नर्मद
नर्मदाशंकर लालशंकर दवे (गुजराती : નર્મદાશંકર લાલશંકર દવે) (24 अगस्त 1833 – 26 फ़रवरी 1886), गुजराती के कवि विद्वान एवं महान वक्ता थे। वे नर्मद के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्होने ही १८८० के दशक में सबसे पहले हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का विचार रखा था।
नर्मदाशंकर लालशंकर दवे | |
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जन्म | 24 अगस्त 1833 सूरत |
मौत | 26 फ़रवरी 1886 मुम्बई | (उम्र 52 वर्ष)
दूसरे नाम | नर्मद |
पेशा |
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जीवनसाथी | गुलाब (वि॰ 1844–53) दहीगौरी (वि॰ 1856–86) सुभद्रा (नर्मदगौरी) (वि॰ 1869–86) |
बच्चे | जयशंकर (1870-1910) |
हस्ताक्षर | |
वेबसाइट | |
Narmad |
गुजराती साहित्य के आधुनिक युग का समारंभ कवि नर्मदाशंकर 'नर्मद' (१८३३-१८८६ ई.) से होता है। वे युगप्रवर्त्तक साहित्यकार थे। जिस प्रकार हिंदी साहित्य में आधुनिक काल के आरंभिक अंश को 'भारतेंदु युग'की संज्ञा दी जाती है, उसी प्रकार गुजराती में नवीन चेतना के प्रथम कालखंड को 'नर्मद युग' कहा जाता है। हरिश्चंद्र की तरह ही उनकी प्रतिभा भी सर्वतोमुखी थी। उन्होंने गुजराती साहित्य को गद्य, पद्य सभी दिशाओं में समृद्धि प्रदान की, किंतु काव्य के क्षेत्र में उनका स्थान विशेष है। लगभग सभी प्रचलित विषयों पर उन्होंने काव्यरचना की। महाकाव्य और महाछंदों के स्वप्नदर्शी कवि नर्मद का व्यक्तित्व गुजराती साहित्य में अद्वितीय है। गुजराती के प्रख्यात साहित्यकार मुंशी ने उन्हें 'अर्वाचीनों में आद्य' कहा है।
परिचय
संपादित करेंनर्मद का जन्म और प्राथमिक शिक्षण सूरत में हुआ। पिता लालशंकर नागर ब्राह्मण थे और मुंबई में मसिजीवी होकर निवास करते थे। फलत: उनका माध्यमिक शिक्षण वहीं के एल्फिंस्टन इन्स्टिट्यूट में संपन्न हुआ। कुछ समय उसी संस्था के कालेज में अध्ययन करने के उपरांत विवाहित होकर पुन: सूरत चले गए जहाँ पंद्रह रुपए मासिक की 'म्हेताजीगीरी' करने लगे। पत्नी के देहावसान के बाद फिर मुंबई आए और अपूर्ण शिक्षा को पूर्ण कर पहले शिक्षक बने, फिर साहित्य और पत्रकारिता की दिशा में प्रवृत्त हो गए। अपने साहस और स्वदेशप्रेम से युक्त ओजस्वी भाषणों से उन्होंने पर्याप्त जाग्रति उत्पन्न की। 'बुद्धिवर्धक सभा' की स्थापना करके जागरूक योद्धा की तरह देश में व्याप्त आलस्य, संदेह और रूढ़ियों के उच्छेदन में संलग्न हो गए। स्वयं दो-दो विधवाओं को साहचर्य प्रदान करके सामाजिक मान्यताओं का खंडन किया। 'डांडियों' नामक पाक्षिक पत्र निकालकर क्रांति की विचारधारा को जनता में प्रसारित किया।
रचनाएँ
संपादित करेंसंगृहीत रूप में उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं -
गद्य - 'नर्मगद्य', 'नर्मकोश', 'नर्मकथाकोश', 'धर्मविचार', 'जूनृं नर्मगद्य';
नाटक - 'सारशाकुंतल', 'रामजानकी दर्शन', 'द्वौपदी दर्शन', 'बालकृष्ण विजय', 'कृष्णकुमारी';
कविता - 'नर्म कविता', 'हिंदुओनी पडती';
