आजकल हिंदी में 'देवता' शब्द का देव शब्द के समान पुल्लिंग में व्यवहार होता है। स्त्रीलिंग में दोनों का रूप देवी है। इंद्र, रुद्र, गणेश आदि देवता; शची, दुर्गा, लक्ष्मी आदि देवियाँ हैं। सूक्ष्म शरीरधारी और भूलोक से ऊपर के लोकों में निवास करनेवालों के गंधर्व, अप्सरा, यक्ष, पितृ और देव जैसे कई वर्ग हैं। इनमें देववर्ग सबसे ऊँचा है और उसका निवास स्वर्गलोक में माना जाता है। देव का पर्याय सुर भी है। आर्यसमाज के विद्वान्‌ ऐसा नहीं मानते। उनका विश्वास है कि देव शब्द वैदिक वाङ्मय में विद्वानों और तपस्वियों, सामान्यत: पूज्य जनों, के लिए व्यवहृत हुआ है। संभव है ऐसा ही हो, परंतु साधारण: हिंदुओं के विश्वासों के अनुसार ऐसा नहीं है। देव शब्द को सामने उपस्थित विद्वानों का वाचक मानने पर कई मंत्रों का अर्थ नहीं लगता, जैसे :

यज्ञेन यामयजन्य देवास्तानि धर्म्माणि प्रथमान्यासन
ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्व साध्या: सन्ति देवा:।।

देवों ने यज्ञपुरुष की यज्ञ के द्वारा पूजा की, उन धर्मों के द्वारा जो इस विश्व के संचालक आदि धर्म हैं। जो लोग इस प्रकार आचरण करते हैं, यह नाक में (नाकउ नअ अअ कउ नहींअ नहींअ सुखउ जहाँ असुख नहीं हैउ जहाँ सुख हैउ स्वर्लोक में) महिमा को प्राप्त होते है जहाँ पूर्वकालीन साध्य देव निवास करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है।

देवता और देव एक प्रकार से एक दूसरे के समानार्थक हो गए हैं, फिर भी व्यवहार में कुछ अंतर है। 'एक देवता' कहा जा सकता है परंतु एक देव बोलने का चलन नहीं है। देवलोक, देवगण आदि बोला जा सकता है। देव, देवता, देवी के विरोधी असुर, दैत्य, दानव जैसे नामों से पुकारे जाते हैं।

संस्कृत में देव और देवता समानार्थक नहीं हैं। पहिली बात जो अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करती है वह यह है कि देवता शब्द स्त्रीलिंग है और दूसरी यह कि उसका प्रयोग मंत्रों के ही संबंध में होता है। यदि किसी संस्कृत पुस्तक में देवता को देव के अर्थ में लिख दिया गया है तो इसे मेरी समझ में लेखक का प्रमाद जानना चाहिए, यद्यपि कई कोशकार दोनों शब्दों को समानार्थक भी मानते हैं। कई प्रतिष्ठित पुस्तकों में भी ऐसा प्रयोग आता है पर इन सब की रचना वेदकाल से पीछे की है। प्रत्येक वेदमंत्र के साथ उसके द्रष्टा ऋषि तथा छंद और उसके विनियोग का उल्लेख होता है और साथ ही एक देवता का नाम भी लिया जाता है। देवता का नाम प्राय: पुल्लिंग में होता है, जैसे:

इदं विष्णुविंचक्रमे, त्रेधा निद्धे पदं।
समूढमस्य पांसुरे।।

विष्णु चले, उन्होंने तीन बार पाँव रखे, सारा विश्व उनके पाँव की धूलि से भर गया।

इस मंत्र के साथ देवता का उल्लेख मिलता है। परंतु देवता शब्द के स्त्रीलिंग होने से यों कहना हागा कि 'इस मंत्र की देवता विष्णु है। इसी प्रकार किसी मंत्र की देवता, इंद्र, किसी की रुद्र आदि हैं। यह विलक्षण बात प्रतीत हाती है। यही परंपरा तंत्रग्रंथों में चली आई है। उनमें भी बहुत से मंत्र होते हैं। कोई मंत्र एक अक्षर का होता है, कोई अनेकाक्षर, जैसे ्ह्रीं या क्लीं, ऊं वं वज्राय स्वाहा या एं ्ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे स्वाहा। प्रत्येक मंत्र के साथ उसकी देवता का उल्लेख है। यह विचारणीय है कि मंत्र के साथ पुरुष देव के लिए स्त्रीलिंग देवता शब्द क्यों प्रयुक्त होता है।

इस रहस्य के पीछे गंभीर आध्यात्मिक विचार है। विश्व का आधार तो शुद्ध ब्रह्म है। वह सत्वरूप, चिन्मय है। जगत्‌ के आरंभ में वहीं पदार्थ परमात्मा रूप से स्थित होता है। परमात्मा पराशक्तियुक्त है। परमशिव के दो चेहरे सामने आते हैं : प्रकाश और विमर्श, शिव और शक्ति। दोनों एक हैं, अभिन्न हैं। नासदीय सूक्त कहता है:

'आनीदवातं स्वधया तदेकं, तस्माद्धान्यन्नहि किंचनाए' - वह अपनी स्वधा के साथ बिना हवा के साँस ले रहा था, उसके सिवाय और कुछ नहीं था। इसीलिए इस तत्व का प्रतीक अर्धनारीश्वर विग्रह है। ज्यों ज्यों जगत्‌ स्थूल से स्थूलतर होता जाता है, पराशक्ति के असंख्य रूप होते जाते हैं। इनमें से प्रत्येक को देवता कहते हैं। विज्ञान ऊर्जा के जितने भेदों का अध्ययन करता है वह सब देवताएँ हैं। देवताएँ तो अनंत हैं, हम उनमें से कुछ को नाम देते हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि मंत्र विशेष का यथाविधि जप किया जाए तो उच्चारण से उत्पन्न स्वरलहरियाँ शक्ति के अनंतसागर को विशेष प्रकार से क्षुब्ध करती हैं। फलत: साधक में विशेष प्रकार की शक्ति का उदय होता है। यदि ऐसा कहा जाता है कि अमुक मंत्र की देवता रुद्र है तो तात्पर्य यह है कि उस मंत्र के विधिपूर्वक जप से साधक में रौद्री शक्ति- संहारक शक्ति का उदय, उद्बोध होगा। यह साधक की निष्ठा और तप की उग्रता पर निर्भर करता है कि वह शक्ति सागर को कहाँ तक विलोड़ित कर सकेगा। इसी प्रकार विष्णु, प्रजापति, इंद्र आदि नाम वैष्णवी, ब्राह्मी, ऐंद्री शक्तियों के प्रतीक के रूप में मंत्रों के साथ प्रयुक्त होते हैं। सब देवताओं को महाशक्ति से तादात्म्य दुर्गासप्तशती में इस प्रकार दिखलाया गया है। शुंभ से लड़ने में महासरस्वती की सहायता के लिए आई हुई लक्ष्मी, ब्रह्माणी आदि को देखकर उससे आपत्ति करने पर देवी कहती हैं कि यह सब तो मेरी विभूतियाँ हैं, 'द्वितीया का ममापरा- मेरे सिवाय दूसरी कौन है? और तत्काल सब देवताएँ उनमें समा गईं।

देवगण कौन हैं? यह लोग पुराकाल के योगी हैं जिन्होंने अपने उग्र तप के बल पर विश्व में ऊँचा स्थान पाया है। जिसने जिस शक्ति का विशेष उद्बोध किया है उसको उसके नाम से पुकारा जाता है। यह लोग दीर्घ काल तक इतर जीवों के कल्याणार्थ अपनी विभूतियों का उपयोग करते रहते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि देव और देवता का एक ही अर्थ नहीं है। यह कह सकते हैं कि देवतायुक्त व्यक्ति देव है।

प्रसंगवशात्‌ यह भी विचार कर लेना चाहिए कि अर्थविक्रिया हुई क्यों और देव शब्द का चलन क्यों कम हो गया। जब तक वैदिक यज्ञ याग होते रहे वेद का अध्ययन अध्यापन भी होता रहा। बौद्धकाल के बाद यज्ञों का चलन बहुत कम हो गया, वेदपाठ निष्प्रयोजन सा प्रतीत होने लगा। फलत: मंत्रों के अर्थ की ओर से ध्यान हट गया, देवता शब्द का लक्ष्य विस्मृतप्राय हो गया। देवताओं के प्रतीक के रूप में इंद्रादि नाम पहले से ही दिए हुए थे। देवता शब्द के स्त्रीलिंग होने की ओर से भी ध्यान दूर हो गया। प्रतीक मूल बन गया। इंद्रदेव, विष्णुदेव, वरुणदेव, इंद्रदेवता, विष्णुदेवता, वरुणदेवता बन गए।

इतिहासवेत्ताओं का कहना है कि किसी समय आर्य लोगों में किन्हीं धार्मिक प्रश्नों को लेकर संघर्ष हुआ। यह आज से सहस्त्रों वर्ष पहले की बात है। हम उन सब प्रश्नों का नहीं जानते जिनपर विवाद उठा परंतु इतना तो निश्चित प्रतीत होता है कि एक प्रश्न इंद्र के संबध में था। कुछ लोग इंद्र को देवराज मानते थे। शेष इसके लिए तेयार नहीं थे। झगड़ा इतना बढ़ा कि इंद्र को न माननेवाले देश का छोड़कर चले गए। कई जगहों में घूमते घूमते अंत में वह लोग ईरान में बस गए। उन्हीं के वंशज आज पारसियों के नाम से हमारे देश में रहते हैं। वेदों में इंद्र को न माननेवालों, अनिंद्रों, की बहुत भर्त्सना की गई है। धार्मिक कटुता का परिणाम यहाँ तक पहुँचा कि धर्म संबंधी कुछ महत्वपूर्ण शब्दों तक का बंटवारा हो गया। इनमें से दो शब्द देव और असुर थे।

