगमाहात्म्य से विदित होता है कि वह वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण, राजनीति और साहित्य में बड़ा निपुण था। संगीतराज, संगीतमीमांसा एवं सूङ प्रबन्ध इसके द्वारा रचित संगीत के ग्रन्थ थे। 'संगीतराज' के पांच भाग- पाठरत्नकोश, गीतरत्नकोश, वाद्यरत्नकोश, नृत्यरत्नकांश और रसरत्नकोश हैं। ऐसी मान्यता है कि कुम्भा ने चण्डीशतक की व्याख्या, गीतगोविन्द की टीका रसिकप्रिया और संगीतरत्नाकर की टीका लिखी थी। महाराणा को महाराष्ट्री, कर्णाटी और मेवाड़ी भाषा लिखने का अच्छा अभ्यास था जो उसके द्वारा रचित चार नाटकों से प्रमाणित है। कुम्भा के अन्य प्रमुख ग्रंथ- कामराज रतिसार (7 अंग), सुधा प्रबन्ध- रसिक प्रिया का पूरक ग्रंथ, राजवर्णन- एकलिंग माहात्म्य का प्रारंभिक भाग, संगीतक्रम दीपिका, नवीन गीतगोविन्द वा प्रबन्ध, संगीत सुधा, हरिवार्तिक आदि हैं। उसकी उपाधि अभिनव भारताचार्य (संगीत कला में निपुण) से सिद्ध है कि वह स्वयं महान् संगीतकार था। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार वह वीणा बजाने में निपुण था

दरबारी साहित्यकार :- मण्डन नामक प्रसिद्ध शिल्पी उसका आश्रित था जिसने देवमूर्ति प्रकरण, प्रासाद मण्डन राजवल्लभ (भूपतिवल्लभ), रूपमण्डन, वास्तुमण्डन, वास्तुशास्त्र व वास्तुकार आदि पुस्तकों की रचना की। मण्डन के पुत्र गोविन्द ने उद्धारधोरणी, कलानिधि तथा द्वारदीपिका नामक ग्रन्थों की रचना की थी। 'कलानिधि' देवालयों के शिखर विधान पर केन्द्रित है। जिसे शिखर रचना व शिखर के अंग-उपांगों के सम्बन्ध में कदाचित एकमात्र स्वतन्त्र ग्रंथ कहा जा सकता है। आयुर्वेदज्ञ के रूप में गोविन्द की रचना 'सार समुच्यय' में विभिन्न व्याधियों के निदान व उपचार की विधियाँ दी गई हैं। कुम्भा की पुत्री रमाबाई को 'वागीश्वरी' कहा गया है, वह भी अपने संगीत प्रेम के कारण प्रसिद्ध रही है। 'कवि मेहा' महाराणा कुम्भा के समय का एक प्रतिष्ठित रचनाकार था। उसकी रचनाओं में 'तीर्थमाला' प्रसिद्ध है जिसमें 120 तीर्थों का वर्णन है। मेहा कुम्भा के समय के दो सबसे महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्यों कुम्भलगढ़ और रणकपुर जैन मंदिर के समय उपस्थित था। 'हीरानन्द मुनि' को कुम्भा अपना गुरु मानते थे और उन्हें 'कविराज' की उपाधि दी। कवि, अत्रि और महेश कीर्तिस्तम्भ की प्रशस्ति के रचयिता थे। इनके अतिरिक्त कान्ह व्यास एकलिंगमाहात्म्य का प्रसिद्ध लेखक था।

सोमसुन्दर,मुनिसुन्दर,टिल्लाभट्ट,जयचन्द्रसूरि,सोमदेव,भुवनसुन्दरसूरि, सुन्दरसूरि, माणिक्य, सुन्दरगणि आदि कुम्भाकालीन जैन विद्वान थे जिन्होंने धर्म और काव्य ग्रन्थों की रचना द्वारा उस युग की शिक्षा के स्तर को उन्नत किया था। उस समय अनेक विद्वान महाराष्ट्र, गुजरात और मालवा से यहाँ आते रहे और यहाँ के विद्वान उन भागों में जाते रहे, जिनमें मण्डन तथा अनेक जैनाचार्य और सोमपुरे शिल्पी विशेष उल्लेखनीय हैं।

