उदयसिंह द्वितीय
उदयभाई द्वितीय (जन्म ०४ अगस्त १५२२ ~ २८ फरवरी १५७२ ,चित्तौड़गढ़ दुर्ग, राजस्थान, भारत) मेवाड़ के एक महाराणा और उदयपुर शहर के संस्थापक थे। ये मेवाड़ साम्राज्य के ५३वें शासक थे। उदयसिंह मेवाड़ के शासक राणा सांगा (संग्राम भाई) के चौथे पुत्र थे[1] जबकि बूंदी की रानी, कर्णावती इनकी माँ थीं।
महाराणा उदयभाई द्वितीय | |
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महाराणा | |
मेवाड़ के राणा | |
शासनावधि | 1537-1572 (32 साल) |
राज्याभिषेक | 1540, चित्तौड़गढ़ |
पूर्ववर्ती | बनवीर |
उत्तरवर्ती | महाराणा प्रताप |
जन्म | 4 अगस्त 1522 चित्तौड़गढ़ दुर्ग, राजस्थान, भारत |
निधन | 28 फ़रवरी 1572 गोगुन्दा ,राजस्थान ,भारत | (उम्र 49 वर्ष)
संगिनी | महारानी जयवंता बाई , स्वरूपदे |
राजवंश | सिसोदिया[उद्धरण चाहिए] |
पिता | राणा सांगा |
माता | रानी कर्णावती |
धर्म | हिन्दू |
मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के शासक (1326–1948 ईस्वी) | ||
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राणा हम्मीर सिंह | (1326–1364) | |
राणा क्षेत्र सिंह | (1364–1382) | |
राणा लखा | (1382–1421) | |
राणा मोकल | (1421–1433) | |
राणा कुम्भ | (1433–1468) | |
उदयसिंह प्रथम | (1468–1473) | |
राणा रायमल | (1473–1508) | |
राणा सांगा | (1508–1527) | |
रतन सिंह द्वितीय | (1528–1531) | |
राणा विक्रमादित्य सिंह | (1531–1536) | |
बनवीर सिंह | (1536–1540) | |
उदयसिंह द्वितीय | (1540–1572) | |
महाराणा प्रताप | (1572–1597) | |
अमर सिंह प्रथम | (1597–1620) | |
करण सिंह द्वितीय | (1620–1628) | |
जगत सिंह प्रथम | (1628–1652) | |
राज सिंह प्रथम | (1652–1680) | |
जय सिंह | (1680–1698) | |
अमर सिंह द्वितीय | (1698–1710) | |
संग्राम सिंह द्वितीय | (1710–1734) | |
जगत सिंह द्वितीय | (1734–1751) | |
प्रताप सिंह द्वितीय | (1751–1754) | |
राज सिंह द्वितीय | (1754–1762) | |
अरी सिंह द्वितीय | (1762–1772) | |
हम्मीर सिंह द्वितीय | (1772–1778) | |
भीम सिंह | (1778–1828) | |
जवान सिंह | (1828–1838) | |
सरदार सिंह | (1838–1842) | |
स्वरूप सिंह | (1842–1861) | |
शम्भू सिंह | (1861–1874) | |
उदयपुर के सज्जन सिंह | (1874–1884) | |
फतेह सिंह | (1884–1930) | |
भूपाल सिंह | (1930–1948) | |
नाममात्र के शासक (महाराणा) | ||
भूपाल सिंह | (1948–1955) | |
भागवत सिंह | (1955–1984) | |
महेन्द्र सिंह | (1984–2024) | |
विश्वराज सिंह | (2024-वर्तमान) | |
व्यक्तिगत जीवन
संपादित करेंउदयसिंह का जन्म चित्तौड़गढ़ में अगस्त १५२२ में हुआ था । इनके पिता महाराणा सांगा के निधन के बाद रतन सिंह द्वितीय को नया शासक नियुक्त किया गया। रत्न सिंह ने १५३१ में शासन किया था।[2]राणा विक्रमादित्य सिंह के शासनकाल के दौरान तुर्की के सुल्तान गुजरात के बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ पर १५३४ में हमला कर दिया था, इस कारण उदयसिंह को बूंदी भेज दिया था ताकि उदयसिंह सुरक्षित रह सके।[1] १५३७ में बनवीर ने विक्रमादित्य का गला घोंटकर हत्या कर दी थी और उसके बाद उन्होंने उदयसिंह को भी मारने का प्रयास किया लेकिन उदयसिंह की धाय पन्ना धाय ने उदयसिंह को बचाने के लिए अपने पुत्र चन्दन का बलिदान दे दिया था इस कारण उदयसिंह ज़िंदा रह सके थे ,पन्ना धाय ने यह जानकारी किसी को नहीं दी थी कि बनवीर ने जिसको मारा है वो उदयसिंह नहीं बल्कि उनका पुत्र चन्दन था। इसके बाद पन्ना धाय बूंदी में रहने लगी। लेकिन उदयसिंह को आने जाने और मिलने की अनुमति नहीं दी।और उदयसिंह को खुफिया तरीक से कुम्भलगढ़ में २ सालों तक रहना पड़ा था।