देव शब्द दिव्‌ धातु से निकला है, जिसका अर्थ है चमकना। जो प्रकाशमान्‌, तेजस्वी, हो वह देव है। असुर की व्युत्पत्ति सायण के अनुसार इस प्रकार है : अस्यति क्षिपति सर्वान्‌ - जो सबको फेंक देता है। इसका अर्थ उन्होंने प्रबेल: प्रबल, बताया है। प्रारंभ में इन दोनों शब्दों का वाच्यार्थ एक ही था। देवगण तेजस्वी भी थे और प्रबल भी, अत: वह असुर भी थे। इस प्राचीन प्रयोग की स्मृतियाँ स्वयं वेद में सुरक्षित हैं। कई जगहों में देवों को असुर कहा गया है। ऋग्वेद के तृतीय मंडल के 55वें सूक्त में 22 मंत्र हैं। सबमें देवों के असुरत्व की चर्चा है। प्रत्येक मंत्र के अंत में कहा गया है : महद्देवानामसुरत्वमेकं देवों का असुरत्व महान्‌ है अर्थात्‌ वह बड़े प्रबल हैं। उदाहरण के लिए सुक्त का 10वां मंत्र लीजिए :

विष्णुर्गोपा परमं याति पाथ:
प्रिया धामानि अमृता दधान:।
अग्निष्टा विश्वा भुवनानि वेद,
महद्देवानामसुरत्वमेकम्‌।।

- रक्षक विष्णु परम पथ से जाते हैं, प्रिय अमृत धामों को धारण करते हुए।

अग्नि उन सब धामों को जानते हैं,

देवों का एक असुरत्व महान्‌ है।।

धार्मिक खटपट में ये दोनों शब्द बँट गए। ईरानी आर्यों ने असुर शब्द को अपनाया और भारतीयों ने देव शब्द को। ईरान में परमात्मा अहुरमज्द- असुर महत्‌- बड़ा असुर- कहलाया तो भारत में उसे महादेव की उपाधि मिली। फलत: ईरानी समुदाय में देव निंदास्पद बन गया और भारतीयों में यही दुर्गति असुर शब्द की हुई। लोगों के मुसलमान हो जाने पर भी देव शब्द ईरानी भाषा, फारसी में ऊपर न उठ सका, उसी भूत प्रेत, निकृष्ट और दुष्ट परंतु शक्तिशाली, जीवविशेष के अर्थ में प्रयोग होता रहा। पठान आक्रामकों के साथ भारत आया। अब एक तो यहाँ पुराना देव शब्द था, दूसरा यह नया देव शब्द पहुंचा। आक्रामक के सामने स्वदेशी शब्द को पीछे हटना पड़ा। धीरे धीरे उसका व्यवहार कम होता गया। अर्थव्यभिचार को बचाने के लिए विद्वानों ने स्यात्‌ जानबूझ कर ऐसा किया होगा। उसके पास देवता शब्द था ही जिसका अब प्राय: कोई पृथक्‌ प्रयोजन नहीं रह गया था। देव की जगह धीरे धीरे देवता ने ले ली और अपने बुरे अर्थ के लिए देव शब्द सामान्य लोगों की बोली में उतर आया। कालादेव, लालदेव आदि की कहानियाँ लोक में प्रचलित हो गईं, अमुक मनुष्य का देव जैसा शरीर हे, ऐसे वाक्य सुने जाने लगे। अप्सरा, गंधर्व आदि तो थे ही, हमने मुस्लिम शासनकाल में जिन, परी और देवों के नए वर्गों की भी सृष्टि होते देखी। सौ वर्ष पुराने नाटक अमानतकृत इंदर सभा में इनमें से कइयों के दर्शन होते हैं। वहाँ राजा इंदर के दरबार में अप्सराओं की जगह परियाँ और अग्नि, वरुण, विष्णु आदि की जगह भाँति भाँति के रंगीन देव ही मंच पर आते हैं।

प्रसंगवशात्‌ 'सुर' शब्द का भी ऊपर चर्चा किया गया है। इसका इतिहास भी रोचक प्रतीत होता है। वैदिक वाङ्मय में इसका पता नहीं चला। ऐसा प्रतीत होता है कि पीछे से असुर शब्द की व्युत्पत्ति भूलकर लोगों ने ऐसा सोचा होगा कि अ और सुर मिलने से यह शब्द बना है। ऐसी अवस्था में इसका अर्थ होगा सुर नहीं। जो सुर न हो वह असुर हुआ। असुरों के विरोधी देव थे ही, अत: सुर सहज ही देव का पर्याय बन गया। इसके लिए व्युत्पत्ति भी ढूंढ निकाली गई : सुष्ठु राति अभीष्टानजा अच्छी तरह अभीष्टों को देता है, पूरा करता है। नया होते हुए भी यह शब्द सैकड़ों वर्षों से प्रचलित है।

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