मण्डन\मण्डन सूत्रधार (खेता ब्राह्मण का पुत्र) द्वारा रचित ग्रंथ व उसकी विषय-वस्तु इस प्रकार हैं; 1. रूप मण्डन - देवमूर्ति प्रकरण (रूपावतार) - मूर्ति निर्माण एवं प्रतिमा स्थापना, 2. वास्तुमण्डन- वास्तुकला, 3. वास्तुसार दुर्ग, भवन, नगर निर्माण, - राजप्रासाद, 4. कोदण्ड मण्डन - धनुर्विद्या, 5. शाकुन मण्डन - शगुन अपशगुन, 6. वैद्य मण्डन - व्याधियां व निदान, 7. प्रासाद मंडन- देवालय निर्माणकला, 8. राजवल्लभ मंडन - सामान्य नागरिकों के आवासीय गृहों से लेकर राजप्रासाद एवं नगर रचना का विस्तृत वर्णन है। मण्डन के भाई नाथा ने वास्तु मंजरी की रचना की। संगीताचार्य श्री 'सारंग व्यास' कुंभा के संगीत गुरु थे।

कुंभा एवं स्थापत्य (राजस्थान स्थापत्य कला का पिता) :- कविराजा श्यामलदास के अनुसार मेवाड़ के 84 दुगों में से कुम्भा ने 32 दुर्गा का निर्माण करवाया था। 'कर्नल टॉड' के अनुसार मेवाड़ के सुरक्षा प्रबन्ध के लिए उसने 32 किलों को बनवाया। अपने राज्य की पश्चिमी सीमा और सिरोही के बीच के कई तंग रास्तों को सुरक्षित रखने के लिए नाकाबन्दी की और सिरोही के निकट 'बसन्ती दुर्ग' बनवाया। मेरों के प्रभाव को बढ़ने से रोकने के लिए 'मचान दुर्ग' का निर्माण करवाया। कोलन और बदनौर के निकट 'बैराट के दुगों' की स्थापना की गयी। भोमट के क्षेत्र में भी अनेक दुर्ग बनाये गये जिससे भीलों की शक्ति पर राज्य का प्रभाव बना रहे। कीर्तिस्तम्भ के अनुसार केन्द्रीय शक्ति को पश्चिमी क्षेत्र में अधिक सशक्त बनाये रखने के लिए और सीमान्त भागों को सैनिक सहायता पहुँचाने के लिए आबू में 1509 वि.सं. में 'अचलगढ़ का दुर्ग' बनवाया गया। यह दुर्ग परमारों के प्राचीन दुर्ग के अवशेषों पर इस तरह से पुनर्निर्मित किया गया था कि उस समय को सामरिक व्यवस्था के लिए उपयोगी प्रमाणित हो सके। कुम्भलगढ़ का दुर्ग कुम्भा की युद्ध कला और स्थापत्य रुचि का महान चमत्कार कहा जा सकता है। चित्तौड़गढ़ दुर्ग का पुननिर्माण करवाया तथा यहाँ एक 'विजयस्तम्भ' बनवाया, अनेक जलाशयों का निर्माण करवाया। कुम्भाकालीन स्थापत्य में मन्दिरों के स्थापत्य का बहा महत्त्व है। ऐसे मन्दिरों में 'कुम्भस्वामी' तथा 'शृंगारचौरी का मन्दिर (चित्तौड़)', 'मीरा मन्दिर (एकलिंगजी)', 'रणकपुर का मन्दिर' अपने ढंग के अनूठे हैं। कुंभा के काल में रणकपुर के जैन मंदिरों का निर्माण 1439 ई. में एक जैन श्रेष्ठि धरनक ने करवाया था। रणकपुर के चौमुखा मंदिर (आदिनाथ) का निर्माण 'देपाक' नामक शिल्पी के निर्देशन में हुआ। "कुंभलगढ़ प्रशस्ति :" कुंभलगढ़ प्रशस्ति की रचना 1460 ई. में पूर्ण हुई। कुंभलगढ़ प्रशस्ति का रचयिता कवि महेश ही था।