इसके बाद १५४० में कुम्भलगढ़ में उदयसिंह का राजतिलक किया गया और मेवाड़ का राणा बनाया गया। उदयसिंह के सबसे बड़े पुत्र का नाम महाराणा प्रताप था जबकि पहली पत्नी का नाम महारानी जयवंताबाई था।[3] कुछ किवदन्तियों के अनुसार उदयसिंह की कुल २२ पत्नियां और ५६ पुत्र और २२ पुत्रियां थी। उदयसिंह की दूसरी पत्नी का नाम सज्जा बाई सोलंकी था जिन्होंने शक्ति सिंह और विक्रम सिंह को जन्म दिया था जबकि जगमाल सिंह ,चांदकंवर और मांकनवर को जन्म धीरबाई भटियानी ने दिया था ,ये उदयसिंह की सबसे पसंदीदा पत्नी थी। इनके अलावा इनकी चौथी पत्नी रानी वीरबाई झाला थी जिन्होंने जेठ सिंह को जन्म दिया था।
कार्य
संपादित करें१५४१ ईस्वी में वे मेवाड़ के राणा हुए और कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। हजारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब लगा कि गढ़ अब न बचेगा तब जयमल और फत्ता आदि वीरों के हाथ में उसे छोड़ उदयसिंह अरावली के घने जंगलों में चले गए। वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक उदयसागर नामक सरोवर का निर्माण किया था। वहीं उन्होंने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई। चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद उदयसिंह का देहान्त हो गया था और अगला शासक जगमाल सिंह को बनाया गयाथा लेकिन कुछ ही दिनों बाद जगमाल को हटा कर महाराणा प्रताप को गद्दी पर बैठाया गया।
युद्ध
संपादित करेंउदयसिंह की कोई बड़ी उपलब्धियां नहीं रही. सैनिक सफलता के पैमाने पर संभवत यह गुहिल वंश के सबसे कमजोर शासक साबित हुए. 1543 में जब शेरशाह सूरी ने चित्तौड़ पर आक्रमण करने की खबर आई तो इन्होंने अपने दूत को भिजवाकर किले की चाबियां सूरी को सौप दी थी. ऐसा करके इन्होंने किले के नुक्सान को तो बचा लिया मगर लड़ने से पहले ही हार स्वीकार कर ली थी. इन्होंने अरावली की उपत्यकाओं के मध्य उदयपुर शहर की स्थापना की.उदयसिंह ने मारवाड़ के शासक मालदेव के विरूद्ध शेरशाह सूरी के सेनापति हाजी खा की मदद की थी और रंगराय नामक पातर के कारण 1557 ई में हरमाङा का युद्ध लङा।।[4]
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ अ आ Tod, James (1829, reprint 2002). Annals & Antiquities of Rajasthan, Vol.I, Rupa, New Delhi, ISBN 81-7167-366-X, p.240-52
- ↑ Mahajan V.D. (1991, reprint 2007) History of Medieval India, Part II, S. Chand, New Delhi, ISBN 81-219-0364-5, p.11
- ↑ Tod, James (1829, reprint 2002). Annals & Antiquities of Rajas'than, Vol.I, Rupa, New Delhi, ISBN 81-7167-366-X, p.252-64
- ↑ भार्गव, वी एस (1966). मध्य कालीन राजस्थान का इतिहास. जयपुर: काॅलेज बुक डिपो जयपुर. पृ॰ 91.