आत्मचरित - 'मारी हकीकत';
२४ वर्ष तक लगातार उन्होंने 'मसिजीवी' होकर लेखनी द्वारा 'असिधाराव्रत' का एकनिष्ठता के साथ निर्वाह किया। इस काल में उन्हें कभी-कभी विषम आर्थिक संघर्ष करना पड़ा किंतु साहित्यसाधन से वे उदासीन नहीं हुए। उनके मन में धारणा थी कि गुजराती भाषा में महाकाव्य की रचना की जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने 'वीरसिंह' तथा 'रुदनरसिक' नामक महाकाव्य लिखे पर वे अपूर्ण ही रह गए। उन्होंने 'वीरवृत्त' का सफल प्रयोग किया। पिंगल की दिशा में भी उनका कार्य प्रशंसनीय है। 'जोस्सो' से युक्त उनकी कविता कहीं कहीं कृत्रिम और अगंभीर भी लगती है पर उनमें आवेश का बोध सर्वत्र मिलता है। बलराम जैसे मनीषी विवेचकों के मत से उनकी कविता काव्यगुणों में भले ही उत्कृष्ट सिद्ध न हो पर उनके युगनिर्माता व्यक्तित्व को वह पूरी तरह अभिव्यक्त करती है, इसमें संदेह नहीं। 'जय जय गरबी गुजरात', 'सूरत सेनानी मूरत', 'नव करशो कोई शोक', 'सहु चलो जीतवा जंग', 'रण तो धीरानुं धीरानुं' तथा 'दासपणुं क्यां सुधी' इत्यादि काव्यरचनाएँ इसी प्रकार की हैं और उनसे नर्मद के शूर स्वभाव का पूरा परिचय मिलता है। १५०० पंक्तियों का काव्य हिंदूओनी पड़ती उनकी कवित्वशक्ति का स्मरणीय उदाहरण है। उसमें उद्बोधन का स्वर सबसे प्रबल है और वह उनकी प्रतिनिधि काव्यकृति कही जा सकती है।
गद्य की दिशा में उन्होंने जो पथ प्रदर्शित किया उसी का अनुसरण दयाराम आदि परवर्ती साहित्यकारों ने किया। उनसे पूर्व बहीखाते से ऊपर के स्तर का गद्य गुजराती साहित्य में अनुपलब्ध था। नर्मद ने गद्य को अंगरेजी से प्रेरणा ग्रहण करते हुए सुस्थिर रूप दिया तथा उसमें निबंध, जीवनचरित्र, नाटक, इतिहास, विवेचन, संशोधन, संपादन, पत्रलेखन आदि सभी कार्य संपन्न किए। वे गुजराती के सर्वप्रथम निबंधकार हैं। उनपर अंग्रेजी निबंधकारों का प्रभाव स्पष्ट है। पत्रकार होने के नाते निबंध उनकी अभिव्यक्ति का मुख्य वाहन बना। 'नर्मगद्य' तथा 'धर्मविचार' नामक दो संग्रहग्रंथों में उनके भिन्न-भिन्न प्रकार के निबंध संगृहीत हैं। 'मारी हकीकत' लिखकर उन्होंने गुजराती में आत्मचरित लिखने का शुभारंभ किया। उनकी यह कृति गांधी जी की आत्मकथा के लिए भी एक आदर्श नहीं, ऐसा कुछ लोगों का विचार है। यह यद्यपि क्रमबद्ध न होकर टिप्पणी रूप में लिखी गई है तथापि नर्मद की सत्यनिष्ठा इससे प्रकट हो जाती है। 'राज्यरंग' नामक कृति में उन्होंने इतिहास का आलेखन किया है। इस कृति से उनकी सांस्कृतिक दृष्टि का भी परिचय मिलता है। कोशसाहित्य निर्माण का कार्य भी उन्होंने किया। 'नर्मकोष' और 'नर्मकथाकोष' उनके साहित्यिक अध्यवसाय का प्रमाण है।
चित्रावली
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इन्हें भी देखें
संपादित करेंबाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- Narmad website
- Dandiyo newsletter (scanned copy)
- Article about Narmad in Gujarat Samachar
- Biographical blogpost about Narmad[मृत कड़ियाँ]