विजयस्तम्भ : मालवा विजय को स्मृति में राणा ने विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया। विजयस्तम्भ के निर्माणकर्ता वि सूत्रधार जैता और उसके पुत्र नापा, पोमा व पूंजा थे। यह 30 फीट चौड़ा, 122 फुट ऊंचा है तथा इसके निर्माण में 90 लाख रुपये खर्च हुए। यह स्तम्भ 9 मंजिला था। 9वीं मंजिल बिजली गिरने से टूट गई थी जिसे राणा स्वरूपसिंह ने पुनर्निर्मित करवाया। इसे 'भारतीय मूर्ति कला का विश्वकोष' कहा जाता है।

कीर्ति स्तम्भ :- इसे 1460 ई. में बनवाया। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के रचयिता कवि, अत्रि थे लेकिन इनका निधन हो जाने के कारण इस प्रशस्ति को उनके पुत्र कवि महेश ने पूरा किया। इस पर तीसरी मंजिल पर अरबी में 9 बार अल्लाह शब्द लिखा हुआ है।

सारंगपुर का युद्ध (1437 ई.) सारंगपुर का युद्ध 1437 ई. में मेवाड़ के महाराणा कुंभा एवं मालवा (मांडू) के सुल्तान महमूद खिलजी के बीच हुआ, जिसमें कुंभा की विजय हुई। ये दोनों ही राज्य पड़ोसी थे और राज्य विस्तार के इच्छुक थे। मालवा के सुल्तान ने मेवाड़ के शत्रु महपा पंवार को आश्रय प्रदान किया। कुंभा ने महपा पंवार को मेवाड़ को सौंपने के लिए पत्र लिखा, लेकिन महमूद खिलजी ने शरणागत को लौटाना स्वीकार नहीं किया। अतः दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें महमूद खिलजी की पराजय हुई। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार सारंगपुर के युद्ध में मालवा का सुल्तान हार गया तथा उसे बंदी बनाया गया। जिसे छ: महीने तक कैद में रखने के बाद कुभा ने पारितोषिक देकर स्वतंत्र कर दिया। अबुल फजल एवं नैणसी ने महमूद खिलजी को बंदी बनाकर मुक्त करने का उल्लेख किया है। इस विजय की स्मृति में कुंभा ने अपने आराध्यदेव विष्णु के निमित्त चित्तौड़गढ़ में विजय स्तम्भ (कीर्तिस्तम्भ) का निर्माण (1440-1448 ई) करवाया। विजय स्तम्भ के स्थापत्यकार जैता, नापा और पूंजा थे तथा कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति का प्रशस्तिकार कवि अत्रि था। हम विजय स्तम्भ को 'भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष' कहा गया है।

सुल्तान महमूदशाह ने 1437 ई. की पहली पराजय का बदला लेने के लिए लगभग 6 वर्ष के बाद अर्थात् 1443 ई मे बङी तैयारी के साथ कुम्भलगढ़ पर आक्रमण कर दिया। कुंभलगढ़ में बाणमाता के मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और मूर्ति को तोड़कर उसके टुकड़ों को कसाइयों को मांस तोलने के उपयोग में लाने के लिए दे दिया। नन्दी की मूर्ति का चूना पकाकर राजपूतों को पान में खिलवाया। यहाँ से माण्डू की फौजे चितौड़ लेने को चली, परन्तु इसको लेने में सफलता नहीं मिली। तीन वर्ष के पश्चात् सन् 1446 में सुल्तान ने माण्डलगढ़ के किले को लेने के अभिप्राय से कूच किया पर असफल। 1456 ई. में फिर महमूद ने माण्डलगढ़ पर आक्रमण किया जिसे राणा ने दस लाख टंका देकर टाल दिया। फरिश्ता के वर्णन से यह मालूम होता है कि महमूद ने लगभग पाँच बार मेवाड़ पर आक्रमण किये और प्रत्येक बार महाराणा ने सोना और टंका देकर उसे लौटा दिया। डॉ. ओझा इन सभी में महमूद की पराजय बताते हैं। खुले मैदानों में या घाटियों में महाराणा ने भीलों की सहायता से 'लुका-छिपी/छापामार' की लड़ाई लड़ी थी। लौटती हुई सेना पर छापा मारना और अपनी सीमा से सेना को भगा देना यह विधि ही महाराणा की सैन्य व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग थी।

परिचय संपादित करें

(राणा कुम्भा)महाराणा कुम्भकर्ण, महाराणा मोकल के पुत्र थे और उनकी हत्या के बाद राणा कुम्भा गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से शीघ्र ही अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। इनके तीन संताने थी जिसमें दो पुत्र उदा सिंह , राणा रायमल तथा राणा एक पुुत्री रमाबाई (वागीश्वरी) थे |[उद्धरण चाहिए] 1437 ई. में मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी उन्होंने उसी साल सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराया और इस विजय के स्मारक स्वरूप चित्तौड़ का विख्यात विजय स्तम्भ बनवाया। राज्यारूढ़ होने के सात वर्षों के भीतर ही उन्होंने सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मांडलगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया। उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया, किंतु उन्हें सफलता न मिली। मालवा के सुलतान ने पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। नागौर के स्वामी शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई। महाराणा ने अन्य अनेक विजय भी प्राप्त किए। उसने डीडवाना(नागौर) की नमक की खान से कर लिया और खंडेला, आमेर, रणथंभोर, डूँगरपुर, सीहारे आदि स्थानों को जीता। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया।

किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुनः बसाया और श्री एकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तम्भ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। अपनी पुत्री रमाबाई ( वागीश्वरी ) के विवाह स्थल के लिए चित्तौड़ दुर्ग मेंं श्रृंगार चंवरी का निर्माण कराया तथा चित्तौड़ दुर्ग में ही विष्णु को समर्पित कुम्भश्याम जी मन्दिर का निर्माण कराया।

मेवाड़ के राणा कुुुम्भा का स्थापत्य युग स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है, क्योंकि कुुुम्भा ने अपने शासनकाल में अनेक दुर्गों, मन्दिरों एंव विशाल राजप्रसादों का निर्माण कराया, कुम्भा ने अपनी विजयों के लिए भी अनेक ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण कराया। वीर-विनोद के लेखक श्यामलदस के अनुसार कुुुम्भा ने कुल 32 दुर्गों का निर्माण कराया था जिसमें कुभलगढ़, अलचगढ़, मचान दुर्ग, भौसठ दुर्ग, बसन्तगढ़ आदि मुख्य माने जाते हैं तथा कुुुम्भा के काल में धरणशाह नामक व्यापारी ने देपाक नामक शिल्पी के निर्देशन मे रणकपुर के जैन मदिंरो का निर्माण करवाया था। कुम्भलगढ़ शिलालेख में उसे 'धर्म और पवित्रता का अवतार' तथा दानी राजा भोज व कर्ण से बढ़कर बताया गया है। वह निष्ठावान वैष्णव था और यशस्वी गुप्त सम्राटों के समान स्वयं को परमभागवत् कहा करता था। उसने आदिवाराह की उपाधि भी अंगीकार की थी : वसुंधरोद्धरणादिवराहेण (विष्णु के प्राथमिक अवतार वाराह के समान वैदिक व्यवस्था का पुनर्संस्थापक)।

राणा कुम्भा बड़े विद्यानुरागी थे। संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की जिसमें संगीत राज,सूढ प्रबन्ध, संगीत मीमांसा, रसिक प्रिया है। कुंभा ने चंडीशतक एवं गीतगोविन्द आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तम्भों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए। राणा की मृत्यु :- अपने अंतिम दिनों में राणा कुंभा उन्मादी रोग से ग्रसित हो गया था। वह अपना अधिक समय मामादेव के निकटवर्ती जलाशयं पर बिताया करता था। 1468 ई. के एक दिन शाम के समय राणा कुंभा 'मामादेव तालाब' पर अकेला बैठा हुआ था। उसके बड़े पुत्र उदयसिंह ने राणा की हत्या कर दी। हरविलास सारदा ने महाराणा की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए लिखा है कि कुम्भा एक महान् शासक, महान् सेनाध्यक्ष, महान् निर्माता और वरिष्ठ विद्वान थे।

सन्दर्भ ग्रन्थ संपादित करें

 
चित्तौड़गढ़ का विजयस्तम्भ
  • गौरीशंकर हीराचंद ओझा :

वीरविनोद; उदयपुर का इतिहास; नेणसी की ख्यात; राजस्थान अध्ययन (NCERT);

  • महाराणा के शिलालेख

कुम्भलगढ शिलालेख

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें